How far Democracy is The Rule of People

लोकतंत्र को जनता द्वारा, जनता के लिए, जनता का शासन माना जाता है। जनता के शासन का तात्पर्य है कि जनता ही सरकार को चुनती है इसलिए जनता और सरकार के बीच मे कोई अंतराल(Gap) नही है। भारतीय परिपेक्ष्य में लोकतंत्र की स्थापना के लगभग 65 साल बाद क्या यह बात पूरी तरह से सही ठहरती है ? चलिए हम इसका मूल्यांकन करते है।

दरअसल सरकार और लोगो के बीच सम्बन्धो का जो निर्धारण लोकतंत्र ने किया है। एक तरफ तो सरकार को अभी भी भरोसा नही हो पा रहा है कि हमे सत्ता जनता के behalf पर प्राप्त हुई है इसलिए हमारा दायित्व जनता की भलाई के लिए कार्य करना है। सरकार तो अभी भी परम्परागत सोच का अनुसरण कर रही है कि सत्ता को अपनी मर्जी से लोगो को शासित करने का अधिकार है, जिस पर जनता को प्रश्न नही करना चाहिए और जो मिल रहा है उससे खुश रहना चाहिए।

दूसरी तरफ जनता भी यह यकीन नही कर पा रही है कि लोकतंत्र में सत्ता के असली सम्प्रभु वे है, लोग अभी भी सरकार को सेवक के बजाय स्वामी ही मानते है। लोगो के जेहन में सरकार की छवि अभी भी माय-बाप की ही है। सरकारी दफ्तरों में गुहार लेकर आने वाले जरूरतमंद और पीड़ित लोग अपराधियों की भांति डरे रहते है। लोग सीधे संपर्क करने में संकोच करते है और वे दलालो के माध्यम से अपने काम करवाते है। अपनी चीजो से भला कौन डरता है इतना, लेकिन यह साफ है कि लोग सरकार से डरते है क्योंकि उसे समाधान की बजाय समस्या के तौर पर ही देखते है।

जिस प्रकार की सेवा सरकार दे रही है जनता उसे निर्विरोध रूप से स्वीकार कर रही है। जनता न तो उनकी खामिया गिना रही है और न ही उनमे सुधार हेतु कुछ सुझाव दे रही है। जनता और सरकार के बीच इस प्रकार की खाई के लिए हम निम्न कारणों को देख सकते है--

1. भारतीयों का ऐतिहासिक रूप से ही सरकार के साथ अनुभव ठीक नही रहा है और भारतीयों की मानसिकता 'शासको' की बजाय 'शासितों' की ही रही है। यहां सत्ता परिवर्तन, आक्रमणों और बाहरी लोगों के द्वारा शासकीय भूमिका निभाने से राजनीतिक अस्थिरता बनी रही जिससे कोई ऐसी राजनीतिक उपलब्धि प्राप्त नही हुई जो लोगो को स्वतंत्रता का अहसास करा सके, उन्हें भरोसा दिला सके कि सत्ता जनता के हितों के लिए ही कार्य करती है। यहां तो राजाओ और नवाबो ने केवल अपने हित के लिए जैसा चाहा वैसा शासन किया। लोग भुखमरी, अकाल, ऋणों से ग्रस्त थे, बेगारी कर रहे थे, बीमार पड़ रहे थे, लेकिन ऐसी चिंताओं से शासको को कोई मतलब नही था। उनका मतलब तो समय पर लगान और करो की प्राप्ति था चाहे दुखो से ही ग्रस्त हो। ब्रिटिश काल मे स्थिति और दयनीय हो गई जब लोगो ने किसी मांग को उठाया तो उनका बुरी तरह दमन कर दिया गया, लाठीचार्ज किया गया और जेलों में बंद कर दिया गया। अतः हम देख सकते है कि सत्ता और लोगो के बीच दूरी का लंबा इतिहास रहा है। इसे कम करने में, जनता व सरकार को नई भूमिका अहसास कराने में अभी समय लगेगा।

2. ब्रिटिश काल के प्रशासनिक ढांचे को ही आज़ादी के बाद अपना लेने से भी जनता और सरकार के बीच की दूरी कम नही हुई । ब्रिटिश अफसरों ने लोगो मे भय कायम करके राज करने पर जोर दिया। लोगो से सम्पर्क न रखकर नस्लीय भेदभाव को बढ़ावा दिया ताकि लोगो को अहसास हो जाये कि वे उन जैसे श्रेष्ठ नही है। ये चीजें वीआईपी कल्चर के तौर पर आज भी प्रचलित है। सरकारी अफसरों  और मंत्रियों के दौरों तथा निरीक्षण के समय जनता और सरकार के बीच की दूरी को प्रत्यक्ष महसूस किया जा सकता है, जनता को बेरिकेड्स लगाकर दूर कर दिया जाता है। यह एक तरह का वर्गीय विभाजन है जो शासकीय मानसिकता  से जुड़ा हुआ है। इस Ruling Class Mentality के कारण ही जनता के प्रति संवेदनाओ का खात्मा हो जाता है जिस कारण से लोगो की जरूरत से परिचित होने की सरकार कोई आवश्यकता ही नही समझती है। इस वर्ग को यह बात नही पच सकती कि जनता और सरकार के बीच कोई अंतराल नही है, इन्हें तो लगता है कि कल के दबे-कुचले लोग आज सत्ता को प्रश्न करने लग गए। इस तरह जनता को सरकार एक समस्या के तौर पर देखती है जिसके समाधान के लिए वह अपनी कल्याणकारी छवि का प्रयोग करती है। 

3 अगर वर्तमान में यह अंतर मौजूद है तो इसका सबसे बड़ा कारण है सरकार की जनता के प्रति जवाबदेही का अभाव। लोकतंत्र में जनता के प्रति सरकार को जवाबदेह बनाया गया है। लेकिन सरकार इस जिम्मेदारी से बचती रही है। इसके लिए लोगो मे शिक्षा के कम स्तर और लोकतांत्रिक जागरूकता के अभाव को प्राथमिक कारण मान सकते है। इस कारण जनप्रतिनिधियों पर नीचे से कोई दबाव नही पड़ता है।
     सरकार को जवाबदेह तय करवाने वाले खुद जनप्रतिनिधियों की जवाबदेही जब जनता के प्रति नही रहेगी तो वे क्या सरकार की जवाबदेही सुनिश्चित करवाएंगे। चुनाव जीतते ही सांसद/विधायक जनता से दूरिया बना लेते है और फिर उनके दर्शन किसी समारोह में मुख्य अतिथि के तौर पर ही होते है। संसद की कार्यवाहीयो में कम भागीदारी के कारण ही सरकार को मनमर्जी करने का मौका मिला है।
     प्रचंड बहुमत और विपक्ष की खामियों का फायदा उठाकर सरकारे जवाब देने से बच रही है। सदन के सत्रों को तात्कालिक विषयो में उलझाया जा रहा है और सरकार बिना कोई गंभीर जवाब दिए अपने कार्यकाल पूरा कर रही है। इस कारण लोकतांत्रिक सरकार भी निरंकुश होती जा रही है और एक आदमी के सरकार पर हावी होने का प्रचलन बढ़ रहा है। ऐसी सरकारो के लिए जनता की आकांक्षाओ की उपेक्षा करना आसान हुआ है। इस तरह जवाबदेही की कमी के कारण भी यह अन्तराल नजर आता है।

4. सरकार और जनता के बीच अंतराल के कारण को बढ़ावा देने में सिविल सोसाइटी की उदासीनता भी महत्वपूर्ण कारण रही है। जब भी सरकार कोई ज्यादती करती है, निरंकुश होती है या कायदे कानूनों से बाहर जाकर कार्य करती है तो समाज के बुद्दिजीवी लोगों का दायित्व है कि वे उसकी कड़ी निंदा करे, मीडिया के माध्यम से आलोचना करे और ऐसा करके सरकार को अपनी उचित भूमिका निभाने की सलाह दे। लेकिन व्यवहार में इस चीज का अभाव रहा है, अगर किसी ने विरोध किया भी है तो वह जनहित की बजाय राजनीतिक हित से किया है। अधिकांश बार ऐसा हुआ कि विरोध करने वाले अल्प मात्रा में थे इसलिए उन्हें आसानी से नजरअंदाज कर दिया गया।
     विरोध प्रदर्शनों के प्रति सरकार ने नकारात्मक रुख अपनाया है। अनशन और धरना, विरोध प्रदर्शन के तरीके जिनको भारतीयों ने ब्रिटिश के खिलाफ प्रयोग किया था वह अब इन सरकारो के सामने निष्प्रभावी हो गया है। लम्बे दिनों के अनशन के बाद कइयों की मौत हो जाती है लेकिन सरकार का कोई प्रतिनिधि उनसे बात करने नही पहुचता है। कई बार विरोध प्रदर्शनो की अनुमति नही दी जाती और जबरदस्ती धरना स्थलों से खदेड़ दिया जाता है। यहाँ एक बुनियादी सवाल उठता है कि क्या हम जिसके खिलाफ विरोध करना चाह रहे है, हमे इसके लिए उस व्यक्ति/संस्था/सत्ता की अनुमति लेनी चाहिए? नही, फिर क्यों जनता को मनमाने तरीके से प्रश्न पूछने से रोका जा रहा है। यह सब सिविल सोसाइटी की उदासीनता के कारण हो रहा है।

मौजूदा रुझान
पहले के राजा-महाराजा निरकुंश शासन की बदौलत जनता को काबू में करते थे, वे लोगो की अभिव्यक्ति की आज़ादियों को प्रतिबंधित करते रहते थे ताकि कोई विद्रोही विचार नही पनप सके। वर्तमान में सरकार का लोगो पर अविश्वास बढ़ता जा रहा है, उन्हें लग रहा है कि लोग उनके अकुशल शासन को चुनौती देने के लिए बड़े आंदोलन कर सकते है और बुनियादी सेवाओ को ठप करके बड़े बदलावों के लिए मजबूर कर सकते है। जिस कारण सत्ता पर उस तरह की सुविधाएं नही रह पाएगी जो कि सत्ताधारी वर्ग को अभी प्राप्त है। इसलिए सरकार चौकस हो गई है, वह अब लोगो की गतिविधियों पर मोबाइल, बैंक खाते, आधार जैसी चीजो के माध्यम से नजदीक से नजर रख रही है। लोगो की कमाई की कड़ी निगरानी की जा रही है ताकि वे अनावश्यक बगावतों को वित्तपोषित नही कर सके। बाहरी स्त्रोतों से मिलने वाले अनुदानों को प्रतिबंधित कर दिया गया हैं। जनता की छोड़ो, अब तो विपक्षियों को भी CBI, IB, ED जैसी संस्थाओ के माध्यम से परेशान किया जाता है और उन्हें जनता के मुद्दों को उठाने से रोक दिया जाता है। जनलोकपाल आंदोलन के बाद सिविल सोसायटी पर लगाए जा रहे अंकुश को इसी पृष्टभूमि में समझ सकते है।

पंचायती राज व्यवस्था और सूचना प्रौद्योगिकी का आगमन दो ऐसी घटनाएं थी जिनसे लगा कि अब शासन में जनता की भागीदारी बढ़ेगी।लेकिन इन्हें भी सरकार ने अपने फायदे का जरिया बना दिया। पंचायतों के माध्यम से एक तो अपने दायित्व कम कर लिए वही गांवों पर पकड़ मजबूत बना ली। सूचना प्रौद्योगिकी के द्वारा भी जनता के आक्रोश को कम करने की कोशिश की है।

वर्तमान में यह अंतराल की मानसिकता बढ़ती जा रही है। ऐसे कानून बनाये जा रहे है जो भेदभावों को बढ़ावा दे रहे है। अफसरों और नेताओं के लिए विशेष छूट (special treatment) के प्रावधान किए जा रहे है। वही तकनीकी के माध्यम से जनता पर शिकंजा कसा जा रहा है। वर्तमान में तथ्यों के प्रस्तुतिकरण में चालाकी करके भी जवाबदेही से बचा जा रहा है। पोस्ट-ट्रुथ के रंग में रंगी हुई प्रेस रिलीजो के माध्यम से सरकारी लापरवाही और कुशासन को छिपाया जा रहा है।

निष्कर्ष  -
ऐसा शासन जो न तो जनता को जवाब देता है, न ही विरोध करने देता है, न ही जनता से मिलने में रुचि रखता है, क्या ऐसे शासन को जनता का राज कह सकते है?  उत्तर है - नही । अब हम कह सकते है कि भले ही जनता को अवसर मिलता हो लेकिन वह है तो शासन ही। कुल मिलाकर जनता और एक सत्ता कभी एक नही हो सकते। दोनो के बीच मे एक सीमा तक अंतराल तो हमेशा मौजूद रहता है। लेकिन समस्या यह है कि जो अंतराल भारत में अभी देखा जा रहा है वह लोकतंत्र के हिसाब से सही नही है।

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