समावेशी विकास से ग्रामीण अर्थव्यवस्था की उम्मीदों की सच्चाई


आजादी के 65 वर्ष बीत जाने के बाद भी देश की एक चौथाई से अधिक आबादी अभी भी गरीब है और उसे जीवन की मूलभूत सुविधाएं उपलब्ध नहीं हैं। ऐसी स्थिति में भारत में समावेशी विकास की अवधारणा सही मायने में जमीनी धरातल पर नहीं उतर पाई है। ऐसा भी नहीं है कि इन छह दशकों में सरकार द्वारा इस दिशा में प्रयास नहीं किए गए केन्द्र तथा राज्य स्तर पर लोगों की गरीबी दूर करने हेतु अनेक कार्यक्रम बने, परन्तु उचित अनुश्रवण के अभाव में इन कार्यक्रमों से आशानुरूप परिणाम नहीं मिले और कहीं तो ये कार्यक्रम पूरी तरह भ्रष्टाचार की भेंट चढ़ गए। यही नहीं, जो योजनाएं केन्द्र तथा राज्यों के संयुक्त वित्त पोषण से संचालित की जानी थीं, वे भी कई राज्यों की आर्थिक स्थिति ठीक न होने या फिर निहित राजनीतिक स्वार्थो की वजह से कार्यान्वित नहीं की जा सकीं।

समावेशी  विकास ग्रामीण तथा शहरी दोनों क्षेत्रों के संतुलित विकास पर निर्भर करता है। इसे समावेशी विकास की पहली शर्त के रूप में भी देखा जा सकता है। वर्तमान में हालांकि मनरेगा जैसी और भी कई रोजगारपरक योजनाएं प्रभावी हैं और कुछ हद तक लोगों को सहायता भी मिली है, परन्तु इसे आजीविका का स्थायी साधन नहीं कहा जा सकता, जबकि ग्रामीणों के लिए एक स्थायी तथा दीर्घकालिका रोजगार की जरूरत है। अब तक का अनुभव यही है कि ग्रामीण क्षेत्रों में सिवाय कृषि के अलावा रोजगार के अन्य वैकल्पिक साधनों का सृजन ही नहीं हो सका, भले ही विगत तीन दशकों में रोजगार सृजन की कई योजनाएं क्यों न चलाई गई हों। सके अलावा गांवों में ढ़ांचागत विकास भी उपेक्षित रहा फलतःगांवों से बड़ी संख्या में लोगों का पलायन होता रहा और शहरों की ओर लोग उन्मुख होते रहे। इससे शहरों में मलिन बस्तियों की संख्या बढ़ती गई तथा अधिकांश शहर जनसंख्या के बढ़ते दबाव को वहन कर पाने में असमर्थ ही हैं। यह कैसी विडम्बना है कि भारत की अर्थव्यवस्था की रीढ़ कहीं जाने वाली कृषि अर्थव्यवस्था निरन्तर कमजोर होती गई और वीरान होते गए, तो दूसरी ओर शहरों में बेतरतीब शहरीकरण को बल मिला और शहरों में आधारभूत सुविधाएं चरमराई यही नहीं रोजी-रोटी के अभाव में शहरों में अपराधों की बढ़ ई है।


ग्रामीण क्षेत्र में समावेशी विकास से जो उम्मीद 

ग्रामीण क्षेत्र में समावेशी विकास से जो उम्मीद की जाती हैं उनको हम इस तरीके से देख सकते हैं-
1. शिक्षा
कई गाँवो तक अब सरकारी स्कूल पहुँच चुके हैं। अब शायद ही कोई बदनसीब गांव होगा जहां पर कोई स्कूल नही होगा। समावेशी विकास के तहत उम्मीद की गयी थी की बच्चे पढ़ेंगे लिखेंगे तो आगे बढ़ेंगे और अपने पैरो पर खड़े होंगे। 
परन्तु हम स्कूलों की संख्या से खुश नही रह सकते हमे इनकी गुणवत्ता को जानने का रुख करना ही होगा। इस दौरान हम पाते हैं की मिड डे मिल या फिर सर्व शिक्षा अभियान ने स्कूलों से ड्रॉपआउट करने वालो की संख्या में कमी कराइ हो पर हम उनके और एक सभ्य वर्ग के उसी लेवल के  बच्चो की तुलना करने पर पाते हैं की दोनों के बीच एक बहुत बढ़ी खाई हैं। 

एक बच्चा पब्लिक स्कूल में बिलकुल ही अलग क्वालिटी का अध्यन कर रहा हैं दूसरी और एक बच्चा गांव के स्कूल में पढाई के नाम की टाइमपास कर रहा हैं। यहां तक की दोनों की शिक्षा का माध्यम भी अलग-अलग हैं,  हम इस सम्बन्ध में आगे नही बढ़ेंगे परन्तु हम यह निष्कर्ष जरूर निकालेंगे की अगर आप समावेशी विकास की बात कर रहे हो तो वह अलग अलग प्रकार की शिक्षा अलग-अलग तरह की सुविधाओ के साथ प्रदान करके किस प्रकार प्राप्त करोगे। 

2. चिकित्सा 
कई गांव इस मामले में खुशनसीब  हैं की उनके वहां पर कोई न कोई  चिकत्सीय इकाई मौजूद हैं। वरना अभी भी अधिकांश गाँवो के लोग अपने इलाज के लिए निकटवर्ती कस्बे या शहर का रुख करते हैं।
अगर गांव में कोई प्राथमिक केंद्र हैं भी तो वो भी अपने आप में  एक समस्या हैं क्यूंकि अगर नही  होता  तो  लोग यह सोचकर सब्र कर लेते की उनको ऐसी सुविधा मिली ही नही हैं परन्तु अब वे  समय पर नही खुलने,  समय पर कम्पाउण्डर/डॉक्टर नही आने, प्राइवेट क्लिनिक चलाने जैसी समस्याओ से जूझ रहे हैं। 
समय पर चिकित्सा सुविधा नही मिल पाने के कारण कई दुर्घटनाऍ भी होती हैं। हालांकि कई राज्य सरकारों ने जिला मुख्यालयों पर 108 एम्बुलेंस सर्विस शुरू की हैं , जो ग्रामीण स्तर पर मौजूद नही सुविधाओ की कमी को विकल्प प्रदान करती हैं ,जो भी अपनी कम संख्या और अन्य कठिनाइयों के कारण सही विकल्प नही बन पाया हैं। 

सबसे संवेदनशील समस्या प्रसूताओं की मानी जा सकती हैं वो इन सबके अभाव में पारम्परिक तरीको पर ही निर्भर रहती हैं। और असहनीय दर्द को सहती हैं। 


3. सड़क 
ये गाँवो को दूसरे माध्यमो से जोड़ने का साधन हैं। अगर गांव शहर या फिर कस्बे से अच्छी तरीके से जुड़ा हुआ होगा तो वहां के लोग मुख्यधारा से जुड़ पाएंगे। जो समावेशी विकास की दिशा में ही प्रयास होगा। ग्रामवासियो को शहर पहुँचने में सुविधा होगी तो वे अपने कृषि उत्पादों  को आसानी से बाज़ार तक पहुंचा सकेंगे और अपनी आवश्यकता की चीजे भी खरीद सकेंगे।
प्रधानमंत्री ग्राम सड़क योजना की बदौलत अब सभी गाँवो को बहुमासिक संपर्क सुविधा प्राप्त हो रही हैं। कुछ गांव अभी भी इससे वंचित हैं , तथा कई जगहों पर तो ऐसे निर्माण किये गए हैं जो निर्धारित आवश्यकताओं की पूर्ति बहुत ही  काम मात्रा में करते हैं।
अब सम्पर्को के साथ -साथ गतिशील सम्पर्कसाधनो की भी आवश्यकता महशूस हो रही हैं। इस दिशा में होने वाली प्रगति की अगर गति तीव्र कर दी जाए तो यह संतोषजनक साबित हो सकती हैं।

4.पेयजल
गाँवो को पेयजल की आपूर्ति की व्यवस्था करना भी एक चुनौती हैं। गाँवो में नलकूपों के माध्यम से नलो या टंकियों की व्यवस्था की गयी हैं। गाँवो में पहले पीने के पानी  का  साधन कुए हुआ करते थे।   परन्तु पानी के लगातार निचे होते स्तर के कारण ये अब अप्रासंगिक हो गए हैं।  हैंडपंप जैसे माध्यम गाँवो में पानी की पूर्ति में सहायक हो रहे हैं।

5. सिंचाई 
गाँवो की अर्थव्यवस्था कृषि पर निर्भर हैं और कृषि, मानसूनी जलवायु होने के कारण सिंचाई पर निर्भर हैं। गाँवो में खेती के लिए पहले कई प्राकृतिक साधनो से पानी मिलता था परन्तु अब वे सब संशाधन जलवायु परिवर्तन या अन्य कारणों से इस लायक नही रहे हैं। इन सबका नतीजा किसान को उत्पादन में भुगतना पड़ रहा हैं। जिस कारण उसकी आय में कमी आ रही हैं। साथ ही महंगाई में वृद्धि के कारण उस पर वित्तीय भर बढ़ता जा रहा हैं और किसानो की आत्महत्या जैसे मामले सामने आ रहे हैं।

5. आवास 
गाँवो में जीवनयापन का सदन केवल कृषि होती हैं ,वर्तमान बढ़ती हुई महंगाई के कारण कृषि की उत्पादन लागत में वृद्धि हुई हैं जिससे   उनके फायदे में कमी हुई हैं और साथ ही उनके खर्चे भी काफी अधिक होते हैं  इस कारण उनके पास गुजारा करने के अलावा आय का स्त्रोत नही होता हैं।  ऐसी हालत में उनके घर निर्माण के कम ही अवसर होते हैं। 
गाँवो में बड़े किसानो को अगर छोड़ दिया जाए तो सबी छोटे किसानो की यही हालत हैं। पक्के मकानो के अभाव में उनको सर्दी ,बरसात और गर्मियों में काफी परेशानी उठानी पड़ती हैं। 
आवास के लिए सरकार की योजनाओ के लिए योगतया मानक बहुत ही अव्यवहारिक हैं। आवास के अभाव में गांव के लोग फिर शौचालयों का भी निर्माण नही करते और फिर खुले में जाकर गंदगी फैलाते हैं और बीमारियो को न्यूता देते हैं।

6. सामाजिक सुरक्षा 
सामाजिक सुरक्षा भी समावेशी विकाश का ही भाग हैं। समावेशी विकाश के लिए सामाजिक सुरक्षा की सूनिशिचतता एक जरुरी आवश्यकता हैं। जब भी  समाजिक सुरक्षा की बात होती हैं तो उसमे केवल उन्ही पक्षों का अध्यन किया जाता हैं जोकि उनको प्रभावित नही कर पाते हैं उसका अध्यन शहरी या ग्रामीण तौर पर नही किया जाता।

गाँवो में हम सबसे पहले वृद्धजनों की बात करते हैं तो हम देखते हैं की इस अनुत्पादक उम्र में बड़े-बूढो को काफी धक्के खाने पड़ते हैं जो ज्यादातर उसके परिवारजनो में बेटे या बहुओ के द्वारा होते हैं।
वहां पर कोई ऐसा माध्यम भी नही होता जसके कारण वे अपना जी बहला सके। साथ ही वित्तीय तौर पर भी सुदृढ़ नही होने के कारण उनको अपमानजनक हालत से गुजरना पड़ता हैं। गाँवो में प्रचार प्रसार के अभाव में वे सरकारी पेंशन जैसी चीजो से भी वंचित रह जाते हैं।

महिलाओ से संबंधित मामले गाँवो में बहुत सामने आते हैं एक तो उनसे दिनभर काम करवाया जाता हैं और फिर छोटी-छोटी गलतियों पर पीटा जाता हैं। कई बार उन्हें घर से निकाल दिया जाता हैं ,उन्हें खाना नही दिया जाता और दहेज़ जैसी चीजो के लिए तंग किया जाता हैं। गांव में औरते ज्यादातर अशिक्षित होती हैं और वे अपने शोषण को पहचान नही पाती हैं। गाँवो में जो महिला शोषण के जो तरीके सामने आते हैं वो बहुत ही जघन्य श्रेणी के होते हैं जैसे की - आग लगाकर मार डालना , कुए में लटका देना , ट्रैन से कट जाना , फंदे से झूल जाना आदि ऐसे ही उदहारण हैं।

बच्चो को भी गाँवो में सामजिक सुरक्षा नही मिल पाती हैं। उनको छोटी उम्र में ही कृषि या फिर कमाने के कार्यो में लगा दिया जाता हैं। उनकी शिक्षा जैसी चीजो की कोई परवाह नही की जाती ,साथ ही उनको खेलने तक भी नही दिया जाता , यह कहकर की खेलकूद ठाले लोगो के काम हैं। इस प्रकार बच्चो को सर्वांगीण विकास करने से वंचित कर दिया जाता हैं। कई बच्चे उचित देखभाल के अभाव में कुपोषण के शिकार हो जाते हैं।



इस प्रकार हम देख सकते हैं की समावेशी विकास के ग्रामीण व्यवस्था के सम्बन्ध में चुनौतियां बिलकुल ही अलग हैं ,और उनका अलग तरीके से ही समाधान जरुरी हैं। 

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