Crisis faced in india-moral or economic

21वी सदी की शुरुआत से ही कहा गया कि यह भारत की सदी होगी। भारत जैसे विकासशील देश इस दौरान अपने प्राकृतिक, आर्थिक और मानव संसाधनों की बदौलत वैश्विक मंच पर नेतृत्वकारी भूमिका में पहुचेंगे। यह बात लगभग दो दशकों के बाद अब सच्चाई में प्रतीत होती दिख रही है। वर्तमान में भारतीय अर्थव्यवस्था विश्व मे सर्वाधिक तेजी से वृद्धि कर रही अर्थव्यवस्थाओ में शामिल है। क्रय क्षमता के आधार पर इसका आकार तीसरे नम्बर का हो गया है। न केवल भारतीय अर्थव्यवस्था बल्कि भारतीय नागरिक भी वैश्विक मंचो पर छाए हुए हैं और राजनीतिक, आर्थिक क्षेत्रो में शीर्ष भूमिका अदा कर रहे है। इनके अलावा भारत अपने नैतिक मानको के आधार पर भी विश्व के पथ प्रदर्शक के रूप में उभरा है। जलवायु परिवर्तन जैसे संकटो के प्रति भारत ने संयम आधारित उपाय सुझाकर अपनी नैतिक समृद्धि का परिचय दिया है। वर्तमान में तारीफ बटोरती भारतीय अर्थव्यवस्था और सदियों से प्रशंसित नैतिक मूल्यों की उपस्थिति के बावजूद भारत की राजनीतिक, आर्थिक और सामाजिक व्यवस्था चुनोतियों से मुक्त नही है।

भारत की मौजूदा स्थिति का मूल्यांकन करे तो पाते है कि भारत की आर्थिक प्रगति आलोचनाओ से मुक्त नही है। उसमें कई ऐसी विसंगति है जो गंभीर प्रश्न खड़े करती है, ये खामिया या तो आर्थिक संकट को दर्शा रही है या फिर बड़े संकट की तरफ बढ़ रही है। सबसे पहली बात तो यही है कि क्या तेजी से वृद्धि कर रही भारतीय अर्थव्यवस्था सभी भारतीयों की प्रगति को दर्शा रही है। विभिन्न प्रकार के आकड़ो के आधार पर हम सिद्ध कर सकते है कि भारत की तथाकथित प्रगति कुछ चुनिंदा क्षेत्रों, इकाईयो और लोगों की ही प्रगति है।भारतीय जनसंख्या का एक चौथाई भाग तो सरकारी आकड़ो के अनुसार ही दैनिक तौर पर रोजी रोटी के लिए संघर्ष करता है। लोगो मे आर्थिक विषमता का स्तर काफी उच्च हो गया है।ऑक्सफेम की रिपोर्ट दर्शाती है कि 1% से भी कम लोगों ने देश के 90% से भी संसाधनों पर कब्जा कर रखा है। जनसांख्यकी लाभांश का दावा करने वाला देश रोजगार विहीन संवृद्धि (Growth) का आरोप झेल रहा है, और युवाओ की बड़ी संख्या संसाधन के बजाय बोझ में तब्दील होती जा रही है। एक प्रकार से देश समावेशी विकास का संकट देख रहा है। एक तरफ IMF और विश्व बैंक जैसी संस्थाओ की व्यवसाय के मामले में प्रसंशा बटोर रहा है वही दूसरी तरफ भुखमरी, बेरोजगारी, कुपोषण, सामाजिक कल्याण के मामलों में वैश्विक संस्थाओ की ही फटखार खा रहा है। अर्थव्यवस्था की इस दुविधा को हम नैतिक मानको में आ रही गिरावट के संदर्भ में समझ सकते है।

भारतीय संस्कृति को नैतिक मूल्यों की दृष्टि से काफी समृद्ध माना गया है। यह सर्वे भवन्तु सुखिनः और वसुधैव कुटुम्बकम जैसे समावेशी विचारो में भरोसा करती है। यह सभी को अपने समाज , परिवार और देश के प्रति दायित्व समझाती है। इन नैतिक मानको पर टिके रहने वालों को सम्मान दिया गया और विचलित होने वालों का तिरस्कार किया गया। यही कारण था कि लोगो ने नैतिक मूल्यों से प्रेरित अपने मान सम्मान के लिए बलिदान और त्याग किये। अगर इन नैतिक मूल्यों का वर्तमान में मूल्यांकन करे तो पाते है कि ये कही पीछे छूट गए है, इनको अब पिछड़ी सोच से जोड़कर देखा जाता है। वर्तमान में घोटाले करने वालो को कोई लज्जा महसूस नही होती अपितु उन्हें अपनी चालाकी पर गर्व होता है। समाज भी उन्हें तिरस्कार की दृष्टि से नही देखता है। रिश्वत देकर काम निकलवाने को लोगों ने सुगमता की कीमत से जोड़ दिया है। जनप्रतिनिधियों की जवाबदेही जनता के बजाय वित्त और विजय पोषकों के प्रति हो गयी है। इन उदाहरणो से अंदाज़ा लगाया  जा सकता है कि भारतीय नैतिक मूल्यों से दूर भाग रहे है और एक तरह से नैतिक संकट की स्थिति बन रही हैं।

नैतिक मूल्यों में संकट का प्रभाव राजनीतिक और आर्थिक क्षेत्रो में गंभीर तौर पर देखा जा रहा है। नैतिक मूल्यों का संकट ही कई आर्थिक संकटो को जन्म दे रहा है। पूंजीवाद की तो अवधारणा ही भारतीय नैतिक मानको के पैमाने पर हमेशा से ही संदिग्ध रही है, यह सभी के समान विकास की बजाय कुछ ही लोगो के मुनाफा कमाने को जायज ठहराती है। इस वजह से संसाधनों के वितरण में विषमता उत्पन्न होती है। रिश्वत लेकर सरकारी कर्मचारियों द्वारा संसाधनों का त्रुटिपूर्ण आवंटन किया जा रहा है। अनैतिक मानदंडों के कारण वितरण की वजह से असली लाभार्थी तो वंचित ही बना हुआ है, इसी वजह से सरकार की कल्याणकारी योजनाए अप्रभावी बनी हुई है। हम जानते है कि नैतिकता को कानून और नियमो के आधार पर स्थापित किया जाता है।लेकिन कुछ लोगो के फायदों के लिए कायदे कानूनों को ही तोड़ा मरोड़ा जा रहा है। नव-उदारीकरण के चलते भारतीय नैतिक मानको को कड़ी चुनोती मिल रही हैं। अर्थव्यवस्था की प्रगति के नाम पर किसानों और श्रमिकों के सुरक्षा उपायों को ढीला किया जा रहा है। इस तरह नैतिक मूल्यों में आ रही गिरावट अर्थव्यवस्था को अमानवीय चेहरा प्रदान करके एक गंभीर समस्या उत्पन्न कर रही है।

लेकिन सम्पूर्ण दोष नैतिक मूल्यों में गिरावट पर थोपना भी सही नही है। भारत को गरीबी, अकाल, भुखमरी, बेरोजगारी, ऋणग्रस्तता जैसी समस्या तो आज़ादी के बाद विरासत में प्राप्त हुई है, न कि भारतीयों के नैतिक पतन के कारण उत्पन्न हुई है। उल्टा भारतीयों ने तो लोकतांत्रिक नीति निर्माण के माध्यम से इन समस्याओं की भयानकता को कम किया है। विरासत में मिली आर्थिक परेशानियों को दूर करने में भारतीय संसाधन प्रर्याप्त नही पड़ रहे थे। भारतीय संसाधनों के बल पर विकास करने में समय लग रहा था। इस चीज ने लोगों को भौतिक संसाधन जुटाने हेतु शॉर्टकट रास्ते अपनाने को प्रेरित किया और परिणामस्वरूप नैतिक मूल्यों का ह्रास हुआ।

इस प्रकार हम देख चुके है कि नैतिक संकट के कारण आर्थिक संकट को बल मिलता है वही आर्थिक संकट के कारण नैतिक संकट को बल मिलता है। इस प्रकार दोनो समस्याओ को पृथक -पृथक करके नही देख सकते, इनकी उपस्थिति को एक साथ ही देखा जाना चाहिए।

अगर भारत के संदर्भ में मौजूदा स्थिति पर गौर करे तो हम देखते है कि भारत में अर्थव्यवस्था को मानवीय चेहरा देने पर हमेशा जोर दिए जाने के कारण संकट जैसी स्थिति को हम टालते रहे है। उसी प्रकार नैतिक मूल्यों से अभी भी अधिकांश लोग जुड़े हुए है, इस कारण नैतिक संकट जैसी स्थिति कहना भी सही नही है।अगर भारत मे कुछ गड़बड़ है तो उसे संकट की बजाय समस्या ही कहना चाहिये। भारतीयों ने इन समस्याओं के आगे आत्मसमर्पण नही किया, इसलिए भी समस्याओ को संकट कहना सही नही है। भारतीय निरंतर प्रयासों से इन समस्याओं को दूर करने में लगे हुए है।

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