किसानों से ऋण बोझ को कम करना

कर्ज और किसानी के बीच नजदीकी सम्बन्ध होता है। शुरू में किसान फसल और अन्य जरूरी कार्यो के लिए कर्ज लेता है और जब फसल तैयार होती है तो उसे चुका देता है। लेकिन वर्तमान में मानसून की विफलता, महंगाई, सामाजिक आयोजनों के खर्चों, शिक्षा और चिकित्सा सम्बंधित वित्तीय जरूरतों, भौतिक सुविधाओं को जुटाने की मंशा आदि कारणों की वजह से कर्ज का बोझ बढ़ गया है और उसे समय पर चुकाना भारी हो गया है। बढ़ते हुए कर्ज और उन्हें चुकाने में असमर्थता ने किसानों के भविष्य को अंधकारमय बना दिया है।

इससे भयभीत होकर किसानों के आत्महत्या तक की घटनाएं हुई है। जिनके कारण किसानों की दरिद्रता को सरकार ने भी जेहन में लिया है और समस्या समाधान में रूचि ली है।

किसानों के ऊपर से कर्ज के बोझ को कम करने के लिए निम्न आयामो पर विचार किया जा सकता है---

  1. सबसे पहले तो किसानों को असंस्थागत ऋण के स्त्रोतों से हटाकर संस्थागत स्त्रोतों (बैंको) से जोड़ने की जरूरत है। अब तक किसान सर्वाधिक शोषित असंस्थागत साहूकारों के द्वारा हुए है, जिनकी किसानों के संसाधनों पर पकड़ होती है जिसे वे स्वपरिभाषित चूक (defaultry) के माध्यम से हड़प लेते है और फिर किसान भूमिरहित हो जाते है। साहूकारी का यह स्वरूप 80 व 90 के दशक की बॉलीवुड फिल्मों में भली भांति दिखाया जाता है।
  2. दूसरी बात यह है कि कर्ज को लक्षित करके उसके अपव्यव रूपी रिसाव को खत्म किया जाए। उदारहण के लिए कई बार ऐसा होता है कि लोग भैस खरीदने या मशीनरी लाने के लिए कर्ज उठाते है और उसे दावतों में खर्च कर देते है। अब यहां यह सुनिश्चित करना आवश्यक है कि  कर्ज के धन का लक्षित प्रयोग हो, भले ही सभी प्रकार के खर्चो को भी यथोचित कर्ज श्रेणी में तब्दील करना पड़े। इसका फायदा यह होगा कि उत्पादक और अनुत्पादक दोनो श्रेणियों में पृथक रूप से कर्ज का उद्देश्य भुनाया जा सकेगा। कर्ज का उद्देश्य पूरा होने पर ही उसकी वापसी सुनिश्चित होगी।
  3. कर्ज के बोझ को रोकने के लिए किसानों को अपव्यव पर भी लगाम लगानी होगी। इसके लिए सामाजिक स्तर पर पहल करनी होगी। अपनी क्षमता से परे जाकर खर्च करने पर बहिस्कार जैसे मापदंड काम में लिए जाए, दहेज, दावते, महंगी शादियों जैसे प्रतिष्ठात्मक व्यव आदि पर रोक लगे।
  4. कर्ज के बोझ से बाहर आने के लिए सबसे महत्वपूर्ण पहलू है- किसानों की क्षमता का निर्माण ताकि उन्हें कर्ज की जरूरत न्यूनतम पड़े। इसके लिए किसानों को अतिरिक्त आय से जोड़ने की जरूरत है जिनमे पशुपालन, बागवानी, प्रसंस्करण आदि शामिल है।
  5.  इसके अलावा गांवो या गांवो के समूह पर उद्योग या सेवा क्षेत्रों को स्थापित करने के लिए नीतिगत समर्थन की आवश्यकता है, जैसे कि -पर्यटन, होटल, विनिर्माण आदि। इनसे रोजगार का सृजन होगा और लोग कृषि से इतर अतिरिक्त आय प्राप्त कर सकेंगे। जब आय में इजाफा होगा तो कर्ज लेने और चुकाने की क्षमता भी बढ़ जाएगी।

किये गए प्रयास
इस दिशा में सरकार ने कई प्रयास किए है। सरकार ने किसान क्रेडिट कार्ड के माध्यम से फसल-ऋण चक्र में ब्याज के बोझ को न्यूनतम करने का प्रयास किया है। किसानों की क्षमता को विकसित करने के लिए कई योजनाएं शुरू की है।
लेकिन मुख्य मुद्दा यह है की इन योजनाओं की प्रभावशीलता उचित प्रकार की नही रही है। बैंको से मिलने वाला कर्ज थोड़ा होता है और उसे प्राप्त करने की प्रक्रिया कम शिक्षित किसानों के लिए कष्टसाध्य होती है। उसी प्रकार किसानों की विभिन्न जरूरतों को भी ऋण श्रेणियां कवर नही करती है। सामाजिक कार्यो में भी दिखावे के बढ़ते प्रचलन के कारण धन का अविवेकपूर्ण अपव्यव जारी है। इन सबके चलते किसानों को ऋण के बोझ से बचाना मुश्किल होगा।

निष्कर्ष
अगर हमे किसानी को फायदेमंद निर्वाह का माध्यम बनाये रखना है तो हमे किसानों की जरूरतों को लक्षित करना होगा। धन के दक्ष प्रयोग को बढ़ावा देने के लिए वित्तीय साक्षरता को बढ़ावा देना होगा।

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