फसल ऋण चक्र में नई चुनौतियां

किसानों और कर्ज का गहरा नाता है। कहते है कि किसान कर्ज में जन्म लेता है, कर्ज के साथ बढ़ा होता है और मरते वक्त अपने पुत्रों पर कर्ज का बोझ विरासत में छोड़ जाता है। अगर हम  किसानों की जिंदगी का आंकलन करे तो यह बात उन पर सटीक बैठती है।

कर्ज की शुरुआत फसल बोने से होती है और फसल को बेचकर चुकाने पर खत्म होती है। शुरू में खाद-बीज के लिए कर्ज लेते है, फिर सिंचाई कार्यो के लिए, अंत मे फसल से उत्पादन प्राप्ति को बेचकर उन्हें चुकाया जाता है। इसे फसल-ऋण चक्र कहा जाता है जिसमे ऋण लेकर फसल की जाती है और फसल बेचकर ऋण चुकाया जाता है। यह चक्र हर साल दोहराया जाता है। अगर उत्पादन कम हो तो कर्ज को अगली फसल के भरोसे छोड़ दिया जाता है। बीच मे होने वाले सामाजिक आयोजनों और अन्य आवश्यक खर्चो के लिए भी कर्ज से ही वित्तीयन किया जाता है।
अगर कर्ज और फसल की प्राप्ति का यह चक्र चलता रहता तो ग्रामीण जीवन पूर्ववत चलता रहता, लेकिन नवीन आर्थिक-सामाजिक बदलावों ने इस चक्र को चुनोती दे डाली जिसके कारण कर्ज को चुकाने में एक मौसम की फसल से प्राप्त आय अप्रर्याप्त रहने लग गई और कर्ज को यह बोझ अगली फसल को अतिरिक्त रूप से प्राप्त हुआ।

फसल-ऋण चक्र को चुनोती देने वाले कारको को हम निम्न प्रकार से समझ सकते है----


  1. फसल-ऋण चक्र को पहली चुनोती तो भौगोलिक कारको पर आधारित है। जैसा कि भारत मे कृषि मानसून पर निर्भर करती है और मॉनसूनी जलवायु में अनिश्चितता होती है, जिसके कारण उत्पादन में भी अनिश्चितता आ जाती है। जिस भी वर्ष सूखा , ओलावृष्टि, बाढ़ जैसी घटनाएं होती है उसी वर्ष कर्ज चुकाई का संकट आ जाता है।
  2. महंगाई ने भी फसल-ऋण चक्र को चुनोती दी। दैनिक आवश्यकता की चीजो के भाव अत्याधिक हो गए और फसलों के दामो में ज्यादा अंतर नही आ पाया। साथ ही फसली इनपुटो के भी भाव बढ़ने से लागत कई गुना बढ़ गई, इन सबके चलते उत्पादन में उतना सामर्थ्य नही रहा कि वह कर्ज के बोझ को उठा सके।
  3. शादी-विवाह, दहेज, कई प्रकार की दावते जैसे सामाजिक आयोजनों में भी किसानो की आय का महत्वपूर्ण हिस्सा चला जाता है। कई बार तो इनमे किया जाने वाला खर्चा कर्ज लेकर किया जाता है। इन सामाजिक आयोजनो में महंगाई और आधुनिक रूप देने का जो सिलसिला चला है उसने भी अतिरिक्त भार डाल दिया है।
  4. किसानों के अपरम्परागत क्षेत्रों में उतरने से भी कर्ज का बोझ बढ़ा है। जैसे कि अब बच्चों की महंगी पढ़ाई-लिखाई का बोझ पड़ा है, भौतिक सुविधाओं को भी जुटाने लगे है। पहले की जीवनशैली में ये खर्चे शामिल नही थे। अब इन व्यवो ने आय के लिए अन्य स्रोतों को अपनाने पर जोर देकर कर्ज के चक्र को चुनोती दी है।

प्रभाव

यह फसल-ऋण चक्र असंस्थागत स्त्रोतों अर्थात साहूकारो पर आधारित था जहां महंगी ब्याज दर होती थी। चुकाने में कोई भी चूक होने पर भूमि या किसी अन्य संसाधन से हाथ धोना पड़ता था।
इसका असर यह हुआ कि खासकर सीमांत किसानों में उत्पादन से ज्यादा चिंता कर्ज को कम करने को लेकर होने लगी। क्योंकि उन्हें भूमिहीन होने की डर लगने लगा। मराठवाड़ा, विदर्भ जैसे सूखे क्षेत्रो से बड़ी मात्रा में किसानों के द्वारा आत्महत्या करने की घटनाएं सामने आने लगी।

इसका असर मानव संसाधनो के विकास पर भी पड़ा है। सीधी सी बात है ये अपने बच्चों को गुणवत्ता युक्त शिक्षा नही उपलब्ध करवा सकते जिस कारण वे खेती के अलावा रोजगार का कोई विकल्प भी नही प्राप्त कर सकते। अगर ऐसा होता तो वे गरीबी के जाल से आसानी से बाहर आ जाते। न ही इनके बच्चे अपने अन्य किसी हूनर की आजमाइश कर पाते है। इस प्रकार गरीबी का चक्र पीढ़ी दर पीढ़ी चलता रहता है।

निष्कर्ष

अब सरकार ने संस्थागत स्त्रोतों (बैंको) को बढ़ावा देकर इस चक्र के दुष्प्रभावो को कम करने की कोशिश की है। लेकिन अभी भी इस समस्या के समाधान के लिए बुनियादी कारणों को लक्षित करने की आवश्यकता है।

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