ग्रामीण क्षेत्रों में वृद्धजनों की देखभाल

वैसे तो बुढापा सभी लोगो के लिए चुनोतियाँ भरा होता है, लेकिन ग्रामीण क्षेत्रों में बुजुर्गों की देखभाल में गम्भीर मुश्किलें शामिल होती है। गांवो में बुढापा ज्यादा दिन इंतजार नही करता है। 

गांवो में लोग खेती-बाड़ी और मजदूरी के कामकाज इतनी कड़ी मेहनत से करते है कि उनका शरीर जल्दी ही जवाब दे जाता है। वे अपनी युवावस्था के उत्तरार्द्ध से ही वृद्धावस्था की ओर चले जाते है।  युवावस्था में होने वाले कई शारिरिक विकारों को आर्थिक तंगी के कारण टालते रहते है, कई बार चोटिल हो जाते है, ये सभी समस्याएं बुढापे में फिर उभरकर आती है। इस तरह गांवो में वृद्धावस्था बीमारियों के साथ चलती है।

परिवारों की आर्थिक तंगी का असर भी वृध्दों की देखभाल के दौरान देखने को मिलता है। एक तो उनको होने वाली गम्भीर स्वास्थ्य समस्याओं का इलाज नही हो पाता, दूसरा उनके अनुसार खानपान की व्यवस्था भी नही हो पाती है। साथ ही आर्थिक तंगी के कारण उनके पुत्र भी उनका भार अपने ऊपर लेने से कतराते है और वे एक दूसरे के ऊपर डालने के चक्कर मे बुजुर्गों की भावनाओं की पूर्णतः उपेक्षा कर देते है। कई बार बुजुर्गों को भी इस खींचतान में प्रताड़ित कर दिया जाता है।

कई सामाजिक योजनाओ का हस्तक्षेप बुजुर्गों को सामाजिक सुरक्षा प्रदान करने की दिशा में अग्रसर है। वृद्धावस्था पेंशन के माध्यम से बुजुर्गों को अपनी आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए सक्षम बनाया जा रहा है। कानूनी अमलीजामा भी बच्चों को वृध्दों की देखभाल के लिए प्रेरित कर रहा है। इसके साथ ही वृध्दों के स्वास्थ्य की देखभाल के लिए स्वास्थ्य केंद्रों को विशेष रूप से निर्देशित किया गया है। मेडिकल टीम साप्ताहिक रूप से होम विजिट करके वृद्धजनों की स्वास्थ्य समस्याओं को बेहतर तरीके से जान सकती

लेकिन बुजुर्गों की सुभेदयता काफी अधिक होती है जिसमे अकेलापन, लाचारी, अवसाद, उत्पीड़न जैसी अवस्थाएं शामिल होती है। पारिवारिक समर्थन जैसे तन्त्रो का तेजी से ह्रास हो रहा है। ऐसे में बुजुर्गों के लिए गांवो में भी बुनियादी संरचना स्थापित करने की आवश्यकता है। बालको और महिलाओं के लिए आंगनबाडी केंद्रों की तर्ज पर बुजुर्गों को भी कुछ दिनों की अवधि में सम्भालने के लिए कोई व्यवस्था होनी चाहिए। उनकी नियमित जांच की व्यवस्था हो।

निष्कर्ष
गांवो में सरकारी और सामाजिक पहलों में बुजुर्गों को जगह देकर उनसे अनुभव प्राप्ति को जारी रखा जा सकता है। बुजुर्गों को बोझ न समझकर बेहतर मार्गदर्शक बनाया जा सकता है। अगर बुजुर्ग स्वास्थ्य और शारीरिक रूप से ठीक रहेंगे तो वे खुद ही उत्पादक कार्यो में लगे रहेंगे। इस प्रकार हमे हमारी वरिष्ठ जनसांख्यकी के महत्व को समझना चाहिए।

किसानों से ऋण बोझ को कम करना

कर्ज और किसानी के बीच नजदीकी सम्बन्ध होता है। शुरू में किसान फसल और अन्य जरूरी कार्यो के लिए कर्ज लेता है और जब फसल तैयार होती है तो उसे चुका देता है। लेकिन वर्तमान में मानसून की विफलता, महंगाई, सामाजिक आयोजनों के खर्चों, शिक्षा और चिकित्सा सम्बंधित वित्तीय जरूरतों, भौतिक सुविधाओं को जुटाने की मंशा आदि कारणों की वजह से कर्ज का बोझ बढ़ गया है और उसे समय पर चुकाना भारी हो गया है। बढ़ते हुए कर्ज और उन्हें चुकाने में असमर्थता ने किसानों के भविष्य को अंधकारमय बना दिया है।

इससे भयभीत होकर किसानों के आत्महत्या तक की घटनाएं हुई है। जिनके कारण किसानों की दरिद्रता को सरकार ने भी जेहन में लिया है और समस्या समाधान में रूचि ली है।

किसानों के ऊपर से कर्ज के बोझ को कम करने के लिए निम्न आयामो पर विचार किया जा सकता है---

  1. सबसे पहले तो किसानों को असंस्थागत ऋण के स्त्रोतों से हटाकर संस्थागत स्त्रोतों (बैंको) से जोड़ने की जरूरत है। अब तक किसान सर्वाधिक शोषित असंस्थागत साहूकारों के द्वारा हुए है, जिनकी किसानों के संसाधनों पर पकड़ होती है जिसे वे स्वपरिभाषित चूक (defaultry) के माध्यम से हड़प लेते है और फिर किसान भूमिरहित हो जाते है। साहूकारी का यह स्वरूप 80 व 90 के दशक की बॉलीवुड फिल्मों में भली भांति दिखाया जाता है।
  2. दूसरी बात यह है कि कर्ज को लक्षित करके उसके अपव्यव रूपी रिसाव को खत्म किया जाए। उदारहण के लिए कई बार ऐसा होता है कि लोग भैस खरीदने या मशीनरी लाने के लिए कर्ज उठाते है और उसे दावतों में खर्च कर देते है। अब यहां यह सुनिश्चित करना आवश्यक है कि  कर्ज के धन का लक्षित प्रयोग हो, भले ही सभी प्रकार के खर्चो को भी यथोचित कर्ज श्रेणी में तब्दील करना पड़े। इसका फायदा यह होगा कि उत्पादक और अनुत्पादक दोनो श्रेणियों में पृथक रूप से कर्ज का उद्देश्य भुनाया जा सकेगा। कर्ज का उद्देश्य पूरा होने पर ही उसकी वापसी सुनिश्चित होगी।
  3. कर्ज के बोझ को रोकने के लिए किसानों को अपव्यव पर भी लगाम लगानी होगी। इसके लिए सामाजिक स्तर पर पहल करनी होगी। अपनी क्षमता से परे जाकर खर्च करने पर बहिस्कार जैसे मापदंड काम में लिए जाए, दहेज, दावते, महंगी शादियों जैसे प्रतिष्ठात्मक व्यव आदि पर रोक लगे।
  4. कर्ज के बोझ से बाहर आने के लिए सबसे महत्वपूर्ण पहलू है- किसानों की क्षमता का निर्माण ताकि उन्हें कर्ज की जरूरत न्यूनतम पड़े। इसके लिए किसानों को अतिरिक्त आय से जोड़ने की जरूरत है जिनमे पशुपालन, बागवानी, प्रसंस्करण आदि शामिल है।
  5.  इसके अलावा गांवो या गांवो के समूह पर उद्योग या सेवा क्षेत्रों को स्थापित करने के लिए नीतिगत समर्थन की आवश्यकता है, जैसे कि -पर्यटन, होटल, विनिर्माण आदि। इनसे रोजगार का सृजन होगा और लोग कृषि से इतर अतिरिक्त आय प्राप्त कर सकेंगे। जब आय में इजाफा होगा तो कर्ज लेने और चुकाने की क्षमता भी बढ़ जाएगी।

किये गए प्रयास
इस दिशा में सरकार ने कई प्रयास किए है। सरकार ने किसान क्रेडिट कार्ड के माध्यम से फसल-ऋण चक्र में ब्याज के बोझ को न्यूनतम करने का प्रयास किया है। किसानों की क्षमता को विकसित करने के लिए कई योजनाएं शुरू की है।
लेकिन मुख्य मुद्दा यह है की इन योजनाओं की प्रभावशीलता उचित प्रकार की नही रही है। बैंको से मिलने वाला कर्ज थोड़ा होता है और उसे प्राप्त करने की प्रक्रिया कम शिक्षित किसानों के लिए कष्टसाध्य होती है। उसी प्रकार किसानों की विभिन्न जरूरतों को भी ऋण श्रेणियां कवर नही करती है। सामाजिक कार्यो में भी दिखावे के बढ़ते प्रचलन के कारण धन का अविवेकपूर्ण अपव्यव जारी है। इन सबके चलते किसानों को ऋण के बोझ से बचाना मुश्किल होगा।

निष्कर्ष
अगर हमे किसानी को फायदेमंद निर्वाह का माध्यम बनाये रखना है तो हमे किसानों की जरूरतों को लक्षित करना होगा। धन के दक्ष प्रयोग को बढ़ावा देने के लिए वित्तीय साक्षरता को बढ़ावा देना होगा।

फसल ऋण चक्र में नई चुनौतियां

किसानों और कर्ज का गहरा नाता है। कहते है कि किसान कर्ज में जन्म लेता है, कर्ज के साथ बढ़ा होता है और मरते वक्त अपने पुत्रों पर कर्ज का बोझ विरासत में छोड़ जाता है। अगर हम  किसानों की जिंदगी का आंकलन करे तो यह बात उन पर सटीक बैठती है।

कर्ज की शुरुआत फसल बोने से होती है और फसल को बेचकर चुकाने पर खत्म होती है। शुरू में खाद-बीज के लिए कर्ज लेते है, फिर सिंचाई कार्यो के लिए, अंत मे फसल से उत्पादन प्राप्ति को बेचकर उन्हें चुकाया जाता है। इसे फसल-ऋण चक्र कहा जाता है जिसमे ऋण लेकर फसल की जाती है और फसल बेचकर ऋण चुकाया जाता है। यह चक्र हर साल दोहराया जाता है। अगर उत्पादन कम हो तो कर्ज को अगली फसल के भरोसे छोड़ दिया जाता है। बीच मे होने वाले सामाजिक आयोजनों और अन्य आवश्यक खर्चो के लिए भी कर्ज से ही वित्तीयन किया जाता है।
अगर कर्ज और फसल की प्राप्ति का यह चक्र चलता रहता तो ग्रामीण जीवन पूर्ववत चलता रहता, लेकिन नवीन आर्थिक-सामाजिक बदलावों ने इस चक्र को चुनोती दे डाली जिसके कारण कर्ज को चुकाने में एक मौसम की फसल से प्राप्त आय अप्रर्याप्त रहने लग गई और कर्ज को यह बोझ अगली फसल को अतिरिक्त रूप से प्राप्त हुआ।

फसल-ऋण चक्र को चुनोती देने वाले कारको को हम निम्न प्रकार से समझ सकते है----


  1. फसल-ऋण चक्र को पहली चुनोती तो भौगोलिक कारको पर आधारित है। जैसा कि भारत मे कृषि मानसून पर निर्भर करती है और मॉनसूनी जलवायु में अनिश्चितता होती है, जिसके कारण उत्पादन में भी अनिश्चितता आ जाती है। जिस भी वर्ष सूखा , ओलावृष्टि, बाढ़ जैसी घटनाएं होती है उसी वर्ष कर्ज चुकाई का संकट आ जाता है।
  2. महंगाई ने भी फसल-ऋण चक्र को चुनोती दी। दैनिक आवश्यकता की चीजो के भाव अत्याधिक हो गए और फसलों के दामो में ज्यादा अंतर नही आ पाया। साथ ही फसली इनपुटो के भी भाव बढ़ने से लागत कई गुना बढ़ गई, इन सबके चलते उत्पादन में उतना सामर्थ्य नही रहा कि वह कर्ज के बोझ को उठा सके।
  3. शादी-विवाह, दहेज, कई प्रकार की दावते जैसे सामाजिक आयोजनों में भी किसानो की आय का महत्वपूर्ण हिस्सा चला जाता है। कई बार तो इनमे किया जाने वाला खर्चा कर्ज लेकर किया जाता है। इन सामाजिक आयोजनो में महंगाई और आधुनिक रूप देने का जो सिलसिला चला है उसने भी अतिरिक्त भार डाल दिया है।
  4. किसानों के अपरम्परागत क्षेत्रों में उतरने से भी कर्ज का बोझ बढ़ा है। जैसे कि अब बच्चों की महंगी पढ़ाई-लिखाई का बोझ पड़ा है, भौतिक सुविधाओं को भी जुटाने लगे है। पहले की जीवनशैली में ये खर्चे शामिल नही थे। अब इन व्यवो ने आय के लिए अन्य स्रोतों को अपनाने पर जोर देकर कर्ज के चक्र को चुनोती दी है।

प्रभाव

यह फसल-ऋण चक्र असंस्थागत स्त्रोतों अर्थात साहूकारो पर आधारित था जहां महंगी ब्याज दर होती थी। चुकाने में कोई भी चूक होने पर भूमि या किसी अन्य संसाधन से हाथ धोना पड़ता था।
इसका असर यह हुआ कि खासकर सीमांत किसानों में उत्पादन से ज्यादा चिंता कर्ज को कम करने को लेकर होने लगी। क्योंकि उन्हें भूमिहीन होने की डर लगने लगा। मराठवाड़ा, विदर्भ जैसे सूखे क्षेत्रो से बड़ी मात्रा में किसानों के द्वारा आत्महत्या करने की घटनाएं सामने आने लगी।

इसका असर मानव संसाधनो के विकास पर भी पड़ा है। सीधी सी बात है ये अपने बच्चों को गुणवत्ता युक्त शिक्षा नही उपलब्ध करवा सकते जिस कारण वे खेती के अलावा रोजगार का कोई विकल्प भी नही प्राप्त कर सकते। अगर ऐसा होता तो वे गरीबी के जाल से आसानी से बाहर आ जाते। न ही इनके बच्चे अपने अन्य किसी हूनर की आजमाइश कर पाते है। इस प्रकार गरीबी का चक्र पीढ़ी दर पीढ़ी चलता रहता है।

निष्कर्ष

अब सरकार ने संस्थागत स्त्रोतों (बैंको) को बढ़ावा देकर इस चक्र के दुष्प्रभावो को कम करने की कोशिश की है। लेकिन अभी भी इस समस्या के समाधान के लिए बुनियादी कारणों को लक्षित करने की आवश्यकता है।

How far Democracy is The Rule of People

लोकतंत्र को जनता द्वारा, जनता के लिए, जनता का शासन माना जाता है। जनता के शासन का तात्पर्य है कि जनता ही सरकार को चुनती है इसलिए जनता और सरकार के बीच मे कोई अंतराल(Gap) नही है। भारतीय परिपेक्ष्य में लोकतंत्र की स्थापना के लगभग 65 साल बाद क्या यह बात पूरी तरह से सही ठहरती है ? चलिए हम इसका मूल्यांकन करते है।

दरअसल सरकार और लोगो के बीच सम्बन्धो का जो निर्धारण लोकतंत्र ने किया है। एक तरफ तो सरकार को अभी भी भरोसा नही हो पा रहा है कि हमे सत्ता जनता के behalf पर प्राप्त हुई है इसलिए हमारा दायित्व जनता की भलाई के लिए कार्य करना है। सरकार तो अभी भी परम्परागत सोच का अनुसरण कर रही है कि सत्ता को अपनी मर्जी से लोगो को शासित करने का अधिकार है, जिस पर जनता को प्रश्न नही करना चाहिए और जो मिल रहा है उससे खुश रहना चाहिए।

दूसरी तरफ जनता भी यह यकीन नही कर पा रही है कि लोकतंत्र में सत्ता के असली सम्प्रभु वे है, लोग अभी भी सरकार को सेवक के बजाय स्वामी ही मानते है। लोगो के जेहन में सरकार की छवि अभी भी माय-बाप की ही है। सरकारी दफ्तरों में गुहार लेकर आने वाले जरूरतमंद और पीड़ित लोग अपराधियों की भांति डरे रहते है। लोग सीधे संपर्क करने में संकोच करते है और वे दलालो के माध्यम से अपने काम करवाते है। अपनी चीजो से भला कौन डरता है इतना, लेकिन यह साफ है कि लोग सरकार से डरते है क्योंकि उसे समाधान की बजाय समस्या के तौर पर ही देखते है।

जिस प्रकार की सेवा सरकार दे रही है जनता उसे निर्विरोध रूप से स्वीकार कर रही है। जनता न तो उनकी खामिया गिना रही है और न ही उनमे सुधार हेतु कुछ सुझाव दे रही है। जनता और सरकार के बीच इस प्रकार की खाई के लिए हम निम्न कारणों को देख सकते है--

1. भारतीयों का ऐतिहासिक रूप से ही सरकार के साथ अनुभव ठीक नही रहा है और भारतीयों की मानसिकता 'शासको' की बजाय 'शासितों' की ही रही है। यहां सत्ता परिवर्तन, आक्रमणों और बाहरी लोगों के द्वारा शासकीय भूमिका निभाने से राजनीतिक अस्थिरता बनी रही जिससे कोई ऐसी राजनीतिक उपलब्धि प्राप्त नही हुई जो लोगो को स्वतंत्रता का अहसास करा सके, उन्हें भरोसा दिला सके कि सत्ता जनता के हितों के लिए ही कार्य करती है। यहां तो राजाओ और नवाबो ने केवल अपने हित के लिए जैसा चाहा वैसा शासन किया। लोग भुखमरी, अकाल, ऋणों से ग्रस्त थे, बेगारी कर रहे थे, बीमार पड़ रहे थे, लेकिन ऐसी चिंताओं से शासको को कोई मतलब नही था। उनका मतलब तो समय पर लगान और करो की प्राप्ति था चाहे दुखो से ही ग्रस्त हो। ब्रिटिश काल मे स्थिति और दयनीय हो गई जब लोगो ने किसी मांग को उठाया तो उनका बुरी तरह दमन कर दिया गया, लाठीचार्ज किया गया और जेलों में बंद कर दिया गया। अतः हम देख सकते है कि सत्ता और लोगो के बीच दूरी का लंबा इतिहास रहा है। इसे कम करने में, जनता व सरकार को नई भूमिका अहसास कराने में अभी समय लगेगा।

2. ब्रिटिश काल के प्रशासनिक ढांचे को ही आज़ादी के बाद अपना लेने से भी जनता और सरकार के बीच की दूरी कम नही हुई । ब्रिटिश अफसरों ने लोगो मे भय कायम करके राज करने पर जोर दिया। लोगो से सम्पर्क न रखकर नस्लीय भेदभाव को बढ़ावा दिया ताकि लोगो को अहसास हो जाये कि वे उन जैसे श्रेष्ठ नही है। ये चीजें वीआईपी कल्चर के तौर पर आज भी प्रचलित है। सरकारी अफसरों  और मंत्रियों के दौरों तथा निरीक्षण के समय जनता और सरकार के बीच की दूरी को प्रत्यक्ष महसूस किया जा सकता है, जनता को बेरिकेड्स लगाकर दूर कर दिया जाता है। यह एक तरह का वर्गीय विभाजन है जो शासकीय मानसिकता  से जुड़ा हुआ है। इस Ruling Class Mentality के कारण ही जनता के प्रति संवेदनाओ का खात्मा हो जाता है जिस कारण से लोगो की जरूरत से परिचित होने की सरकार कोई आवश्यकता ही नही समझती है। इस वर्ग को यह बात नही पच सकती कि जनता और सरकार के बीच कोई अंतराल नही है, इन्हें तो लगता है कि कल के दबे-कुचले लोग आज सत्ता को प्रश्न करने लग गए। इस तरह जनता को सरकार एक समस्या के तौर पर देखती है जिसके समाधान के लिए वह अपनी कल्याणकारी छवि का प्रयोग करती है। 

3 अगर वर्तमान में यह अंतर मौजूद है तो इसका सबसे बड़ा कारण है सरकार की जनता के प्रति जवाबदेही का अभाव। लोकतंत्र में जनता के प्रति सरकार को जवाबदेह बनाया गया है। लेकिन सरकार इस जिम्मेदारी से बचती रही है। इसके लिए लोगो मे शिक्षा के कम स्तर और लोकतांत्रिक जागरूकता के अभाव को प्राथमिक कारण मान सकते है। इस कारण जनप्रतिनिधियों पर नीचे से कोई दबाव नही पड़ता है।
     सरकार को जवाबदेह तय करवाने वाले खुद जनप्रतिनिधियों की जवाबदेही जब जनता के प्रति नही रहेगी तो वे क्या सरकार की जवाबदेही सुनिश्चित करवाएंगे। चुनाव जीतते ही सांसद/विधायक जनता से दूरिया बना लेते है और फिर उनके दर्शन किसी समारोह में मुख्य अतिथि के तौर पर ही होते है। संसद की कार्यवाहीयो में कम भागीदारी के कारण ही सरकार को मनमर्जी करने का मौका मिला है।
     प्रचंड बहुमत और विपक्ष की खामियों का फायदा उठाकर सरकारे जवाब देने से बच रही है। सदन के सत्रों को तात्कालिक विषयो में उलझाया जा रहा है और सरकार बिना कोई गंभीर जवाब दिए अपने कार्यकाल पूरा कर रही है। इस कारण लोकतांत्रिक सरकार भी निरंकुश होती जा रही है और एक आदमी के सरकार पर हावी होने का प्रचलन बढ़ रहा है। ऐसी सरकारो के लिए जनता की आकांक्षाओ की उपेक्षा करना आसान हुआ है। इस तरह जवाबदेही की कमी के कारण भी यह अन्तराल नजर आता है।

4. सरकार और जनता के बीच अंतराल के कारण को बढ़ावा देने में सिविल सोसाइटी की उदासीनता भी महत्वपूर्ण कारण रही है। जब भी सरकार कोई ज्यादती करती है, निरंकुश होती है या कायदे कानूनों से बाहर जाकर कार्य करती है तो समाज के बुद्दिजीवी लोगों का दायित्व है कि वे उसकी कड़ी निंदा करे, मीडिया के माध्यम से आलोचना करे और ऐसा करके सरकार को अपनी उचित भूमिका निभाने की सलाह दे। लेकिन व्यवहार में इस चीज का अभाव रहा है, अगर किसी ने विरोध किया भी है तो वह जनहित की बजाय राजनीतिक हित से किया है। अधिकांश बार ऐसा हुआ कि विरोध करने वाले अल्प मात्रा में थे इसलिए उन्हें आसानी से नजरअंदाज कर दिया गया।
     विरोध प्रदर्शनों के प्रति सरकार ने नकारात्मक रुख अपनाया है। अनशन और धरना, विरोध प्रदर्शन के तरीके जिनको भारतीयों ने ब्रिटिश के खिलाफ प्रयोग किया था वह अब इन सरकारो के सामने निष्प्रभावी हो गया है। लम्बे दिनों के अनशन के बाद कइयों की मौत हो जाती है लेकिन सरकार का कोई प्रतिनिधि उनसे बात करने नही पहुचता है। कई बार विरोध प्रदर्शनो की अनुमति नही दी जाती और जबरदस्ती धरना स्थलों से खदेड़ दिया जाता है। यहाँ एक बुनियादी सवाल उठता है कि क्या हम जिसके खिलाफ विरोध करना चाह रहे है, हमे इसके लिए उस व्यक्ति/संस्था/सत्ता की अनुमति लेनी चाहिए? नही, फिर क्यों जनता को मनमाने तरीके से प्रश्न पूछने से रोका जा रहा है। यह सब सिविल सोसाइटी की उदासीनता के कारण हो रहा है।

मौजूदा रुझान
पहले के राजा-महाराजा निरकुंश शासन की बदौलत जनता को काबू में करते थे, वे लोगो की अभिव्यक्ति की आज़ादियों को प्रतिबंधित करते रहते थे ताकि कोई विद्रोही विचार नही पनप सके। वर्तमान में सरकार का लोगो पर अविश्वास बढ़ता जा रहा है, उन्हें लग रहा है कि लोग उनके अकुशल शासन को चुनौती देने के लिए बड़े आंदोलन कर सकते है और बुनियादी सेवाओ को ठप करके बड़े बदलावों के लिए मजबूर कर सकते है। जिस कारण सत्ता पर उस तरह की सुविधाएं नही रह पाएगी जो कि सत्ताधारी वर्ग को अभी प्राप्त है। इसलिए सरकार चौकस हो गई है, वह अब लोगो की गतिविधियों पर मोबाइल, बैंक खाते, आधार जैसी चीजो के माध्यम से नजदीक से नजर रख रही है। लोगो की कमाई की कड़ी निगरानी की जा रही है ताकि वे अनावश्यक बगावतों को वित्तपोषित नही कर सके। बाहरी स्त्रोतों से मिलने वाले अनुदानों को प्रतिबंधित कर दिया गया हैं। जनता की छोड़ो, अब तो विपक्षियों को भी CBI, IB, ED जैसी संस्थाओ के माध्यम से परेशान किया जाता है और उन्हें जनता के मुद्दों को उठाने से रोक दिया जाता है। जनलोकपाल आंदोलन के बाद सिविल सोसायटी पर लगाए जा रहे अंकुश को इसी पृष्टभूमि में समझ सकते है।

पंचायती राज व्यवस्था और सूचना प्रौद्योगिकी का आगमन दो ऐसी घटनाएं थी जिनसे लगा कि अब शासन में जनता की भागीदारी बढ़ेगी।लेकिन इन्हें भी सरकार ने अपने फायदे का जरिया बना दिया। पंचायतों के माध्यम से एक तो अपने दायित्व कम कर लिए वही गांवों पर पकड़ मजबूत बना ली। सूचना प्रौद्योगिकी के द्वारा भी जनता के आक्रोश को कम करने की कोशिश की है।

वर्तमान में यह अंतराल की मानसिकता बढ़ती जा रही है। ऐसे कानून बनाये जा रहे है जो भेदभावों को बढ़ावा दे रहे है। अफसरों और नेताओं के लिए विशेष छूट (special treatment) के प्रावधान किए जा रहे है। वही तकनीकी के माध्यम से जनता पर शिकंजा कसा जा रहा है। वर्तमान में तथ्यों के प्रस्तुतिकरण में चालाकी करके भी जवाबदेही से बचा जा रहा है। पोस्ट-ट्रुथ के रंग में रंगी हुई प्रेस रिलीजो के माध्यम से सरकारी लापरवाही और कुशासन को छिपाया जा रहा है।

निष्कर्ष  -
ऐसा शासन जो न तो जनता को जवाब देता है, न ही विरोध करने देता है, न ही जनता से मिलने में रुचि रखता है, क्या ऐसे शासन को जनता का राज कह सकते है?  उत्तर है - नही । अब हम कह सकते है कि भले ही जनता को अवसर मिलता हो लेकिन वह है तो शासन ही। कुल मिलाकर जनता और एक सत्ता कभी एक नही हो सकते। दोनो के बीच मे एक सीमा तक अंतराल तो हमेशा मौजूद रहता है। लेकिन समस्या यह है कि जो अंतराल भारत में अभी देखा जा रहा है वह लोकतंत्र के हिसाब से सही नही है।

Indian Culture Today- The Myth or Reality

वर्तमान में पूरी दुनिया वैश्वीकरण के प्रभावों का सामना कर रही है। वैश्वीकरण की बदौलत हो रहे विचारो और सूचनाओ के आदान-प्रदान का असर सांस्कृतिक क्षेत्र में भी महसूस हो रहा है। वैसे तो बदलावों की शुरुआत आधुनिक शिक्षा और तकनीकी विकास के द्वारा ही मिल गयी थी लेकिन वैश्वीकरण के कारण विचारों और सूचनाओ का आदान-प्रदान भारी मात्रा में हुआ। जिससे सांस्कृतिक क्षेत्र में परिवर्तन इतनी तेजी से हो रहे है कि कुछ लोग तो इन बदलावों की दिशा ही नही पकड़ पा रहे है और कुछ लोगो को लग रहा है कि भारतीय संस्कृति खत्म हो रही है और हम पाश्चात्य संस्कृति को अपनाते जा रहे है। लेकिन भारतीय संस्कृति के स्वरूप को समझा जाये तो हम अलग ही तस्वीर पाते है।

भारत का सम्पर्क जब उपनिवेश काल मे पाश्चात्य विचारो से हुआ तो यहां भी लोगो मे स्वतंत्रता, समानता जैसे तत्वों के प्रति लोगो मे रुचि बढ़ी। वैश्वीकरण के दौर में अधिक भारतीय पश्चिमी विचारो के साथ ज्यादा नजदीकी से सम्पर्क में आये। इस समय भारतीयों की आत्मनिर्भरता बढ़ी तो पश्चिमी भौतिक संस्कृति के प्रति तेजी से आकर्षित हुए। इन लोगो ने खान-पान, वेश-भूषा, रहन-सहन, बोलचाल में पश्चिमी तत्वों की मात्रा बढ़ती चली गईं। विदेशी टीवी चैनल और बहुराष्ट्रीय कम्पनियों ने पश्चिमी चीजो और व्यवहारों को घर-घर में लोकप्रिय बना दिया। दिखावटीपन को बढ़ावा मिला, फैशन और महंगी चीजो को अपनाने लगे, खुलेआम स्नेह दर्शाने लगे, कामुक विचारो पर खुलेआम राय रखने लगे। लोगो के व्यवहारों में औपचारिकता हावी होने लग गयी। रिश्तों का निर्धारण नए तरीके से होने लगा है, शादी-विवाहों में घरवालो की बजाय लड़के-लड़कियों की इच्छा महत्वपूर्ण हो गयी है।

हम देख रहे है कि वैश्वीकरण के कारण हो रहे तीव्र बदलाव परम्परागत संस्कृति को चुनोती देते हुए दिख रहे है। इनमे कुछ बदलाव सकारात्मक है जो कि स्वतंत्रता और समानता जैसी चीजों से जुड़े हुए है। जैसे कि लोग खुलकर अपनी मर्जी को दुसरो से बेपरवाह होकर अभिव्यक्त कर रहे है। परम्परागत नियंत्रण कमजोर पड़ रहा है जिससे महिलाओं, दलित, आदिवासीओ की मुक्ति सुनिश्चित हो रही है। लोग खुलकर अपने को सोशल मीडिया पर व्यक्त कर रहे है। कुल मिलाकर बात यह है कि लोग गरिमामय तरीके से जीवन जीने की ओर प्रयासरत है।

मौजूदा बदलावों के द्वारा ऐसे प्रभाव भी पड़ रहे है जो भारतीय संस्कृति के मूल्यों के विपरीत है जैसे कि लोग दिखावे के चक्कर मे खूब अपव्यव कर रहे है। भौतिक संसाधनों को प्राप्त करने के चक्कर मे लोग अनैतिक तरीके से कमाई करने लगे है, रिश्वत ले रहे है, धोखाधड़ी हो रही है। सम्पन्न जीवनशैली के लिए प्राकृतिक संसाधनों का अनियंत्रित दोहन किया जा रहा है। खुलेपन के नाम पर अश्लीलता को बढ़ावा दिया जा रहा है जिसके परिणामस्वरूप महिलाओ की सुरक्षा का मुद्दा उभरने लगा है। तकनीकियों के प्रयोग ने आदमी की जिंदगी को सुगम बनाया है इसलिए आदमी अकेला रहना पसंद करने लगा है और समाज से दूरी बनाने लगा है। रिश्तों में भी तनाव उभरने लगा है जिससे उनमे भावनात्मक लगाव कम हो गया है। पहले की कई बुराइयों का भी आधुनिकीकरण हो गया है, जैसे कि दहेज, इस कारणे जो प्रयास महिलाओ को शसक्त करने के लिए किए जा रहे है वे प्रभावहीन होते जा रहे है।

कुछ प्रतिक्रियावादी लोगो का मानना है कि मौजूदा बदलाव भारतीय संस्कृति को दूषित कर रहे है। इसे वे पश्चिम के सांस्कृतिक आक्रमण के तौर पर देखते है जिसके कारण भारतीय संस्कृति लगातार अनुपस्थित होती जा रही है। इनका मानना है कि लोग आधुनिक चीजो को ग्रहण करने के चक्कर मे परम्परागत चीजो को पिछड़ी समझ कर भूलते जा रहे है। सम्पन्न लोगों की देखा देखी दूसरे लोग भी उनकी नकल करने में लगे हुए है जिससे एक सांस्कृतिक अराजकता  का माहौल बन गया है। ऐसा माहौल बन गया है जिसमे सांस्कृतिक बदलावों की दिशा  को पहचानना मुश्किल हो गया है। ऐसा लगने लगा है की पश्चिमी संस्कृति का ही एकमात्र विकल्प बचा है, भारतीय संस्कृति अब एक भ्रम मात्र रह गयी है

लेकिन इन आशंकाओ का मूल्यांकन करने पर पाते है कि भारतीय संस्कृति के मूलभूत तत्व तो अभी भी मजबूत स्थिति में है। भारतीय संस्कृति का अभी भी पृथक वजूद है, पहचान है जो विदेशो में भी लोकप्रिय हो रहा है। इसका एक उदाहरण यह है कि योग दिवस घोषित करने के भारत के सयुक्त राष्ट्र महासभा में प्रस्ताव को 177 देशो का समर्थन मिला था। बॉलीवुड भारत का विदेशो में प्रतिनिधित्व कर रहा है। बाहरी दिखाई देने वाली चीजें जरूर पश्चिम के रंग में रंगी है लेकिन आंतरिक चीजे पर तो विदेशो में भी भारत का ही रंग जम रहा है।

ऐसा कोई पहली बार नही हो रहा है जब भारतीय संस्कृति बाहरी चीजो के सम्पर्क में आई हो। इससे पहले इस्लामिक संस्कृति का जब भारत मे आगमन हुआ तो वह भारतीय संस्कृति को पचा नही सकी, जबकि उसने इराक और ईरान की संस्कृतियों को पचा लिया था। भारतीय संस्कृति के साथ मिलकर एक समन्वित संस्कृति विकसित की जो आज भी बहुलता में सामंजस्य का उदाहरण प्रस्तुत करती है। उस समय भी कई लोगो को लगा था कि ये किसी न किसी मे विलय हो जाएगी लेकिन ऐसा नही हुआ। उसी प्रकार पश्चिम के साथ भी भारतीय संस्कृति के सम्पर्क से नई परिष्कृत संस्कृति सामने आएगी । रही बात मौजूदा सांस्कृतिक परिदृश्य की खामियों की , तो उन्हें गम्भीर प्रयास किया जाए तो दूर किया जा सकता है।

निष्कर्ष : 
अतः हम कह सकते है कि भारतीय संस्कृति के मूलभूत तत्व न केवल स्थापित है बल्कि परिष्कृत भी हो रहे है। यह किसी मिथक तक सीमित नही है, इसकी पहचान वास्तविक तौर पर की जा सकती है।

Nothing Good or Bad, Thinking Makes it

mastram meena blog
जब भी अच्छे और बुरे की पहचान की बात होती है तो हमारे जेहन में द्रोणाचार्य की परीक्षा याद आती है। एक बार द्रोणाचार्य, युधिष्ठिर को नगर में सबसे बुरा आदमी तलाशने के लिये भेजते है और दुर्योधन को सज्जन आदमी की तलाश में भेजते है। कुछ समय की तलाश के पश्चात दोनो खाली हाथ लौटते है। युधिष्ठिर बुरे आदमी को इसलिए नही तलाश पाते क्योंकि उन्हें सभी आदमी सज्जन ही नजर आते है। दूसरी ओर दुर्योधन को सभी आदमी बुरे नजर आते है इसलिये वह कोई सज्जन आदमी नही तलाश पाता। अंत मे द्रोणाचार्य कहते है कि हमे दुनिया वैसी ही नजर आती है जैसे कि हमारे विचार होते है। कोई भी चीज सही है या बुरी, यह हमारे विचारों से ही निर्धारित होता है।

अच्छाई या बुराई का निर्धारण किसी मानक के आधार पर होता है। ये मानक अक्सर किसी परिवार, समाज, राज्य या संस्था के हितों से जुड़ी होती है। जो व्यवहार और क्रियाकलाप किसी संस्था के हितों की पूर्ति में सहायक होते है वे उसके अनुसार अच्छे होते है तथा जो व्यवहार और क्रियाकलाप हितों की पूर्ति में बाधक होते है वे बुरे होते है। उदारहण के लिए- ईमानदारी किसी लक्ष्य की प्राप्ति में सहायक होती है तो वह अच्छाई मानी जायेगी लेकिन ईमानदारी की वजह से लक्ष्य प्राप्ति में बाधा पहुचती है तो वह बुराई कही जाएगी। हम यहाँ देख रहे है कि ईमानदारी का मूल्यांकन ही दो आधारों पर किया जा रहा है और उन आधारों पर वह अच्छाई और बुराई कही जा रहीं है। इसके विपरीत बेईमानी भी अच्छी या बुरी हो सकती है, यह निर्धारित होता है कि उसका प्रयोग किस प्रकार के व्यवहार में किया गया है। बेईमानी के प्रयोग से किसी आदमी को राहत पहुचती है तो वह अच्छाई हो जाती है।

अच्छाई और बुराई को निर्धारित करने वाले मानक परिस्थितियों, समय, स्थान और लोगों के अनुसार बदलते रहते है। कुछ व्यवहार ऐसे होते है जिनके प्रति नैतिक विचार भिन्न-भिन्न स्थान और लोगो के भिन्न-भिन्न होते है। उदाहरण के लिए कश्मीर में चरमपंथियों को हम आतंकवादी कहकर बुराई करते है वही उन्हें समर्थन देने वाले मुजाहिदीन कहके उन्हें सही बताते है। यही हाल आज़ादी से पहले क्रांतिकारीयो का था, भारतीय उन्हें स्वतन्त्रता सेनानी मानते थे वही अंग्रेज उन्हें उग्रवादी के तौर पर देखते थे। यहाँ हम स्पष्ट देख सकते है कि अच्छाई और बुराई का निर्धारण सम्बन्धित वर्ग के हितों के आधार पर हो रहा है।

अच्छाई और बुराई का निर्धारण परिस्थितियों के अनुसार भी होता है। हमारा व्यवहार किन परिस्थितियों में किया जा रहा है। जैसे कि कोई आदमी पेट भरने के लिए चोरी करता है तो उसे अच्छाई तो नही कहेंगे लेकिन बुराई भी नही कह सकते। लेकिन अगर कोई आदमी अय्यासी के लिए चोरी या धोखाधड़ी करता है तो उसे क्षमायोग्य नही मान सकते। कहने का तात्पर्य है कि किसी व्यवहार को हम सीधे तौर पर निर्धारित नही कर सकते कि वह सही है या गलत, इसके लिए हमे उनकी परस्थितियों का आंकलन करना होगा।

कोई भी व्यवहार साश्वत रूप से अच्छा या बुरा नही रहता। समय के साथ मानको में बदलाव आता है और पुराने व्यवहारों की नैतिकता फिर से परिभाषित होती है। उदाहरण के लिए सीता की अग्निपरीक्षा को उस काल मे मर्यादा की रक्षा  के लिए उचित माना गया लेकिन आज के नारीवादी इस तरह की मर्यादा को उचित नही ठहराते है।

इस प्रकार अच्छाई और बुराई एक सिक्के के दो पहलू है जो परिस्थितियों, स्थान, समय और लोगो के अनुसार निर्धारित होता है कि कोनसा उनके पक्ष में है। हरेक को अपना व्यवहार अच्छा नजर आता है और दूसरों का बुरा।इसलिए अपने व्यवहार को न्यायोचित ठहराने के लिए हिंसा का सहारा लेने से भी नही कतराते है ।यही कारण था कि महाभारत में दोनों पक्षो को अपना दावा नैतिक नजर आ रहा था। यह सब उनके विचारों से संचालित था। अतः हम कह सकते है कि नैतिकता व्यवहार की बजाय विचारो की परीक्षा अधिक है। अगर अच्छे विचार होंगे तो गलत कार्यो की गुंजाइश कम होगी और होगी तो भी उसके पीछे कोई न कोई प्रयोजन अवश्य होगा।

विचारो का निर्धारण बचपन से ही शुरू हो जाता है जो हम परिवार, समाज, विद्यालय में सीखते है।इसी जगह पर ये संस्थाए अपने हितों के अनुकूल विचार भर देती है जिनमे आगे संसोधन की गुंजाइश बहुत ही कम रह जाती है। उदाहरण के लिए कश्मीर में जिहादी, बच्चों को ही आज़ादी के बारे में गलत शिक्षा देकर उनमे अलगाववाद भर रहे है। अब बच्चों को क्या पता कि इन विचारों का दूसरा पक्ष भी है। इस तरह एकतरफा विचारो का संवर्धन होता रहता है।

निष्कर्ष :
अगर हमे अच्छाई और बुराई का निर्धारण प्रभावी तरीके से करना है तो दोनों तरफा विचारो को अवश्य जानना होगा, तब ही हम सही मायने में उचित निर्णय ले सकेंगे। इसके लिए जरूरी है कि आलोचनात्मक विश्लेषण की गुंजाइश हो और विरोधी विचारो के प्रति सहिष्णुता का भाव हो।

ग्रामीण पहचान से बचती हुई पीढ़ी

ज्यादातर लोगों में अपनी चीजो को लेकर अभिमान होता है और वे बात-बात में अपना संबंध वहाँ से जोड़ने का प्रयास करते है। इसके विपरीत कुछ लोगो मे अपने स्थान को लेकर हीनभावना होती है और वे अपने को उस स्थान से दूर रखने का प्रयास करते है। जैसे कि विदेशों में पाकिस्तानी अपने देश का नाम नही बताते, उन्हें लगता है कि असलियत बताने पर सामने वाला आतंकियों से जोड़कर देखेगा। वहीँ भारतीय विदेशो में गर्व से कहते है और सामने वाला उनसे पूछता है कि क्या आप डॉक्टर या इंजीनियर है।

सकरात्मकता को तो हर कोई भुना लेता है, लेकिन जब नकारात्मक चीजो के साथ पहचान जुड़ी हो तो बताने वाला झिझकता रहता है। उनमे आत्मविश्वास की कमी देखी जाती है। उन्हें एक बारगी तो ऐसा भी लगता है कि हमारी गलती यह है कि हम यहां पैदा हुए है। कुछ लोग उनमे ऐसे भी होते है जो अपनी हैसियत को अपने स्थान और वहाँ के लोगो की हैसियत से बढ़कर मानते है। ये सकारात्मक और नकारात्मक पहचान दोनो जगहों पर प्रेक्षित किये जा सकते है। कहने का आशय है कि कुछ लोगो मे विशिष्टता की भावना इस कद्र भर जाती है कि बाहर चाहे वे कुछ भी हो लेकिन अपने स्थान के लोगो के समक्ष किसी प्रकार का सामान्यकरण बर्दाश्त नही है। अपनी हैसियत को उस स्थान और वहाँ के लोगो से जोड़कर अपनी प्रोफाइल में किसी प्रकार का हल्कापन नही लाना चाहते है।

ऐसे लोगो की संख्या गांवो में काफी देखने को मिलती है। यहां नव उच्च-शिक्षित, नव पेशेवर वर्गो में यह मानसिकता जल्दी घर कर जाती है। ऐसा इसलिए होता है क्योंकि वे नवीन अर्जित प्रतिष्ठा से हासिल विशिष्टता को लेकर सहज नही हो पाते है। इस सिलसिले में वे 'विशिष्टता की महिमा' से प्रेरित व्यवहार को अमल में लाने की कोशिश करते है। वे आभिजात्य संस्कृति से प्रेरित रहन-सहन, बोलचाल, शौक आदि का अनुसरण करने का प्रयास करते है। उनकी गतिविधियों को अगर संसाधनों की उपलब्धता का समर्थन मिल जाता है तो उनका व्यवहार बदल जाता है और जिन्हें संसाधनों का समर्थन नही मिलता, वे सामान्य ही बने रह जाते है।

नवीन प्रतिष्ठा अर्जित करने वाले समूह में नवीन नोकरी लगने वाले, उच्च शिक्षा की विशिष्ट प्रकृति वाले, कौशल या प्रतिभा आधारित उपलब्धियों वाले व्यक्ति हो सकते है। गांवो में ऐसे लोग आने से बचते है, सामुदायिक कार्यक्रमो से दूर रहते है, ग्रामीण संस्कृति और रीति-रिवाजो में खामिया तलाशकर उसे पिछड़ेपन से जोड़ते है, ग्रामीण स्वछंदता की तुलना अनैतिकता से करते है, बोली और पहनावे में क्रत्रिम अंतराल रखने का प्रयास करते है। लेकिन दूसरी तरफ अगर देशी चीजे बाहर प्रसिद्ध हो जाती है तो ये उसे भुनाने से बाज नही आते है।

इस चीज का असर यह हो रहा है कि ग्रामीण संस्कृति की गतिविधियों युवाओं के मध्य अपना दायरा खोती जा रही है। गांवो में भी शहरों के समान सामुदायिक मूल्यों का ह्रास बढ़ता जा रहा है। इसका नकारात्मक असर गांवो की संस्था को ही नही प्रभावित कर रहा बल्कि खुद वे लोग भी अवसाद और असुरक्षा की भावना से ग्रस्त है।
जरूरी है कि शिक्षा के माध्यम से लोगो मे अपनी चीजो के प्रति आत्मविश्वास उत्पन्न किया जाये ताकि वे अपनी वेशभूषा, बोलचाल और खानपान के प्रति शर्म की बजाय गर्व महसूस करे। शिक्षा के माध्यम से ही आयातित रहन-सहन के दिखावटीपन को स्पष्ट किया जाये और युवाओ को परिपक्व व्यवहार के प्रति तैयार किया जाए।

Fulfillment of 'New Woman' in India is a Myth

नए युग की महिला की अवधारणा आत्मनिर्भरता और स्वतंत्रता पर आधारित है। ये परम्परागत रूप से चली आ रही त्याग और बलिदान की भूमिका को स्वीकार नही करती है तथा कानूनी और यौन समानता में विश्वास करती है। इनका मानना है कि विवाह करने के कारण ऐसी समानता नही रह पाती इसलिए एकल रहने में भी यकीन करती है। 'ओल्ड वुमन' की तुलना में ये कामुकता के बारे में अधिक खुले विचार रखती है, अच्छी तरह से शिक्षित है, नॉकरी भी करती है, एथलेटिक्स और अन्य शारीरिक गतिविधियों में भी जोरदार है, परम्परागत वस्त्रो की जगह आरामदायक कपड़ो (कभी-कभी पुरुष पोशाक) पसंद करती है। इस तरह 'न्यू वुमन' एक बैचलर गर्ल से ज्यादा है जो परंपरागत नियंत्रण का प्रतिरोध करती है और दुनिया मे पूर्ण भूमिका निभाना चाहती है।

अगर 'न्यू वुमन' की अवधारणा का भारतीय परिदृश्य में मूल्यांकन करे तो हम पाते है कि भारत मे संविधान में ही उन्हें समानता के अवसर प्रदान कर दिए। आगे समय-समय पर विभिन्न कानूनों के माध्यम से उनके खिलाफ भेदभाव, हिंसा और उत्पीड़न को रोकने के उपाय किये गए। न केवल सार्वजनिक स्थानों को महिलाओं के अनुकूल बनाने के लिए प्रयास किये गए बल्कि घरेलू स्तर पर भी महिलाओ के लिए गरिमामय जीवन जीने को सुनिश्चित किया गया। सामाजिक स्तर पर भी महिलाओं को आगे लाने के लिए प्रेरित किया गया।

सरकारी द्वारा प्रदान किये गए अवसरों से महिलाओं को लाभ मिला और उन्होंने शिक्षा प्राप्त करके विभिन्न कार्यक्षेत्रों में अग्रणी भूमिका प्राप्त की। कई प्रवेश परीक्षाओं और प्रतियोगी परीक्षाओं में लड़कियों ने शीर्ष स्थान ग्रहण करके पुरुषो को पीछे छोड़ दिया है, उन्होंने अपनी काबिलियत से दिखा दिया है कि वे पुरुषों से कम नही है, सेनाओ तक मे भागीदारी इसका सबूत है। सार्वजनिक जीवन मे योगदान करने में महिला आगे आती जा रही है, वही अपनी आत्मनिर्भर प्रकृति के कारण पारिवारिक फैसलो में भी भूमिका निभाने लगी है। महिलाओं का कैरियर शिक्षा आधारित ही नही है, वे खेलो, फिल्मो, राजनीति आदि में भी बेहतर प्रदर्शन कर रही है। नए अवसरों का प्रयोग करके वे आत्मनिर्भर हुई है जिससे अपने पुरूष सम्बन्धियो पर निर्भरता कम हुई है, इस कारण वे हर मामले में उनके प्रति जवाबदेह नही रह गयी है जिनमे सेक्सुअल च्वॉइस भी शामिल है। यही वजह है कि लिव-इन-रिलेशनशिप और देरी से शादियों का प्रचलन बढ़ा है।

लेकिन 'न्यू वुमन' की अवधारणा का भारत मे क्रियान्वयन आसान नही है। जब भारत महिला सशक्तिकरण और लैंगिक न्याय के मामलों में ही संघर्ष कर रहा हो ऐसे में अधिकारों की लड़ाई को एक कदम और आगे बढ़ा देना निश्चित तौर पर अधिक चुनोती धारण करता है। जो कि इस प्रकार है----

1. पहली चुनोती तो यह है कि महिला सशक्तिकरण के फायदे शहरी औरतों को ही मिल रहे है या फिर गांवो में आर्थिक सक्षम घरो की महिलाये ही आगे बढ़ रही है। अन्य महिलाओं को बुनियादी सुविधाएं ही नही मिल पाती है जिनमे शिक्षा और चिकित्सा शामिल है। इस तरह अवसरों के अभाव में गांवो के लिए 'नई महिला' की अवधारणा मिथक भर ही है।

2. भारतीय समाज की पितृसत्तात्मक प्रकृति है जिसमे नारी को बचपन मे पिता के, यौवन में पति के और बुढ़ापे में पुत्रो के आश्रय में देखा गया। इस व्यवस्था को भावनात्मक तौर पर इतना मजबूत बनाया गया कि खुद औरतो ने भी इससे बाहर निकलने की इच्छाशक्ति नही दर्शायी। इससे समानता की जगह अधीनस्थता का तत्व आ जाने से स्वतन्त्रता का हनन हुआ। ऐसे में नारी की भूमिका बच्चे, रसोई, साज-सज्जा और परम्पराओ के पालन तक ही सिमट कर रह गयी। इस तरह औरत की भूमिका को घर तक सीमित कर दिया गया।
वर्तमान में नए अवसरों की पहुच में आने से पितृसत्तात्मकता का शिकंजा कमजोर हुआ तो 'न्यू वुमन' का आधा अधूरा स्वरुप सामने आया। क्योंकि ऐसे परिवारों में कई असुरक्षाये मौजूद थी जैसे कि- लड़की को ज्यादा पढा दिया तो ज्यादा दहेज देना पड़ेगा, लड़की को ज्यादा पढ़ाया तो हाथ से निकल जायेगी, लड़की को पढ़ा भी लिया तो ठीक है लेकिन नॉकरी नही करने देंगे आदि। इस प्रकार पित्रसत्ता के कारण 'न्यू वुमन' के स्वप्न का पूरा होना अधूरा बना हुआ है।

3.  'न्यू वुमन' के किरदार की छवि का समाज मे नकारात्मक होना भी इसके समर्थन में कटौती करता है। ये महिलाएं कमाई से जुडी हुई है जो परिवार की आय में योगदान करती है, एवज में पारिवारिक फैसलो में भागीदारी चाहती है। यह बात पुरुषों की प्रधानता वाले परिवारों को रास नही आती है। वे मानते है कि कमाई करने के बावजूद भी महिला को अपनी परम्परागत भूमिका को नही भूलना चाहिए। इस तरह के रवैये से पति -पत्नी के बीच तनाव बढ़ रहे है जिसका परिणाम हिंसा, तलाक, दहेज उत्पीड़न, परिवारों का टूटना, एकल माता और पिताओ का बढ़ना आदि के रूप में सामने आ रहा है। इस प्रकार 'न्यू वुमन' का यह अवतार नए प्रकार के शोषण और भेदभावो का शिकार हो गया है। मतलब हको की लड़ाई एक कदम आगे बढ़ने के बजाय एक कदम पीछे खिसक गयी है।

4. 'न्यू वुमन' के किरदार द्वारा जिस प्रकार की स्वतंत्रता की बात की जाती है उसे भी समाज मे स्वीकृति नही है। ये महिलाएं कामुकता और देह पर अधिक खुले विचार रखती है, जबकि भारतीय परंपरा तो लाज, कौमार्य औऱ पतिव्रता नारी के आदर्श पर टिकी हुई है। ऐसे मूल्यों के साथ महिलाओं को ज्यादा उन्मुक्त होने की अनुमति कैसे दी जा सकती है, इसी वजह से लिपस्टिक अंडर माई बुर्का जैसी फिल्मों पर आपत्ति की गई। दीपिका पादुकोण की माई च्वाइस और अमिताभ बच्चन अभिनीत पिंक में महिलाओं के खुद के शरीर पर अधिकार का समर्थन किया गया। वे शरीर का कुछ भी दिखाए, किसी के साथ सम्बन्ध बनाये या ना बनाये, यह उनका निजी मामला है। लेकिन माना जाता है कि सामाजिक व्यवस्था में ऐसी गतिविधिया अश्लीलता को जन्म देती है, इसलिए उन पर नैतिकता थोपी जाती है। इस नैतिकता के द्वारा भी न्यू वुमन की फंतासियों की पूर्ण होने से रोका गया है। और जिन महिलाओं ने नैतिकता की परवाह किये बगैर इन स्वतंत्रताओ को पूरा करना चाहा उन्हें समाज मे सम्मान खोना पड़ा।

इस प्रकार हम देखते है कि न्यू वुमन की अवधारणा का कुछ पक्ष तो भारतीय परिद्रश्य में समर्थित है और कुछ पक्षो को अनैतिक तौर पर देखा जाता है, जिनको की पूर्ण करने लक्ष्य नही माना जाता और जो पक्ष स्वीकृत भी है उनको प्राप्त करने के लिए सभी महिलाओं को अवसर प्राप्त नही हो पा रहे है। इन्हें हम उदाहरण से समझ सकते है जैसे कि समानता के तत्व को स्वीकार करते हुए पारंपरिक भूमिकाओं में होने वाले भेदभावों को रोका गया है, हिंसाओं को प्रतिबंधित किया है, आत्मनिर्भर होने के लिए कार्यक्षेत्र को अनुकूल बनाया जा रहा है। दूसरी तरफ स्वतंत्रता के अधिकार को पर्याप्त मात्रा में स्वीकार नही किया गया है, इसके प्रति आशंका है कि इससे पारिवारिक और सामाजिक संस्थाओं की नींव उखड़ जाएगी। इनके अलावा स्वीकृति प्राप्त क्षेत्रो में भी सभी महिलाओं को समान अवसर प्रदान करने की चुनोती है, गांवो में लड़कियों की गुणात्मक शिक्षा और रोजगारो तक पहुँच सुनिश्चित करना जरूरी है।

अतः हम कह सकते है कि भारत मे 'न्यू वुमन' की पूर्णता भले ही कुछ कारणों से मिथक नजर आता हो लेकिन इसके कई आयामो को हम सामाजिक स्वीकृति को भी ध्यान में रखते हुए यकायक की बजाय क्रमिक रूप से प्राप्त कर रहे है। जिससे 'न्यू वुमन' का भारतीय संस्करण विकसित होगा जिसमें पाश्चात्य मॉडल के विपरीत सम्मान का तत्व भी होगा।

Crisis faced in india-moral or economic

21वी सदी की शुरुआत से ही कहा गया कि यह भारत की सदी होगी। भारत जैसे विकासशील देश इस दौरान अपने प्राकृतिक, आर्थिक और मानव संसाधनों की बदौलत वैश्विक मंच पर नेतृत्वकारी भूमिका में पहुचेंगे। यह बात लगभग दो दशकों के बाद अब सच्चाई में प्रतीत होती दिख रही है। वर्तमान में भारतीय अर्थव्यवस्था विश्व मे सर्वाधिक तेजी से वृद्धि कर रही अर्थव्यवस्थाओ में शामिल है। क्रय क्षमता के आधार पर इसका आकार तीसरे नम्बर का हो गया है। न केवल भारतीय अर्थव्यवस्था बल्कि भारतीय नागरिक भी वैश्विक मंचो पर छाए हुए हैं और राजनीतिक, आर्थिक क्षेत्रो में शीर्ष भूमिका अदा कर रहे है। इनके अलावा भारत अपने नैतिक मानको के आधार पर भी विश्व के पथ प्रदर्शक के रूप में उभरा है। जलवायु परिवर्तन जैसे संकटो के प्रति भारत ने संयम आधारित उपाय सुझाकर अपनी नैतिक समृद्धि का परिचय दिया है। वर्तमान में तारीफ बटोरती भारतीय अर्थव्यवस्था और सदियों से प्रशंसित नैतिक मूल्यों की उपस्थिति के बावजूद भारत की राजनीतिक, आर्थिक और सामाजिक व्यवस्था चुनोतियों से मुक्त नही है।

भारत की मौजूदा स्थिति का मूल्यांकन करे तो पाते है कि भारत की आर्थिक प्रगति आलोचनाओ से मुक्त नही है। उसमें कई ऐसी विसंगति है जो गंभीर प्रश्न खड़े करती है, ये खामिया या तो आर्थिक संकट को दर्शा रही है या फिर बड़े संकट की तरफ बढ़ रही है। सबसे पहली बात तो यही है कि क्या तेजी से वृद्धि कर रही भारतीय अर्थव्यवस्था सभी भारतीयों की प्रगति को दर्शा रही है। विभिन्न प्रकार के आकड़ो के आधार पर हम सिद्ध कर सकते है कि भारत की तथाकथित प्रगति कुछ चुनिंदा क्षेत्रों, इकाईयो और लोगों की ही प्रगति है।भारतीय जनसंख्या का एक चौथाई भाग तो सरकारी आकड़ो के अनुसार ही दैनिक तौर पर रोजी रोटी के लिए संघर्ष करता है। लोगो मे आर्थिक विषमता का स्तर काफी उच्च हो गया है।ऑक्सफेम की रिपोर्ट दर्शाती है कि 1% से भी कम लोगों ने देश के 90% से भी संसाधनों पर कब्जा कर रखा है। जनसांख्यकी लाभांश का दावा करने वाला देश रोजगार विहीन संवृद्धि (Growth) का आरोप झेल रहा है, और युवाओ की बड़ी संख्या संसाधन के बजाय बोझ में तब्दील होती जा रही है। एक प्रकार से देश समावेशी विकास का संकट देख रहा है। एक तरफ IMF और विश्व बैंक जैसी संस्थाओ की व्यवसाय के मामले में प्रसंशा बटोर रहा है वही दूसरी तरफ भुखमरी, बेरोजगारी, कुपोषण, सामाजिक कल्याण के मामलों में वैश्विक संस्थाओ की ही फटखार खा रहा है। अर्थव्यवस्था की इस दुविधा को हम नैतिक मानको में आ रही गिरावट के संदर्भ में समझ सकते है।

भारतीय संस्कृति को नैतिक मूल्यों की दृष्टि से काफी समृद्ध माना गया है। यह सर्वे भवन्तु सुखिनः और वसुधैव कुटुम्बकम जैसे समावेशी विचारो में भरोसा करती है। यह सभी को अपने समाज , परिवार और देश के प्रति दायित्व समझाती है। इन नैतिक मानको पर टिके रहने वालों को सम्मान दिया गया और विचलित होने वालों का तिरस्कार किया गया। यही कारण था कि लोगो ने नैतिक मूल्यों से प्रेरित अपने मान सम्मान के लिए बलिदान और त्याग किये। अगर इन नैतिक मूल्यों का वर्तमान में मूल्यांकन करे तो पाते है कि ये कही पीछे छूट गए है, इनको अब पिछड़ी सोच से जोड़कर देखा जाता है। वर्तमान में घोटाले करने वालो को कोई लज्जा महसूस नही होती अपितु उन्हें अपनी चालाकी पर गर्व होता है। समाज भी उन्हें तिरस्कार की दृष्टि से नही देखता है। रिश्वत देकर काम निकलवाने को लोगों ने सुगमता की कीमत से जोड़ दिया है। जनप्रतिनिधियों की जवाबदेही जनता के बजाय वित्त और विजय पोषकों के प्रति हो गयी है। इन उदाहरणो से अंदाज़ा लगाया  जा सकता है कि भारतीय नैतिक मूल्यों से दूर भाग रहे है और एक तरह से नैतिक संकट की स्थिति बन रही हैं।

नैतिक मूल्यों में संकट का प्रभाव राजनीतिक और आर्थिक क्षेत्रो में गंभीर तौर पर देखा जा रहा है। नैतिक मूल्यों का संकट ही कई आर्थिक संकटो को जन्म दे रहा है। पूंजीवाद की तो अवधारणा ही भारतीय नैतिक मानको के पैमाने पर हमेशा से ही संदिग्ध रही है, यह सभी के समान विकास की बजाय कुछ ही लोगो के मुनाफा कमाने को जायज ठहराती है। इस वजह से संसाधनों के वितरण में विषमता उत्पन्न होती है। रिश्वत लेकर सरकारी कर्मचारियों द्वारा संसाधनों का त्रुटिपूर्ण आवंटन किया जा रहा है। अनैतिक मानदंडों के कारण वितरण की वजह से असली लाभार्थी तो वंचित ही बना हुआ है, इसी वजह से सरकार की कल्याणकारी योजनाए अप्रभावी बनी हुई है। हम जानते है कि नैतिकता को कानून और नियमो के आधार पर स्थापित किया जाता है।लेकिन कुछ लोगो के फायदों के लिए कायदे कानूनों को ही तोड़ा मरोड़ा जा रहा है। नव-उदारीकरण के चलते भारतीय नैतिक मानको को कड़ी चुनोती मिल रही हैं। अर्थव्यवस्था की प्रगति के नाम पर किसानों और श्रमिकों के सुरक्षा उपायों को ढीला किया जा रहा है। इस तरह नैतिक मूल्यों में आ रही गिरावट अर्थव्यवस्था को अमानवीय चेहरा प्रदान करके एक गंभीर समस्या उत्पन्न कर रही है।

लेकिन सम्पूर्ण दोष नैतिक मूल्यों में गिरावट पर थोपना भी सही नही है। भारत को गरीबी, अकाल, भुखमरी, बेरोजगारी, ऋणग्रस्तता जैसी समस्या तो आज़ादी के बाद विरासत में प्राप्त हुई है, न कि भारतीयों के नैतिक पतन के कारण उत्पन्न हुई है। उल्टा भारतीयों ने तो लोकतांत्रिक नीति निर्माण के माध्यम से इन समस्याओं की भयानकता को कम किया है। विरासत में मिली आर्थिक परेशानियों को दूर करने में भारतीय संसाधन प्रर्याप्त नही पड़ रहे थे। भारतीय संसाधनों के बल पर विकास करने में समय लग रहा था। इस चीज ने लोगों को भौतिक संसाधन जुटाने हेतु शॉर्टकट रास्ते अपनाने को प्रेरित किया और परिणामस्वरूप नैतिक मूल्यों का ह्रास हुआ।

इस प्रकार हम देख चुके है कि नैतिक संकट के कारण आर्थिक संकट को बल मिलता है वही आर्थिक संकट के कारण नैतिक संकट को बल मिलता है। इस प्रकार दोनो समस्याओ को पृथक -पृथक करके नही देख सकते, इनकी उपस्थिति को एक साथ ही देखा जाना चाहिए।

अगर भारत के संदर्भ में मौजूदा स्थिति पर गौर करे तो हम देखते है कि भारत में अर्थव्यवस्था को मानवीय चेहरा देने पर हमेशा जोर दिए जाने के कारण संकट जैसी स्थिति को हम टालते रहे है। उसी प्रकार नैतिक मूल्यों से अभी भी अधिकांश लोग जुड़े हुए है, इस कारण नैतिक संकट जैसी स्थिति कहना भी सही नही है।अगर भारत मे कुछ गड़बड़ है तो उसे संकट की बजाय समस्या ही कहना चाहिये। भारतीयों ने इन समस्याओं के आगे आत्मसमर्पण नही किया, इसलिए भी समस्याओ को संकट कहना सही नही है। भारतीय निरंतर प्रयासों से इन समस्याओं को दूर करने में लगे हुए है।

सीमांत किसानों का दर्द

सीमांत किसानों की संख्या भारत मे सर्वाधिक हो गयी है, जैसे जैसे जनसंख्या बढ़ती गयी तो जमीने भी बढ़ती चली गयी। जोतो की संख्या इतनी बढ़ गयी कि उनका आकार आजीविका के स्तर तक सिमट कर रह गया। लोगो की परेशानी तब और बढ़ गयी जब ये जोते बिखरी हुई है। ऐसे में इनके लिए न तो मशीनरी की व्यवस्था कर सकते और न ही सिंचाई हेतु कोई बड़ा निवेश कर सकते हैं। इससे उत्पादन में वृद्धि के अवसर भी चले जाते है। इन किसानों को उत्पादन के तौर पर निवेश और लागत को हटाने के बाद केवल खाने के लिए अनाज ही शेष बचता है। अतिरिक्त उपज होने की सम्भावना नगण्य होती है। ऐसे में कृषि से इतर गतिविधियों के संचालन के लिए ऋण की आवश्यकता अनिवार्य हो जाती है।

वर्तमान में कृषि की लागत बढ़ती जा रही है। अब खेती में प्रयुक्त होने वाले खाद बीजो का भाव काफी बढ़ गया है, ट्रैक्टरों से जुताई महंगी हो गयी है, बैल आधारित जुताई को कब का छोड़ा जा चुका है, सिंचाई के लिए भी पानी की उपलब्धता काफी महंगी है, इसके अतिरिक्त अन्य कार्यो में भी काफी महंगा निवेश होता है। इन सबके लिए किसानों को ऋण-फसल चक्र से जुड़ना पड़ता है। वर्तमान में महँगाई, सामाजिक और पारिवारिक खर्चो के बोझ तथा मानसून ने ऋण-फसल चक्र को चुनोती देकर सीमांत किसानों को और अधिक परेशानी में डाल दिया है।

सीमांत किसानों की पहचान वैसे तो किसानों के रूप में है लेकिन इन्हें भूमि युक्त मजदूरों के समान माना जा सकता है। क्योंकि इनके जीवन मे आजीविका को लेकर असुरक्षा काफी ज्यादा होती है। ये अपनी छोटी से भूमि में कामकाजों को जल्दी से निपटा लेते है उसके बाद तो बड़े किसानों के यहाँ मजदूरी करने को लेकर तैयार रहते है। अपनी भूमि से खाद्यान्न प्राप्ति के अलावा आय न हो तो यह एक विकट संकट की स्थिति बन जाती है।

सीमांतपने के दर्द से मुक्त होने के लिए अलग रोजगार अपनाने की आवश्यकता है, इसके अलावा अपने बच्चों के कॅरिअर पर भी ध्यान देने की जरूरत हैं। लेकिन यह भी कटु सत्य है कि सीमांत किसानों के लिए वैकल्पिक साधन भी बड़े निवेश की आवश्यकता रखते है और अंततः कठिन विकल्प प्रतीत होते है। ऐसे किसानों को ये आकर्षित नही कर पाते है।
इनकी बेहतरी के लिए आवश्यक है कि इनको मिलने वाले सरकारी फायदों को लक्षित किया जाए, कर्जो को असंस्थागत स्त्रोतों से हटाया जाए, सामाजिक आयोजनों के खर्चो को हतोत्साहित किया जाए।ऐसा करके ही ग्रामीण समाज को अधिक समावेशी स्वरूप दिया जा सकता है।

नव उदारवाद काल में गाँव

नव-उदारवाद के दौर में गाँवो ने सरकार को एक प्रकार की उलझन में शुरू से ही डाले रखा, एक तरफ तो सरकार तेजी से विकास के सपने संजोये मार्केट के साथ चलना चाहती थी वही दूसरी तरफ कल्याकारी राज्य के टैग को बचाना चाहती हैं। जहां मार्केट के साथ आगे बढ़ने से कई समस्याओ के समाधान की संभावना थी, वही गाँवो को इसके  तैयार करने की भी जरुरत थी। गाँवो को नव-उदारवादी मैराथन में दौड़ाने के लिए विशेष सुविधा दिए जाने की जरुरत भी थी। भारत में स्वतंत्रता के बाद इस चीज को समझते हुए बाजार को नियंत्रित कार्यक्षेत्र ही प्रदान किया गया था।

1991 के बाद भारत में आर्थिक सुधारो के साथ बाजार को आज़ादी देने के वो प्रयास होने लगे जिनकी विश्व जनमत की तरफ से भी मांग हो रही थी। इस पहल  को अंतरराष्ट्रीय वित्तीय संस्थानों द्वारा आगे बढ़ाया जा रहा था जिनमे आईएमएफ, विश्व बैंक, विश्व व्यापार संगठन और कई अन्य मंचो के द्वारा आगे बढ़ाया जा रहा था। ये संस्थान वित्तीय और तकनिकी सहायताओ के बदले देशो की संप्रभुता से आगे बढ़कर कानूनी और संरचनात्मक सुधारो के लिए मजबूर कर रहे हैं। ऐसे सरकारी विनियमो को तोडा और मरोड़ा जा रहा हैं जो मुनाफे को नुकसान पहुंचाए। सार्वजनिक संसाधनों की अवधारणा अब ख़त्म हो चुकी हैं और सरकार उन पर से अपना नियंत्रण हटाकर उन्हें निजी क्षेत्रो में भेज रही हैं। सामाजिक सेवाओ में  भी अब मुनाफा नजर आने लगा हैं और सरकार वहां से अपनी भूमिका को सीमित करके उनमे निजी क्षेत्रो को प्रवेश दे रही हैं। ये सब चल रहा हैं व्यापार करने में सुविधा के लिए अपनी स्थिति सुधारने के नाम पर।


सामाजिक सेवाओ में सरकार जो सुविधा उपलब्ध करा रही थी वे अपनी अकुशलता के कारण तो पहले ही कारगर नहीं थी। अब सरकार उनसे पलायनवादी रुख अपना कर लोगो को मुनाफा आधारित निकायों के भरोसे छोड़ने की नीति अपना रही हैं। जहां पहले शिक्षा और स्वास्थय जैसी चीजे पहले सरकार उपलब्ध करा देती थी अब ये ही सुविधा निजी क्षेत्र के अधीन मिल रही हैं। यह बात सही भी बैठती हैं की इस से  सेवा प्रदायगी में गुणवत्ता और दक्षता आयी है। लेकिन इस तथ्य को भी नजरअंदाज नहीं किया जाना चाहिए कि इन सुविधाओ तक पहुँच क्या सभी लोगो की हैं। खासकर यह समस्या ग्रामीणों को ज्यादा उठानी पड़ रही हैं क्योंकि उनमे से ही अधिकांश निम्न आय के कारण इन तक पहुँच नहीं रखते हैं। जब ये  सुविधा सरकार उपलब्ध  कराती हैं तो उन से  गरीब और वंचित लोगो  के लाभान्वित होने की उम्मीद ज्यादा रहती हैं। अब नव-उदारवादी नीति का अनुसरण   करके सरकार इन क्षेत्रो से वापस होती हैं तो शोषण करने वाली शक्तिया ही विकल्प के रूप में रह जायेगी।


सार्वजनिक संसाधनों की अवधारणा से जो नाता तोडा जा रहा हैं उसका सर्वाधिक असर गाँवो को ही उठाना पड़  रहा हैं क्योंकि वे अभी भी उन से लाभान्वित हो रहे हैं या फिर उनसे जुड़े हुए हैं। जो प्राकृतिक संसाधन पहले समुदाय के नियंत्रण में थे वे अब या तो निजी कंपनियों के लिए अधिग्रहित किये जा चुके हैं या  फिर उनसे लोगो को वंचित किया जा चूका हैं।

नव उदारवाद से गाँवो के मुलभुत हितो पर चोट पहुंची हैं इसके साथ ही गाँवो में रहने वालो के हित भी बुरी तरीके से प्रभावित हो रहे हैं। समावेशी विकास की मुहीम भी इससे  बुरी तरीके से प्रभावित हो रही हैं इसी चीज ने पापुलिज्म जैसी चीजो को जन्म दिया।