भारत का सम्पर्क जब उपनिवेश काल मे पाश्चात्य विचारो से हुआ तो यहां भी लोगो मे स्वतंत्रता, समानता जैसे तत्वों के प्रति लोगो मे रुचि बढ़ी। वैश्वीकरण के दौर में अधिक भारतीय पश्चिमी विचारो के साथ ज्यादा नजदीकी से सम्पर्क में आये। इस समय भारतीयों की आत्मनिर्भरता बढ़ी तो पश्चिमी भौतिक संस्कृति के प्रति तेजी से आकर्षित हुए। इन लोगो ने खान-पान, वेश-भूषा, रहन-सहन, बोलचाल में पश्चिमी तत्वों की मात्रा बढ़ती चली गईं। विदेशी टीवी चैनल और बहुराष्ट्रीय कम्पनियों ने पश्चिमी चीजो और व्यवहारों को घर-घर में लोकप्रिय बना दिया। दिखावटीपन को बढ़ावा मिला, फैशन और महंगी चीजो को अपनाने लगे, खुलेआम स्नेह दर्शाने लगे, कामुक विचारो पर खुलेआम राय रखने लगे। लोगो के व्यवहारों में औपचारिकता हावी होने लग गयी। रिश्तों का निर्धारण नए तरीके से होने लगा है, शादी-विवाहों में घरवालो की बजाय लड़के-लड़कियों की इच्छा महत्वपूर्ण हो गयी है।
हम देख रहे है कि वैश्वीकरण के कारण हो रहे तीव्र बदलाव परम्परागत संस्कृति को चुनोती देते हुए दिख रहे है। इनमे कुछ बदलाव सकारात्मक है जो कि स्वतंत्रता और समानता जैसी चीजों से जुड़े हुए है। जैसे कि लोग खुलकर अपनी मर्जी को दुसरो से बेपरवाह होकर अभिव्यक्त कर रहे है। परम्परागत नियंत्रण कमजोर पड़ रहा है जिससे महिलाओं, दलित, आदिवासीओ की मुक्ति सुनिश्चित हो रही है। लोग खुलकर अपने को सोशल मीडिया पर व्यक्त कर रहे है। कुल मिलाकर बात यह है कि लोग गरिमामय तरीके से जीवन जीने की ओर प्रयासरत है।
मौजूदा बदलावों के द्वारा ऐसे प्रभाव भी पड़ रहे है जो भारतीय संस्कृति के मूल्यों के विपरीत है जैसे कि लोग दिखावे के चक्कर मे खूब अपव्यव कर रहे है। भौतिक संसाधनों को प्राप्त करने के चक्कर मे लोग अनैतिक तरीके से कमाई करने लगे है, रिश्वत ले रहे है, धोखाधड़ी हो रही है। सम्पन्न जीवनशैली के लिए प्राकृतिक संसाधनों का अनियंत्रित दोहन किया जा रहा है। खुलेपन के नाम पर अश्लीलता को बढ़ावा दिया जा रहा है जिसके परिणामस्वरूप महिलाओ की सुरक्षा का मुद्दा उभरने लगा है। तकनीकियों के प्रयोग ने आदमी की जिंदगी को सुगम बनाया है इसलिए आदमी अकेला रहना पसंद करने लगा है और समाज से दूरी बनाने लगा है। रिश्तों में भी तनाव उभरने लगा है जिससे उनमे भावनात्मक लगाव कम हो गया है। पहले की कई बुराइयों का भी आधुनिकीकरण हो गया है, जैसे कि दहेज, इस कारणे जो प्रयास महिलाओ को शसक्त करने के लिए किए जा रहे है वे प्रभावहीन होते जा रहे है।
कुछ प्रतिक्रियावादी लोगो का मानना है कि मौजूदा बदलाव भारतीय संस्कृति को दूषित कर रहे है। इसे वे पश्चिम के सांस्कृतिक आक्रमण के तौर पर देखते है जिसके कारण भारतीय संस्कृति लगातार अनुपस्थित होती जा रही है। इनका मानना है कि लोग आधुनिक चीजो को ग्रहण करने के चक्कर मे परम्परागत चीजो को पिछड़ी समझ कर भूलते जा रहे है। सम्पन्न लोगों की देखा देखी दूसरे लोग भी उनकी नकल करने में लगे हुए है जिससे एक सांस्कृतिक अराजकता का माहौल बन गया है। ऐसा माहौल बन गया है जिसमे सांस्कृतिक बदलावों की दिशा को पहचानना मुश्किल हो गया है। ऐसा लगने लगा है की पश्चिमी संस्कृति का ही एकमात्र विकल्प बचा है, भारतीय संस्कृति अब एक भ्रम मात्र रह गयी है।
लेकिन इन आशंकाओ का मूल्यांकन करने पर पाते है कि भारतीय संस्कृति के मूलभूत तत्व तो अभी भी मजबूत स्थिति में है। भारतीय संस्कृति का अभी भी पृथक वजूद है, पहचान है जो विदेशो में भी लोकप्रिय हो रहा है। इसका एक उदाहरण यह है कि योग दिवस घोषित करने के भारत के सयुक्त राष्ट्र महासभा में प्रस्ताव को 177 देशो का समर्थन मिला था। बॉलीवुड भारत का विदेशो में प्रतिनिधित्व कर रहा है। बाहरी दिखाई देने वाली चीजें जरूर पश्चिम के रंग में रंगी है लेकिन आंतरिक चीजे पर तो विदेशो में भी भारत का ही रंग जम रहा है।
ऐसा कोई पहली बार नही हो रहा है जब भारतीय संस्कृति बाहरी चीजो के सम्पर्क में आई हो। इससे पहले इस्लामिक संस्कृति का जब भारत मे आगमन हुआ तो वह भारतीय संस्कृति को पचा नही सकी, जबकि उसने इराक और ईरान की संस्कृतियों को पचा लिया था। भारतीय संस्कृति के साथ मिलकर एक समन्वित संस्कृति विकसित की जो आज भी बहुलता में सामंजस्य का उदाहरण प्रस्तुत करती है। उस समय भी कई लोगो को लगा था कि ये किसी न किसी मे विलय हो जाएगी लेकिन ऐसा नही हुआ। उसी प्रकार पश्चिम के साथ भी भारतीय संस्कृति के सम्पर्क से नई परिष्कृत संस्कृति सामने आएगी । रही बात मौजूदा सांस्कृतिक परिदृश्य की खामियों की , तो उन्हें गम्भीर प्रयास किया जाए तो दूर किया जा सकता है।
निष्कर्ष :
अतः हम कह सकते है कि भारतीय संस्कृति के मूलभूत तत्व न केवल स्थापित है बल्कि परिष्कृत भी हो रहे है। यह किसी मिथक तक सीमित नही है, इसकी पहचान वास्तविक तौर पर की जा सकती है।
एक टिप्पणी भेजें