नव उदारवाद काल में गाँव

नव-उदारवाद के दौर में गाँवो ने सरकार को एक प्रकार की उलझन में शुरू से ही डाले रखा, एक तरफ तो सरकार तेजी से विकास के सपने संजोये मार्केट के साथ चलना चाहती थी वही दूसरी तरफ कल्याकारी राज्य के टैग को बचाना चाहती हैं। जहां मार्केट के साथ आगे बढ़ने से कई समस्याओ के समाधान की संभावना थी, वही गाँवो को इसके  तैयार करने की भी जरुरत थी। गाँवो को नव-उदारवादी मैराथन में दौड़ाने के लिए विशेष सुविधा दिए जाने की जरुरत भी थी। भारत में स्वतंत्रता के बाद इस चीज को समझते हुए बाजार को नियंत्रित कार्यक्षेत्र ही प्रदान किया गया था।

1991 के बाद भारत में आर्थिक सुधारो के साथ बाजार को आज़ादी देने के वो प्रयास होने लगे जिनकी विश्व जनमत की तरफ से भी मांग हो रही थी। इस पहल  को अंतरराष्ट्रीय वित्तीय संस्थानों द्वारा आगे बढ़ाया जा रहा था जिनमे आईएमएफ, विश्व बैंक, विश्व व्यापार संगठन और कई अन्य मंचो के द्वारा आगे बढ़ाया जा रहा था। ये संस्थान वित्तीय और तकनिकी सहायताओ के बदले देशो की संप्रभुता से आगे बढ़कर कानूनी और संरचनात्मक सुधारो के लिए मजबूर कर रहे हैं। ऐसे सरकारी विनियमो को तोडा और मरोड़ा जा रहा हैं जो मुनाफे को नुकसान पहुंचाए। सार्वजनिक संसाधनों की अवधारणा अब ख़त्म हो चुकी हैं और सरकार उन पर से अपना नियंत्रण हटाकर उन्हें निजी क्षेत्रो में भेज रही हैं। सामाजिक सेवाओ में  भी अब मुनाफा नजर आने लगा हैं और सरकार वहां से अपनी भूमिका को सीमित करके उनमे निजी क्षेत्रो को प्रवेश दे रही हैं। ये सब चल रहा हैं व्यापार करने में सुविधा के लिए अपनी स्थिति सुधारने के नाम पर।


सामाजिक सेवाओ में सरकार जो सुविधा उपलब्ध करा रही थी वे अपनी अकुशलता के कारण तो पहले ही कारगर नहीं थी। अब सरकार उनसे पलायनवादी रुख अपना कर लोगो को मुनाफा आधारित निकायों के भरोसे छोड़ने की नीति अपना रही हैं। जहां पहले शिक्षा और स्वास्थय जैसी चीजे पहले सरकार उपलब्ध करा देती थी अब ये ही सुविधा निजी क्षेत्र के अधीन मिल रही हैं। यह बात सही भी बैठती हैं की इस से  सेवा प्रदायगी में गुणवत्ता और दक्षता आयी है। लेकिन इस तथ्य को भी नजरअंदाज नहीं किया जाना चाहिए कि इन सुविधाओ तक पहुँच क्या सभी लोगो की हैं। खासकर यह समस्या ग्रामीणों को ज्यादा उठानी पड़ रही हैं क्योंकि उनमे से ही अधिकांश निम्न आय के कारण इन तक पहुँच नहीं रखते हैं। जब ये  सुविधा सरकार उपलब्ध  कराती हैं तो उन से  गरीब और वंचित लोगो  के लाभान्वित होने की उम्मीद ज्यादा रहती हैं। अब नव-उदारवादी नीति का अनुसरण   करके सरकार इन क्षेत्रो से वापस होती हैं तो शोषण करने वाली शक्तिया ही विकल्प के रूप में रह जायेगी।


सार्वजनिक संसाधनों की अवधारणा से जो नाता तोडा जा रहा हैं उसका सर्वाधिक असर गाँवो को ही उठाना पड़  रहा हैं क्योंकि वे अभी भी उन से लाभान्वित हो रहे हैं या फिर उनसे जुड़े हुए हैं। जो प्राकृतिक संसाधन पहले समुदाय के नियंत्रण में थे वे अब या तो निजी कंपनियों के लिए अधिग्रहित किये जा चुके हैं या  फिर उनसे लोगो को वंचित किया जा चूका हैं।

नव उदारवाद से गाँवो के मुलभुत हितो पर चोट पहुंची हैं इसके साथ ही गाँवो में रहने वालो के हित भी बुरी तरीके से प्रभावित हो रहे हैं। समावेशी विकास की मुहीम भी इससे  बुरी तरीके से प्रभावित हो रही हैं इसी चीज ने पापुलिज्म जैसी चीजो को जन्म दिया।   

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