समावेशी विकास का अप्राप्य उद्देश्य


आजकल, समावेशी विकास का लक्ष्य हमारी सरकारों की प्राथमिकता बन गया हैं। और इसको मीडिया में मिले कवरेज से ये शब्द इतना लोकप्रिय हो गया हैं की इसे ज्यादातर सभी लोग जान गए हैं।  इस बार मैंने दूसरे पहलुओ पर भी गौर किया और चिंतन किया की क्या समावेशी विकास के उद्देश्य को  प्राप्त किया जा सकता हैं, या फिर ये एक योजनागत शब्दावली बना रह जाएगा और बुद्धिजीवी लोगो के लिए एक बहस का माध्यम बनकर रह जाएगा ।

समावेशी विकास 
समावेशी विकास का सीधा मतलब ऐसा विकास होना चाहिए जो समानता की और ले जाए  जो  की समाजवाद की याद दिलाता हैं और यह  उदारीकरण के इस दौर में  अप्रासंगिक हो गया हैं। पर हम समावेशी विकास का नाम अंतिम छोर पर खड़े व्यक्ति के विकास के नाम पर करते हैं तो हम इस अवधारणा से मुह कैसे मोड़ सकते हैं।
हम कुछ आर्थिक आकड़ो पर गौर करते हैं। आर्थिक सर्वे का अध्यन करने पर हम पाते हैं की देश की अधिकांश जनसँख्या जो कृषि पर निर्भर हैं की जीडीपी में भागीदारी केवल 13 प्रतिशत हैं और इस पर देश की 65प्रतिशत जनसँख्या निर्भर हैं , इस प्रकार हम कह सकते हैं की पैसठ प्रतिशत जनसँख्या के पास केवल देश के 13 प्रतिशत संसाधन हैं। असमानता का पहला कारण तो यही से समझ आता हैं।और शेष बची जनसँख्या के पास ही देश के 85 प्रतिशत संसाधनो का कब्ज़ा हैं। उनमे भी माना जाता हैं की टॉप के5 प्रतिशत लोग ही उनकी 95 प्रतिशत संसाधनो की हकदारी रखते हैं , इन सब के बाद हम यह भली भाति अंदाज़ा लगा सकते हैं की हमारे नीति-निर्माता किस प्रकार के समावेशी विकास की बात कर रहे हैं।

इस प्रकार हमने देखा की समावेशी विकास का तात्पर्य कदापि भी आर्थिक या सामाजिक समानता नही हैं। इसका मतलब केवल सबको उन विकल्पों तक पहुँच प्रदान करना हैं जिनसे की कथित तौर पर विकास  के रास्ते पर चला जा सकता हैं। इसमें यह भी तय नही हैं की उन विकल्पों की गुणवत्ता कैसी हैं। इसे हम इस तरीके से देख सकते हैं की सरकार समावेशी विकास के नाम पर वो सुविधाये प्रदान करेगी जो लोगो की शिक्षा , स्वास्थय, कौशल विकास आदि पर जोर देती हैं।

नागरिको की भूमिका 
समावेशी विकास के समबन्ध में हम नागरिको की भूमिका पर आते हैं,  जो लोग कृषि क्षेत्र से तालुक रखते हैं, हम उनकी जीडीपी में कम भागीदारी से देख चुके हैं की उनकी प्रति व्यक्ति आय उन लोगो से कम हैं  जो की उद्योग या  फिर सर्विस क्षेत्र में लगे  हुए हैं।
साथ ही हमारे आर्थिक सर्वेक्षण के नतीजे  यह रुझान दे रहे  हैं की इसमें और कमी होने की सम्भावना हैं, इस तरह मान सकते हैं की काफी लोग बहुत ही कम आय के साथ गुजारा कर रहे हैं उनकी संख्या में इजाफा होने वाला हैं।
अब हम आते हैं माध्यम वर्ग पर जो किसी ना किसी माध्यम से एक निशिचित आय प्राप्त कर रहा हैं इस वर्ग को अगर सरकार से सामाजिक सुरक्षा नही मिले तो इसकी हालत भी निम्न वर्ग की तरह ही हैं यह वर्ग सामाजिक तौर पर जागरूक रहने के कारण सभी सरकारी पहलो से लाभान्वित होने की क्षमता रखता हैं

आय और समावेशी विकास
हम नागरिको की भूमिका देख चुके हैं की उनकी आय उनके द्वारा तय गए कार्यक्षेत्र पर निर्भर हैं। और हम ने ये भी निष्कर्ष निकला था की अधिकतर लोगो की आय कम हैं। अब हम बात करते हैं  इस    अधिकतर जनसँख्या के जीवनयापन की

इन्हे अपनी इस छोटी आय में से इस महंगाई के जमाने में अपनी दैनिक जरुरत की चीजे जुटानी पड़ती हैं, यहां पर एक और विडंबना हैं की कृषि उत्पादों की कीमत  बढ़ती नही हैं इसलिए  उनकी आय वही हैं और उनके पास महंगाई के कारण कम पैसे ही बचते हैं। इस प्रकार यह तय हैं की उनकी क्रय शक्ति बढ़ने के बजाय काम हो रही हैं  और ना ही वे गुणवत्ता वाली शिक्षा, चिकित्सा व्यवस्था प्राप्त कर रहे हैं इस प्रकार हम कह सकते हैं की कृषि पर लोगो की निर्भरता रखकर समावेशी विकास के मकसद को कभी भी प्राप्त नही किया जा सकेगा

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