Nothing Good or Bad, Thinking Makes it

mastram meena blog
जब भी अच्छे और बुरे की पहचान की बात होती है तो हमारे जेहन में द्रोणाचार्य की परीक्षा याद आती है। एक बार द्रोणाचार्य, युधिष्ठिर को नगर में सबसे बुरा आदमी तलाशने के लिये भेजते है और दुर्योधन को सज्जन आदमी की तलाश में भेजते है। कुछ समय की तलाश के पश्चात दोनो खाली हाथ लौटते है। युधिष्ठिर बुरे आदमी को इसलिए नही तलाश पाते क्योंकि उन्हें सभी आदमी सज्जन ही नजर आते है। दूसरी ओर दुर्योधन को सभी आदमी बुरे नजर आते है इसलिये वह कोई सज्जन आदमी नही तलाश पाता। अंत मे द्रोणाचार्य कहते है कि हमे दुनिया वैसी ही नजर आती है जैसे कि हमारे विचार होते है। कोई भी चीज सही है या बुरी, यह हमारे विचारों से ही निर्धारित होता है।

अच्छाई या बुराई का निर्धारण किसी मानक के आधार पर होता है। ये मानक अक्सर किसी परिवार, समाज, राज्य या संस्था के हितों से जुड़ी होती है। जो व्यवहार और क्रियाकलाप किसी संस्था के हितों की पूर्ति में सहायक होते है वे उसके अनुसार अच्छे होते है तथा जो व्यवहार और क्रियाकलाप हितों की पूर्ति में बाधक होते है वे बुरे होते है। उदारहण के लिए- ईमानदारी किसी लक्ष्य की प्राप्ति में सहायक होती है तो वह अच्छाई मानी जायेगी लेकिन ईमानदारी की वजह से लक्ष्य प्राप्ति में बाधा पहुचती है तो वह बुराई कही जाएगी। हम यहाँ देख रहे है कि ईमानदारी का मूल्यांकन ही दो आधारों पर किया जा रहा है और उन आधारों पर वह अच्छाई और बुराई कही जा रहीं है। इसके विपरीत बेईमानी भी अच्छी या बुरी हो सकती है, यह निर्धारित होता है कि उसका प्रयोग किस प्रकार के व्यवहार में किया गया है। बेईमानी के प्रयोग से किसी आदमी को राहत पहुचती है तो वह अच्छाई हो जाती है।

अच्छाई और बुराई को निर्धारित करने वाले मानक परिस्थितियों, समय, स्थान और लोगों के अनुसार बदलते रहते है। कुछ व्यवहार ऐसे होते है जिनके प्रति नैतिक विचार भिन्न-भिन्न स्थान और लोगो के भिन्न-भिन्न होते है। उदाहरण के लिए कश्मीर में चरमपंथियों को हम आतंकवादी कहकर बुराई करते है वही उन्हें समर्थन देने वाले मुजाहिदीन कहके उन्हें सही बताते है। यही हाल आज़ादी से पहले क्रांतिकारीयो का था, भारतीय उन्हें स्वतन्त्रता सेनानी मानते थे वही अंग्रेज उन्हें उग्रवादी के तौर पर देखते थे। यहाँ हम स्पष्ट देख सकते है कि अच्छाई और बुराई का निर्धारण सम्बन्धित वर्ग के हितों के आधार पर हो रहा है।

अच्छाई और बुराई का निर्धारण परिस्थितियों के अनुसार भी होता है। हमारा व्यवहार किन परिस्थितियों में किया जा रहा है। जैसे कि कोई आदमी पेट भरने के लिए चोरी करता है तो उसे अच्छाई तो नही कहेंगे लेकिन बुराई भी नही कह सकते। लेकिन अगर कोई आदमी अय्यासी के लिए चोरी या धोखाधड़ी करता है तो उसे क्षमायोग्य नही मान सकते। कहने का तात्पर्य है कि किसी व्यवहार को हम सीधे तौर पर निर्धारित नही कर सकते कि वह सही है या गलत, इसके लिए हमे उनकी परस्थितियों का आंकलन करना होगा।

कोई भी व्यवहार साश्वत रूप से अच्छा या बुरा नही रहता। समय के साथ मानको में बदलाव आता है और पुराने व्यवहारों की नैतिकता फिर से परिभाषित होती है। उदाहरण के लिए सीता की अग्निपरीक्षा को उस काल मे मर्यादा की रक्षा  के लिए उचित माना गया लेकिन आज के नारीवादी इस तरह की मर्यादा को उचित नही ठहराते है।

इस प्रकार अच्छाई और बुराई एक सिक्के के दो पहलू है जो परिस्थितियों, स्थान, समय और लोगो के अनुसार निर्धारित होता है कि कोनसा उनके पक्ष में है। हरेक को अपना व्यवहार अच्छा नजर आता है और दूसरों का बुरा।इसलिए अपने व्यवहार को न्यायोचित ठहराने के लिए हिंसा का सहारा लेने से भी नही कतराते है ।यही कारण था कि महाभारत में दोनों पक्षो को अपना दावा नैतिक नजर आ रहा था। यह सब उनके विचारों से संचालित था। अतः हम कह सकते है कि नैतिकता व्यवहार की बजाय विचारो की परीक्षा अधिक है। अगर अच्छे विचार होंगे तो गलत कार्यो की गुंजाइश कम होगी और होगी तो भी उसके पीछे कोई न कोई प्रयोजन अवश्य होगा।

विचारो का निर्धारण बचपन से ही शुरू हो जाता है जो हम परिवार, समाज, विद्यालय में सीखते है।इसी जगह पर ये संस्थाए अपने हितों के अनुकूल विचार भर देती है जिनमे आगे संसोधन की गुंजाइश बहुत ही कम रह जाती है। उदाहरण के लिए कश्मीर में जिहादी, बच्चों को ही आज़ादी के बारे में गलत शिक्षा देकर उनमे अलगाववाद भर रहे है। अब बच्चों को क्या पता कि इन विचारों का दूसरा पक्ष भी है। इस तरह एकतरफा विचारो का संवर्धन होता रहता है।

निष्कर्ष :
अगर हमे अच्छाई और बुराई का निर्धारण प्रभावी तरीके से करना है तो दोनों तरफा विचारो को अवश्य जानना होगा, तब ही हम सही मायने में उचित निर्णय ले सकेंगे। इसके लिए जरूरी है कि आलोचनात्मक विश्लेषण की गुंजाइश हो और विरोधी विचारो के प्रति सहिष्णुता का भाव हो।

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