कट्टरता का स्त्रोत - धार्मिक दर्शन या राजनीति ?

दुनिया ऐसी  बावरी कि         पत्थर पूजन जाये। 
घर की चकिया कोई न पूजे जेही का पीसा खाये। । 
कंकर-पत्थर जोड़   कर लई मस्जिद        बनाए। 
ता पर चढ़ी मुल्ला बांग दे क्या बहरा हुआ खुदाय । । 

भक्ति आंदोलन के निर्गुणपंथी संत कबीर की यह पंक्ति तो आपने सुनी ही होगी।जिसमे वे मूर्तिपूजा का विरोध कर रहे हैं , इसमें आगे वे मुस्लिमो के अजान को लेकर भी सवाल उठाते हैं । 


हम जानते हैं की कबीर धार्मिक आडंबरों के कट्टर विरोधी थे। उन्होंने हिन्दू और मुसलमानो दोनों पर जमकर कटाक्ष किये थे। उनसे तत्कालीन दिल्ली सुल्तान सिकंदर लोदी तो इतना चिढ गया था की उसकी हत्या करने  तक के आदेश दे दिए, और इसके लिए हर संभव प्रयास किये।
दरअसल भक्ति आंदोलन ऐसा काल था जिसमे संतो ने धर्म के वास्तविक अर्थ को पुन: परिभाषित किया। इन्होने मानव और ईश्वर के बीच प्रत्यक्ष सम्बन्धो की बात की , जो की भक्ति पर आधारित थे। उसमे एकाग्र निष्ठा पर बल दिया था जो बढ़ते-बढ़ते गहन प्रेम तक पहुचती थी। दूसरी तरफ परम्परागत , कठोर और निरर्थक कर्मकांडो का विरोध किया जो की समाज में घुल चुके थे। इनका मानना था की किताबी ज्ञान और साधु जीवन मोक्ष का आधार नही हो सकता।
भक्ति आंदोलन के समकालीन सूफी आंदोलन ने भी इस्लाम को हिंसा और कट्टरता से हटकर पहचान दी थी।नानक ने भी उसी दौरान जातियों और रूढ़ियों से रहित धर्म की शिक्षा दी थी और फलस्वरूप सिक्ख धर्म अस्तित्व में आया था। 

इस प्रकार हम यूँ कह सकते हैं की इन आंदोलनों ने धर्म को दर्शन के रूप में देखा था , ना की उपासना पद्धतियों में। जिससे धार्मिक सामंजस्य कायम होने का रास्ता तैयार हुआ क्यूंकि दूसरे धर्मो के प्रति एक समझ विकसित हुई थी। अकबर के पोते दारा शिकोह ने कुरान और उपनिषदों का अध्यन किया और अपनी पुस्तक "मज्म-अल-बहरैन" में लिखा की हिन्दू और मुसलमान दोनों जुड़वाँ भाई हैं और दोनों के दर्शनों में केवल शाब्दिक अंतर हैं। 

हमने भक्ति आंदोलन के माध्यम से जाना की जैसे ही हिन्दू , इस्लाम  के संपर्क में आया तो एकेश्वरवाद ,समानता ,भाईचारा जैसे गुणों से प्रभावित हुआ और इनके आधार पर  मूर्तिपूजा, जातिप्रथा, सामाजिक भेदभाव  के खिलाफ भक्ति संतो ने आवाज उठाई। इसी प्रकार अंग्रेजो के आगमन पर लोकतंत्र, मानव अधिकार , महिला अधिकार, अन्धविश्वास जैसे गुणों से प्रभावित हुआ। इस प्रकार हिन्दू धर्म ने हमेशा अपने में बदलावों के साथ खुद को ढालने की परवर्ती दिखाई और फिर नए रूप के साथ अवतरित होता गया। 
इसी प्रकार इस्लाम भारत में आया तो वह भी हिन्दू धर्म से प्रभावित हुआ। सूफी आंदोलन ने इस्लाम की अनोखी छवि प्रदान की जिसने इस्लाम का मानवतावादी और आध्यात्मिक पहलु उजागर किया। जिसके फलस्वरूप इन्होने धार्मिक सामंजस्य की बात को स्वीकार किया। और बादशाह अकबर ने माना था की 
"सभी धर्मो में कुछ ना कुछ सत्य हैं ,ना केवल इस्लाम में"। 
हम यूँ कह सकते हैं की एक दौर था जिसमे दोनों धर्मो ने एक दूसरे के धर्मो  का अध्यन किया और उसके बाद जो धारणा निकली उसे शाह अब्बास के पत्रो में निम्न शब्दों में व्यक्त किया गया हैं-  
"किसी भी व्यक्ति को लोगो की धार्मिक भावना में हस्तक्षेप नही करना चाहिए क्यूंकि जानबूझकर कोई भी गलत धर्म स्वीकार नही करता हैं "

यहाँ धर्म का आशय दर्शन से था जो भक्ति पर आधारित था। भक्ति का मतलब निष्ठा से होता हैं  सन्यासी बनने या फिर कर्मकांड से नही। 

कट्टरता की तरफ बढ़ना 

दोनों धर्मो के बीच भक्ति काल में  सामंजस्य कायम हुआ, जो अकबर के काल में चरम पर पहुंचा। अकबर द्वारा अपने गयी उदार धार्मिक प्रवृतियों से मुस्लिम रूढ़िवादी नाराज हो गए। उनका मानना था की अकबर द्वारा अपने गयी उदार नीतियों के कारण इस्लाम की पवित्रता प्रदूषित हुई हैं जिसके कारण मुस्लिमो का राजनैतिक,सामाजिक और सांस्कृतिक पतन हुआ हैं। 
दरअसल अकबर ने धार्मिक सामंजस्य के लिए किया जो शायद ही अब कोई करेगा। इस काल में हिन्दुओ को ना केवल काफ़िर के दर्जे से हटाकर समानता का दर्जा दिया ,अपितु व्यवहार में भी सामंजस्य लाने की कोशिस की। उसने हिन्दुओ पर से जजिया नामक कर हटा लिया , उन्हें उच्च पदो पर नियुक्ति दी, कई हिन्दू त्यौहार और प्रथाओ को अपनाया, यहां तक की दरबार में तिलक लगाकर बैठ जाता था। इसके विपरीत इमामो का प्रभाव ख़त्म कर खुद को इस्लामिक कानूनो का सर्वोच्च निर्णायक घोषित कर दिया। अकबर की धार्मिक सामंजस्य की नीति मौलवियो को भड़काने के लिए पर्याप्त थी। उन्होंने अकबर के धार्मिक प्रयोगो पर जरा भी ध्यान नही दिया। 
शाहजहाँ का असली उत्त्तराधिकारी युवराज दारा शिकोह, अकबर की धार्मिक नीति का अनुसरण कर रहा था।  अब यह बात रूढ़िवादियों को हरगिज हजम नही हो सकती थी उत्तराधिकार के युद्ध में  इन्होने  औरंगज़ेब का साथ दिया ,जिसमे वह विजयी रहा और इस्लाम की उदार वाख्या के लिए दारा शिकोह को मृत्युदंड दिया गया। 
औरंगज़ेब कट्टर सुन्नी रूढ़िवादी था ,उसने सिक्को पर कलमा लिखवाना बंद करवा दिया क्यूंकि वो काफिरो के हाथ में पड़कर अपवित्र हो जाता था।मथुरा और वाराणसी के  हिन्दू मंदिरो को गिराया गया और मस्जिदे बनवाई गयी , हिन्दुओ पर जजिया, तीर्थ यात्रा कर, चुंगी कर लगा दिए , सरकारी पदो से हटा दिया , संस्कृत पाठशाला बंद करवा दिए ,इस्लाम ग्रहण करने के लिए लालच दिया, युद्ध बंदियों का धर्मांतरण करवा दिया, दिवाली पर बाजारों में रौशनी नही कर सकते थे और सड़को पर होली नही खेल सकते थे। ये सब औरंगज़ेब की करतुते थी , इनको हिन्दू कैसे भूल सकते थे। बदला नही ले सकते तो वैर तो पाल ही सकते हैं। 
जब ज्यादतियां घाव बन चुकी हो तो वे कैसे आदमी को  सोने दे सकती हैं। इसी परिपेक्ष्य में हम बाबरी मस्जिद विध्वंश को समझ सकते हैं, जो मंदिर को तोड़कर बनाया गया था और उसके जगह पर बनी मस्जिद उनके जख्मो को हरा करती थी। इसी दौरान ऐसे नारे लगे थे की "अभी अयोध्या की बारी है , काशी मथुरा बाकी हैं "  
इस तरह औरंगज़ेब ने हिन्दू कट्टरपंथियों के उदय का आधार छोड़ा था । औरंगज़ेब के बाद मुग़ल साम्राज्य का पतन हो गया और एक लम्बा समय राजनितिक अस्थिरता में बिता जब तक की अंग्रेजो ने पुरे भारत को काबू में नही कर लिया  

आधुनिक कट्टरता की नीव
आधुनिक कट्टरता की नीव अंग्रेजो ने डाली। १८५७ के विद्रोह में उन्होंने देखा था की हिन्दू और मुसलमान साथ-साथ लड़े थे और विद्रोह को चिंगारी भी धार्मिक भावनाओ के कारण ही मिली थी। अंग्रेजो को भारत की कमजोरी की नब्ज मिल चुकी थी। इसके बाद उन्होंने भारतीयों की राजनितिक मांगो की उपेक्षा की ,परन्तु धार्मिक मांगो को हमेशा गंभीरता से लिया। 
१८५७ के विद्रोह को उन्होंने अपना राज पुन: पाने के लिए मुस्लिमो के षड्यंत्र के रूप में देखा था, और उनका निर्ममता से दमन किया। अकेले दिल्ली में ही अट्ठाइश हजार मुसलमानो को क्रांति के बाद फांसी पर लटका दिया , अंतिम मुग़ल शासक बहादुर शाह के दो बेटो को नंगा करके गोली मारी गयी। जबकि हिन्दुओ को शिक्षा, सरकारी पदो में प्रोत्साहन दिया। शिक्षा के कारण हिन्दुओ ने जागरूकता हासिल की और उपनिवेशिक सरकार के नुकसानों के खिलाप आवाज उठाई। अब अंग्रेजो को मुसलमानो की याद आई। और कांग्रेस को हिन्दुओ की संस्था करार देकर मुस्लिमो के लिए अलग से संगठन बनवाया ,मुस्लिम लीग,जिसे बाद में जिन्ना ने  नेतृत्व प्रदान करके विभाजन रूपी परिणाम तक पहुँचाया।
मुस्लिम लीग को अंग्रेजो ने स्वतंत्रता आंदोलन को कमजोर करने के लिए आगे बढ़ाया। उनके तुष्टिकरण के लिए साम्प्रदायिक निर्वाचन क्षेत्रो का प्रावधान किया।  आगे इनकी मांग बढ़ती गयी, इक़बाल ने इलाहबाद में  मुस्लिम राज्य की बात की जो लाहौर प्रस्ताव से अलग देश में बदल गयी। 

कांग्रेस को लीग ने हमेशा ब्लैकमेल किया , कांग्रेस ने स्वतंत्रता आंदोलन में सहयोग की उम्मीद से लखनऊ पैक्ट में साम्प्रदायिक निर्वाचन को स्वीकार किया , खिलाफत आंदोलन में भाग लिया  और हमेशा सहयोग की उम्मीद रखी। पर राष्ट्रभक्ति जिन्ना के डीएनए में ही नही थी वह मरते दम तक सौदेबाजी करता रहा। 
जब मुस्लिम लीग का रवैया स्वतंत्रता आंदोलन में सहयोग नही करने, उसमे बाधा डालने, उसे धार्मिक रंग देने का बन गया। तो आरएसएस का उदय हुआ , जिसने इनकी मांगो का सीधा विरोध किया। हालांकि इन हिन्दू रूढ़िवादियों को भी अंग्रेजो ने  स्वतंत्रता आंदोलन में बाधक तत्व के रूप में देखकर आगे बढ़ाया था, पर इनका रुख देश को तोड़ने की अंग्रेजी राज की साजिशो के विरोध के रूप में ही रहा। इन्होने साम्प्रदायिक निर्वाचन, दलितों के लिए अलग क्षेत्रो का विरोध किया। और बिभाजन से पहले के दशक में इन्होने मुस्लिम लीग का जबरदस्त विरोध किया ,परन्तु मुस्लिम लीग और कांग्रेस दोनों ने अपनी राजनीति के आगे देशहित को बलि चढ़ा दिया और देश का रक्तरंजित विभाजन हो हुआ ।  

विभाजन 
देश आजाद हुआ साथ में विभाजन, दो देश बने जो कुछ समय बाद तीन हो गए। परन्तु यह वाकया   सवाल छोड़ गया की - देश का विभाजन किस आधार पर हुआ ?
पाकिस्तान में यह सिद्धांत काफी प्रचलित हैं की देश का विभाजन  दो कौमी नजरिया (2 Nation Theory) के तहत हुआ हैं। मतलब विभाजन का आधार धर्म रहा। यह बात उसको कश्मीर पर अपना पक्ष रखने में मजबूत बनाती हैं। साथ ही पाकिस्तान में घटती हिन्दुओ की आबादी को भी इसी सिद्धांत से न्यायोचित ठहराता हैं। परन्तु बांग्लादेश का बनना और बलोचिस्तान में चल रहा संघर्ष उसके इस दावे को कठघरे में खड़ा करता हैं। दूसरी तरफ भारत का धर्मनिरपेक्ष होना भी पाकिस्तान के अस्तित्व पर प्रश्नचिन्ह लगाता हैं। 

परन्तु दो कौमी नजरिया भारत स्वीकार नही करता , भारत का मानना हैं की अंग्रेजो ने  फुट डालो राज करो की नीति के तहत जिन्ना की मांग को ऐसी परिस्थिति में पहुंचा दिया, जिसने आखिर में व्यापक तौर पर लोगो के व्यक्तिगत टकराव की जमीन तैयार  कर दी। जिन्ना को कांग्रेस ने साइड लाइन करने  की भरपूर कोशिस की लेकिन अंग्रेजो ने उसे बराबर लाकर खड़ा कर दिया, जहाँ से पीछे लोटना असंभव था ,अंत  में उसने जिहाद की घोषणा की और डायरेक्ट एक्शन डे के नाम पर १६ अगस्त को बंगाल जैसी जगहों पर हाजरो लोग मरे। उन दंगो के और बढ़ने की आशंका थी , इसी आशंका में कांग्रेस ने विभाजन की बात मान ली।  

बाद में पाकिस्तान और बांग्लादेश ने अपने आपको  इस्लामिक राष्ट्र घोषित कर दिया, जिससे हिन्दुओ की आकांक्षाओं को सीमित कर दिया गया जबकि भारत ने अपने आपको पंथ-निरपेक्ष राष्ट्र घोषित किया और मुसलमानो को भी समान अवसर प्रदान किये।  
विभाजन और अधिकारों की व्यवस्था ने यह अहसास करवाया की विभाजन हिन्दुओ के साथ एक धोखा था। मुसलमानो को तीन देश मिल गए जबकि हिन्दुओ  को किसी  भी देश में स्वायत्तता नही मिली , पाकिस्तान और बांग्लादेश तो हिन्दुओ के लिए नरक समान हैं  परन्तु भारत में भी उनकी स्वायत्तता की सीमित कर दिया गया। भारत में वे गर्व से हिन्दू नही कह सकते, क्यूंकि साम्प्रदायिक होने का सर्टिफिकेट जो मिल जाएगा। अपने आध्यात्मिक चीजो पर दावा नही कर सकते, क्यूंकि राम के जन्म और राम सेतु के सबूत अदालत में पेश करने पड़ते हैं , राम मंदिर नही बना सकते ,हिन्दू संस्कृति का पोषण नही कर सकते। इन सब बातो ने उनमे कट्टरपंथिता का उदय किया। 

इसके अलावा धर्मनिरपेक्षता ने भी हिन्दुओ को निराश  किया क्यूंकि यह तुष्टिकरण का रूप ले चूका हैं , जिसे हिन्दू , छदम-इस्लाम (Pseudo-Islam) मानने लगे हैं। 

निष्कर्ष 

अत: हम कह सकते  हैं की कट्टरता राजनीति के कारण आती हैं और पोषित होती हैं। यह कार्य प्रतिक्रियावादी तत्वों द्वारा संपन्न होता हैं। इसलिए इसका समाधान भी तभी हो सकता हैं जब धर्म को राजनीति से पृथक कर दिया जाए। 

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