Survival Against The Fittest

survival against the fittest
डार्विन ने प्रकृति को ध्यान में रखते हुए सक्षमों की उत्तरजीवता का सिद्धांत दिया था। औधोगिक क्रांति के दौर में हर्बर्ट स्पेंसर ने इसे मानव समाजो पर भी लागू कर दिया। तो समाजवादी लोगो ने इसकी आलोचना की और अक्षमों को भी अस्तित्त्व के योग्य माना है। समय का पहिया घूमता रहा और केन्सवाद ने पूंजीवाद को मानवीय चेहरा दिलाकर फिर से मान्यता दिलाई। अब नव-उदारवाद का जमाना है जिसमे राज्य निजी क्षेत्रो को आज़ादी दे रहा है और अक्षमों को पाल भी रहा है। लेकिन इस जमाने में क्या ये दोनों साथ-साथ सफर तय कर पाएंगे। या फिर अक्षमों को अस्तित्व के लिए विशेष प्रयास करने होंगे। इस विषय को विभिन्न उदाहरणों की सहायता से समझने की कोशिश करते है। 

क्या अब भी कोई समाजवाद की तरह प्रासंगिक विचारधारा होगी जो यह कहेगी कि अक्षमों को भी अस्तित्त्व का गरिमापूर्ण हक़ है। क्या इस दौर में भी मार्क्स, लेनिन, माओ, कास्त्रो जैसे लोग होंगे। 

Issue of  Survival Against Fittest

पहला प्रश्न तो यह है कि क्या सक्षमों के विरुध्द उत्तरजीविता वास्तविक मुद्दा है या फिर अपवादों को सामान्यकरण किए जाने की कोशिश है। इसके अलावा सक्ष्मो के साथ उत्तरजीविता भी तो सिद्धांत हो सकता है जो की समाज में पाया जाता हो और उसकी संख्या भी ज्यादा हो। 

कुछ उदाहरण लेते है -
  1. आजकल बड़ी बहुराष्ट्रीय कम्पनिया देशो में खड़े होने वाले छोटे छोटे स्टार्टअप्स और छोटे प्लेयर्स का अधिग्रहण करती जा रही है। छोटी कम्पनिया बड़ी कम्पनियो के द्वारा दिए जाने वाले ऑफर्स के सामने उपभोक्ता के लिए वहनीय नहीं है। अत वे खुद का विलय करने को ही उचित समझती है। इन बड़ी कम्पनियो से टक्कर के लिए दूसरी कम्पनिया भी विलय करके बड़ी कम्पनिया बना रही है। इसके बाद कुछ ही प्लेयर मार्किट में रह जाएंगे या फिर एकाधिकार स्थापित हो जाएगा। उसके बाद उपभोक्ता के पास विकल्प कम हो जाएंगे और उसे महंगी दर पर भी सामान खरीदना पड़ेगा। यहां से लाभों का एकतरफा हस्तांतरण बड़ी कंपनियों की तरफ होगा। तब ये साम्राज्यों का रूप ग्रहण कर चुकी होगी और राजनितिक व्यवस्था को भी प्रभावित कर रही होगी। 
  2. सिविल सेवाओं की तैयारी कराने के लिए जो बड़े संस्थान है उनके पास बहुत सारा पैसा इकठ्ठा हो गया है। जिसकी बदौलत ये सभी क्षेत्रो में निवेश कर रहे है। जिसके कारण विकेद्रीकृत प्लेयर्स को टक्कर  मिल रही है। ये अपने लाभों को अधिकतम करने के लिए सभी क्षेत्रो में कूदना चाह रहे है। इससे नए प्लेयर्स का इस क्षेत्र में प्रवेश करने के बारे में सोचना भी असंभव है। 
  3. क्या हिंदी दूसरी बोलियों को खत्म कर रही है।
यहां से हम देख सकते है कि निजी क्षेत्र आपस की गलाकाट स्पर्द्धा में ही लगा हुआ है। वे कैसे अपने लाभों को अधिकतम करे। इसके लिए कैसे प्राकृतिक संसाधनों तक किफायती पहुंच हो,कैसे सेवा मानको में रियायत हो। इन सबके लिए मूक समर्थन देने वाली सरकारों की स्थापना हो। इन सब चीजों में निजी क्षेत्र लगा हुआ है। ऐसे में उनको सामाजिक न्याय के मुद्दे याद दिलाना बहुत ही गलत चीज है।

मतलब जो सक्षम है वो और अधिक सक्षम होता जा रहा है। वही औसत लोगो को इनसे कड़ी प्रतिस्पर्द्धा  मिल रही है। बाकी अक्षम लोगो की बात यहां पर अप्रासंगिक हो जाती है। 

Public Affairs in Corpoarte 

ऐसा भी नहीं है कि कॉर्पोरेट को लोगो की बिल्कुल भी परवाह नहीं है। हम जानते है कि अगर लोगो के पास खरीदने की क्षमता ही नई होगी तो कॉर्पोरेट का अस्तित्व कैसे रहेगा। इसलिए लोगो के पास आय की उच्च मात्रा हो यह तो वे चाहते है। लेकिन इसके लिए किसकी क्या जिम्मेदारी होगी इसको लेकर ही तो संशय की स्थिति है।
  1. कॉर्पोरेट का यह भी मानना है कि यह जिम्मेदारी वे क्यों ले। यह तो राज्य का काम है। इसलिए राज्य को ही इसका पालन करना चाहिए।  
  2. कॉर्पोरेट सोशल रिस्पांसिबिलिटी को अब वैधानिक अनिवार्यता बना दिया गया है। इसके लिए सभी निकायों को कुछ योगदान करना होता है। कई कॉर्पोरेट इसका उल्लंधन भी कर रहे है, जिससे दुसरो को भी यही लगता है की वे भी क्यों करे।  
  3. इसके अलावा एक और आयाम भी मौजूद है। जो जनसंख्या वृद्धि के आधार पर अपनी जिम्मेदारी से मुक्त हो जाता है। दरअसल भारत में आर्थिक विषमता के असंख्य स्तर मौजूद है। कोर्पोर्टे को लगता है कि जितनी उसकी उत्पादन क्षमता है उतने स्तर के पास क्रय शक्ति है। इसलिए बाकी लोग उपभोक्ता भी नहीं है। इसलिए उन पर खर्च क्यों किया जाए या फिर उनके हितो के लिए क्यों सोचा जाए। 
इस प्रकार कॉर्पोरेट की मनोवृत्ति  में हम असंवेदनशीलता की झलक देख सकते है। हालांकि यह उम्मीद ही बेमानी है। 

Survival With fittest

हम देख चुके है कि कॉर्पोरेट का लालच निम्नतरो की उत्तरजीविता में बाधक है। अगर कॉर्पोरेट पर अंकुश नहीं लगाया गया तो यह व्यवस्था अनवरत चलती रहेगी। अब इसके लिए निम्न प्रयास किए जा सकते है जिसके आधार पर हम श्रेष्ठो के साथ उत्तरजीविता के सिद्धांत की परिकल्पना कर सकते है। 
  1. हमे टैक्स हैवन की अवधारणा का विरोध करना होगा। कर अपवंचना से सख्ती से निपटना होगा। कर अनुपालन की संस्कृति विकसित करनी होगी। 
  2. कॉर्पोरेट रेस को रोकने के लिए हमे अधिक कर लगाना पड़ेगा। ताकि हम बिलेनियर की अवधारणा को हतोत्साहित करना होगा। 
  3. कॉर्पोरेट घराने की व्यवस्था भी न केवल अर्थव्यवस्था के लिए खरतनाक है बल्कि राजनितिक और सामाजिक तौर पर भी इसके कई नकारात्मक प्रभाव होंगे।
  4. प्राकृतिक संसाधनों के आवंटन में भी उचित नीति के निर्माण की जरुरत है। ताकि उसका दोहन किसी एक इकाई के हित में नहीं हो। 
  5. कॉर्पोरेट जगत के मूल्यों में बदलाव भी जरुरी है। मुनाफा रेस का कोई गंतव्य होना चाहिए। बिना गंतव्य के यह सफर सामाजिक और आर्थिक अन्याय का कारण बनेगा। 
शेर और बकरी के एक घाट पर पानी पीने की कहानी के समान यह अवधारणा है। जिसमे एक के दांतो की तीक्ष्णता को थोड़ा कम करना पड़ेगा वही दूसरे की खाल को मजबूत बनाना होगा। इस प्रकार एक तरफ कॉर्पोरेट पर अंकुश लगाना होगा , वही दूसरी तरफ निम्नतरो के लिए सुरक्षोपाय बढ़ाने होंगे।

खंड II

Force Survival - Life With fittest

हम यह मानकर चलते है कि सभी की उत्तरजीविता के लिए बाह्य समर्थन की जरूरत होती है। अगर हम जैसे-तैसे करके लोगो को बचा भी लेते है तो क्या होगा। क्या वे उस स्तर पर बने रहेंगे ? क्या उस स्तर पर भी प्रतिस्पर्द्धा उत्पन्न नहीं होगी। क्या फिर हम आगे के अस्तित्व के लिए फिर से हस्तक्षेप करेंगे। ये चक्र फिर तो चलता ही रहेगा, जब तक कि हम Theory of Internal Development  के अनुसार आगे नहीं बढ़ जाते।

अगर ऐसा है तो क्यों न हम, रेस की बजाय खुद के हस्तक्षेप को रोके। हमारे भूमिका को हम निष्पक्ष अंपायर की बनाये। हम जानते है कि सभी लोग समान रूप से कर्मठ, मेहनती तो नहीं होते। ऐसे में उन्हें कमजोर व्यक्तित्व के लोगो के लिए रोकना कहां तक सही हो सकता है। जो आलसी है वो तो फिर से नीचे आ जाएगा और जो मेहनती है वो फिर से ऊपर जाएगा। ऐसे में विभाजन तो प्राकृतिक पहलु है, इसलिए इसे स्वीकार करना ही पड़ेगा।

हाँ, हमे इतना जरूर ध्यान रखना है कि ये विभाजन अनैतिक या अनुचित साधनो के माध्यम से अर्जित नहीं किया जाए। आगे यह विभाजन दुसरो के अवसरों को ही खत्म नहीं कर दे। साथ ही समाज का आर्थिक विभाजन सांस्कृतिक विभाजन में नजर नहीं आये। लेकिन यह तो साथ में जुड़े होते है, इससे इंकार कैसे किया जा सकता है। जब ऊपरी वर्ग का आदमी नीचे के वर्ग को हिकारत, घृणा से देखता है। जब यह बात निम्न वर्ग के बुद्धिजीवी लोगो को खटकती है तो उनमे चेतना जाग्रत होती है। यहां से फिर उच्च वर्ग को चुनौती की जमीं तैयार होती है।

अब जो कॉर्पोरेट आपसी लाभ के लिए लड़ रहे थे, निम्नस्थ वर्ग के खिलाफ एकजुट हो जाते है। वे सरकार को प्रभावित करने में अधिक मजबूत स्थिति में होते है। वे निम्न तबके के आंदोलनों को कॉर्पोरेट मीडिया, बुद्दिजीवियो और नेताओ के गठबंधन के माध्यम से कुचल देते है। सबसे बड़ी बात तो यह है की इस चेतना का दमन करने के लिए लोगो को जाति, धर्म, भाषा के आधार पर बाँट देते है।

निम्नस्थ की प्रतिक्रिया को फिर प्रशासनिक आश्वासनों के नीचे दबा दिया जाता है। क्योकि समाधान तो इसी व्यवस्था के तहत होने होते है। कई बार निम्नस्थो की चेतना का दोहन करके कोई चुनावी नेता और निर्मित हो जाता है। उच्चस्थ और निम्नस्थो के बीच आपसी प्रतिक्रिया की अब लगभग यह संस्कृति बन गई है। अब एक ही उपाय बचता है कि आप भी पढाई,प्रतिभा,नौकरी के बल पर अपनी हैसियत को ऊंची करो। और इस विभेदकारी व्यवहार वाली व्यवस्था के पीड़ित होने से बच जाओ।

इसलिए अब समाधान के तोर पर लॉन्चिंग ही विकल्प उभरकर आता है। Launching of Individuals को हम पहले ही शक की दृष्टि  से देख चुके है। ऐसे में लॉन्चिंग के लिए दूसरे उपायों पर विचार किया जाना चाहिए। मतलब लांच होने की इच्छा की तीव्रता भी हर किसी में समान नहीं होती। इसलिए जिनकी इच्छा तीव्र है वे कही न कही से अपना प्लेटफार्म तलाश लेंगे। अगर हम थोड़ा सा उनका यहां पर सहयोग करे और उन्हें प्लेटफार्म की तलाश में मदद करे। तो फिर संघर्षो को किसी दूसरे लाभदायक जगह पर प्रयुक्त किया जा सकता है। 

1. Launching Will

लॉन्चिंग की चाहत की तीव्रता लोगो में भिन्न- भिन्न होती है। कोई हर कीमत पर लांच होना चाहता है, तो कोई थोड़े बहुत त्याग के साथ। कुछ लोग बिलकुल भी त्याग नहीं करना चाहते, वे अपनी निम्नस्थ हालत में भी सुकून तलाश लेते है। इलसिए निम्नस्थ स्तर वाले लोगो को ये विभाजनकारी समाज वाली व्यवस्था ज्यादा नहीं कचोटती है। वे बुरा बर्ताव भी अपनी किस्मत मानकर झेल लेते है। कई बार ये निम्नतरो के उच्च्तरो पर चुटकले सुनकर खुश रहते है। 

यह इच्छा उन लोगो में ज्यादा होती है जिनमे स्वाभिमान, आत्म सम्मान जैसे गुणों का समावेश किसी माध्यम से प्रवेश करता है। अब वे अपने इन मूल्यों की प्राप्ति के लिए संघर्ष करके आगे बढ़ना चाहते है। लोगो को गरिमामय जीवन का महत्व समझा कर आगे बढ़ने की चेतना जाग्रत करना यहां पर जरूरी हो जाता है। 

2. Bridging the Will Gap

एक तरफ कॉर्पोरेट की इच्छा आगे बढ़ने की है वही निम्नतरो की केवल अस्तित्व बनाये रखने की है। ऐसे में यह सवाल उठता है कि इच्छाओ के इस अंतराल को हम कैसे देखे - सकारात्मक या नकारत्मक। सीधी सी बात है सकारात्मक रूप में ही देखेंगे। 

3. Options of Minimum Launching 

हम सभी जानते है कि निर्धनता जाल किसी परिवार की लॉन्चिंग में बाधा है। इसलिए हमे उन चीजों की उपलब्धता सभी के लिए बढ़ा देनी चाहिए जो निर्धनता जाल को तोड़ने के लिए जरूरी होती है। अब सरकार इनकी उपलब्धता, गुणवत्ता बढ़ा रही है।

4. People Without Launching

कई बार आदमी लॉन्चिंग के प्रयास करने के बाद भी कक्षा में परिवर्तन करने में विफल रहता है। ऐसे में हताशा, निराशा जैसे विकार उसे घर कर जाते है। वह अपनी बाकी जीवन भी आवश्यकताओ की पूर्ति के लिए अभावो से जूझता रहता है। इस वजह से उसकी सक्रिय नागरिकता में भी कमी आती है। जिसकी वजह से रुग्ण राजनीती का भी चक्र कायम रहता है।

5. Lessions for Launching At All

बिल गेट्स का मानना है कि आप गरीबी में जन्म लेते है ये आपकी गलती नहीं है, लेकिन अगर आप गरीबी में मर जाते है तो आप निश्चित तौर पर अपराधी है। इसलिए हमे अपनी परिस्थिति को बदलने का प्रयास हर हाल में करना चाहिए। साधन की पवित्रता से समझौता अगर निचली कक्षा से आगे बढ़ने के लिए किया जाए तो उसमे ज्यादा बुराई नहीं है। चूँकि निचले स्तर पर अनैतिक कदम के दुष्परिणाम नगण्य होंगे। जिन्हे सकारात्मक परिणाम के कारण आसानी से स्वीकार कर लिया जाएगा।    

इस प्रकार हमने निम्नतरो की दयनीय हालत को सुधारने के मार्ग का अवलोकन किया और इस मार्ग में मौजूद रुकावटों को हटाने के लिए उठाये जाने वाले कदमो पर भी विचार किया।

खंड III

Absent of Mission Against Distortions

जब उन्नीसवीं सदी में औधोगिक क्रांति के बाद समाज में असमानता फैली और उसकी वजह से जो विसंगतिया उत्पन्न हुई, उनका विभिन्न विचारको ने पुरजोर विरोध किया। जिनमे मार्क्स के विचारो से आगे बढ़ा समजवादी आंदोलन प्रमुख था। वर्तमान में औधोगिक क्रांति का चतुर्थ चरण चल रहा है लेकिन अब कोई भी इसके द्वारा निर्मित विसंगतियों का विरोध कर रहा है। इतना तो स्पष्ट हो गया है कि आज की विसंगतियों को पुराना समाजवादी आंदोलन सम्बोधित नहीं करता है। अब सवाल उठता है कि  क्या इस दौर में मार्क्स, लेनिन, माओ, कास्त्रो जैसे लोग नहीं रहे।

बहुत हद तक कहा जा सकता है कि बाजारवाद ने जिस हद तक व्यक्तिवाद को आगे बढ़ाया है कि अब कोई भी आदमी समाज के बारे में सोचने और करने के लिए खुद के हितो को दांव पर नहीं लगा सकता। अब आदमी में पहले के समान धैर्य भी नहीं रहा, जो दीर्घकालीन संघर्ष की सोचे। इसके अलावा कॉर्पोरेट यह स्थापित करता है कि समाज के लिए सोचना और करना भी एक बिज़नेस है। इस  वजह से भी लोग सामाजिक सरोकारों से कट रहे है। कुछ लोग सामाजिक सरोकारों को केवल चुनावी राजनीती की विषयवस्तु मानता है। ऐसे में अब निम्नतरो के हितो के संरक्षण के लिए दबाव समूहों का अभाव महत्वपूर्ण मुद्दा बनता जा रहा है।

अत: ऐसे लोगो को आगे बढ़ाना चाहिए जो समाजिक विसंगतियों के विरोध को मिशन के तौर पर लेकर उन्हें न्यून करने के लिए सरकार के साथ संवाद कर सके।
खंड IV

Trends of Survival Efforts

शुरुआती पूंजीवाद ने अक्षमों के खिलाफ नकारात्मक रुख अपनाया, जिसकी बदौलत लोगो में वर्गीय चेतना का संचार जल्दी से हो गया। आगे जब केन्सवाद आ गया तो राज्यों ने पब्लिक आक्रोश के सामने खुद को बचा लिया। लेकिन अब नवउदारवाद के चरण में राज्य पर जनकल्याणकारी कार्यक्रमों से हटने का भारी दबाव है। लेकिन निजी क्षेत्र की भूमिका भी प्रोत्साहन योग्य नहीं है। इसलिए अब नागरिको को सरकार के अटेंशन से वंचित रहना पड़ेगा। लेकिन प्रशासन के पास लोगो तक पहुंचने की क्षमता में इजाफा हुआ है। इसलिए निम्नतरो के हितो को आगे बढ़ाने वाले संस्थानों को आगे करने की जरूरत है।

कई जगह पर कॉर्पोरेट भी कल्याण के कार्यक्रम चला रहा है इसलिए अब उसे सीधे आरोपी नहीं ठहरा  सकते। इस वजह से मामले में जटिलता बढ़ गई है।

Conclusion :

सक्षमों के खिलाफ उत्तरजीविता के लिए हमने यहां पर प्रयासों की आवश्यकता महसूस की। जिस प्रकार शेर और बकरी के विभाजन प्राकृतिक है, जिसमे एक का सृजन ही दूसरे के किसी न किसी निर्भरता को ध्यान में रखकर किया गया है। उसी प्रकार सक्षम और अक्षमों की उपस्थिति भी दुनिया के संचालन के लिए निर्मित की गई व्यवस्था के हिस्से है। इसलिए हम इस विभाजन को समाप्त नहीं कर सकते। हमारी आपत्ति सिर्फ इस विभाजन के असंतुलन को लेकर हो सकती है।  

Tracing MODI-fied India

जब मोदी प्रधानमंत्री बने थे तब यह प्रोपेगेंडा चलाया गया था कि उनके पास गुजरात में प्रशासन चलाने का लम्बा  अनुभव केंद्र में भी काम आएगा। लेकिन अब स्पष्ट हो गया है कि ज्यादा अनुभव वाला आदमी भी सही नहीं रहता क्योकि उसके अंदर सिस्टम को नजरअंदाज करने की क्षमता आ जाती है। सरकार ने इस समय देश के सभी उच्च शीर्ष संस्थानों की हालत खराब कर रखी है। सभी संस्थाओ पर केंद्र सरकार का भारी दबाव है। मोदी सरकार उन्हें अपने निर्देशो के अनुसार चलाना चाह रही है।

इस आलेख में हम दो भागो में आगे बढ़ते है। पहले भाग में हम उच्च अफसरों के साथ सरकार कैसा व्यवहार कर रही है, के बारे में होगा। वही दूसरे भाग में संस्थानों की हालत कैसे ख़राब कर रखी है, के बारे में विचार करेंगे। 

दादागिरी करने वाले लोगो की एक लोकप्रिय कहावत है कि या तो आप हमारे साथ है या फिर हमारे खिलाफ, बीच में रहकर सत्यनिष्टा दिखाने की कोई गुंजाईश नहीं है। यहां पर भी इसी रणनीति का अनुसरण किया जा रहा है। जो अफसर सरकार के एजेंडे को बिना प्रश्न किए जैसे-तैसे आगे बढ़ा रहे है, वे सर्वाइव कर रहे है। बाकी लोगो को प्रताड़ित या उपेक्षित किया जा रहा है।   
  1. इस सरकार को शुरू में देश के बेहतरीन लोगो का साथ मिला था, जो अपने अपने फील्ड में ख्यातिप्राप्त थे। लेकिन इस सरकार के एजेंडे को भांपकर सभी लोग भाग खड़े हुए। आर्थिक क्षेत्र में सबसे ज्यादा ब्रेन ड्रेन मोदी के काल मे हुआ। रघुराम राजन चले गए, अरविंद सुब्रह्मण्यम, अरविंद पनगड़िया चले गए। अर्थशास्त्रियों में केवल विवेक देवराय इनके साथ है।
  2. अच्छे अच्छे अफसरों को इन्होंने लांछन लगाकर बर्खास्त कर दिया। जब भी किसी अफसर को हटाया गया। भाजपा के आईटी सेल ने उन्हें बदनाम करके रख दिया। विदेश सचिव निरुपमा और रघुराम राजन के उदाहरण सामने है।
  3. कई अफसरों को मोदी जी ने व्यक्तिगत प्रतिशोध का निशाना बनाया , जिसमे संजीव भट्ट शामिल है जिसने गुजरात दंगो पर मोदी को आरोपी ठहराने वाले अवधारणाएँ सामने रखी थी।
  4. जिन लोगो ने आने पर निकालने की कोशिश की, उनको कोपभाजन सहना पड़ा। इनमे पुराने रेलमंत्री गोडा और हरड़ मंत्री स्मृति ईरानी का नाम शामिल है। 
  5. अफसरों की बलि भी अपने संकीर्ण हितों को पूरा करने के लिए दी गई। देवयानी खोबरागड़े को अमेरिका से रिश्ते सुधारने के लिए उपेक्षित किया गया। अब बैंकिंग लॉबी के दबाव में उर्जित पटेल भी बलि का बकरा बन सकते है।
  6. उनकी जगह पर जो लोग लाये गए। उनके कद छोटे रखे गए ताकि उन्हें अपने व्यक्तित्व का मातहत बनाया जा सके। राष्ट्रपति के पद पर निर्वाचन भी इसी रणनीति का हिस्सा है। उर्जित पटेल ने नोटबन्दी के समय समर्पण कर दिया था। ओपी रावत ने राजस्थान के चुनावों की घोषणा में देरी की ताकि मोदी की सभा पूरी हो सके।
  7. कई पदाधिकारी यो ने मोदी को फायदे वाले काम किए। उन्हें दूसरे उच्च पद देकर सम्मानित किया। जिनमे 2G scam की अवधारणा बुनने वाले विनोद रॉय को बैंक बोर्ड ब्यूरो का चेयरमैन बनाया गया। सुप्रीम कोर्ट के पूर्व मुख्य न्यायाधीश पी सदाशिवम को केरल का राज्यपाल बनाकर भेजना भी इसी तरह की दुर्गंध के संकेत देता है।
  8. केंद्र में गुजरात कैडर और आरएसएस की विचारधारा के व्यक्तियों का जमावड़ा कर दिया गया। उन्हें श्रेष्ठ पद दिए गए। हसमुख अधिया उनमे प्रमुख नाम है।
  9. कुछ अफसरों के प्रति मोदी का विशेष स्नेह रहा। इनमे पहला नाम तो अजित डोवाल का है। जिसका कद एक मंत्री से भी ऊपर है। राजीव महर्षि भी वित्त सचिव, गृह सचिव रहे। उन्हें सेवा विस्तार मिला और उसके बाद कैग जैसे महत्वपूर्ण पद पर बिठा दिया गया।
मतलब मोदी सरकार में पद पाने के लिए मोदी भक्त होना प्राथमिक और अनिवार्य योग्यता है। इस योग्यता को धारण करने के बाद आप साहेब की असीम कृपा का लाभ प्राप्त करोगे।


संस्थाओ की विकलांग स्थिति
इस समय सारी संस्थाए विकलांग व्यक्ति के समान कर दी गई है। किसी संस्था के पास बजट नही है, तो किसी के पास स्टाफ नही है।

नियुक्तियों को अटकाना :
जब किसी संस्था में स्टाफ ही नही होगा तो वे कैसे काम करेगी। ये सब ऐसे संस्थान है जो सरकार को जवाबदेह बनाते है। 
  1. भ्रष्टाचार की जांच के लिए लोकपाल नियुक्त करने का कानून बने लगभग चार साल हो गए है। लेकिन अभी भी उसकी नियुक्ति नही हुई है। दरअसल लोकपाल के दायरे में प्रधानमंत्री को भी रखा गया है, अब PM के खिलाफ वह टिप्पणी करेगा तो मोदी की छवि का विश्लेषण करने का जनता को मौका मिलेगा। मोदी ने इसका अवसर ही जनता को नही दिया। बात को कानून में संशोधन पर फंसा दिया (explain in comment)
  2. जिन संस्थाओ में अध्यक्ष के अलावा कुछ सदस्य होते है। उनमें आधे सदस्यों की नियुक्ति ही नही की जाती। कुछ सदस्य उसमे विपरीत विचारधारा के नियुक्त कर दे रहे है ताकि वे आपस मे ही उलझे रहे। RBI में अभी ऐसे सदस्य घुसा दिए गए है।
  3. न्यायालयो में नियुक्तियो के आग्रह को ठुकराना भी इनका काम रहा है। CJI टीएस ठाकुर ने इनके सामने जजो की नियुक्ति को नही अटकाने का आग्रह करते हुए आंसू छलकाए थे, जिसका इन पर कोई असर नही हुआ। अल्फोंस की नियुक्ति को दोबारा भेजने पर स्वीकृति दी थी क्योंकि उसने उत्तराखंड में इनके विपरीत निर्णय दिया था।
  4. अयोग्य व्यक्तियों को नियुक्त किया जा रहा है। FTII पुणे में गजेंद्र चौहान को नियुक्त कर दिया। लम्बे विरोध के बाद अनुपम खेर को नियुक्त किया गया, जिसने भी इस्तीफा दे दिया।

कार्यप्रणाली में हस्तक्षेप :
कई संस्थानों की कार्यप्रणाली में हस्तक्षेप किया। फ़िल्म सर्टिफिकेशन बोर्ड को सेंसर बोर्ड बना दिया। पहलाज निहलानी ने इस मामले में बड़ी कुख्याती पाई। रिज़र्व बैंक में हस्तक्षेप किया जा रहा है। रघुराम राजन के स्वतंत्र व्यक्तित्व और विचारों के कारण ये उससे डरते रहे। लेकिन उर्जित पटेल को अंधेरे में रखकर नोटबन्दी कर दी। अब तो उसने भी ज्यादा हस्तक्षेप करने पर इस्तीफे की धमकी दी है।

संस्थाओ में टकराव :
सीबीआई और आईबी जैसी संस्थाओ में टकराव की स्थिति पैदा करने में मोदी जी को पुरानी महारत हासिल है। अभी सीबीआई डायरेक्टरो के बीच मामले में इसे देखा जा सकता है। कामकाज में भी दबाव बनाकर असंवेधानिक कार्य किए जा रहे है या फिर कानूनी लूपहोल का फायदा उठाया जा रहा है।

कानूनी दुर्बलता के प्रयास :
कई संस्थानों की शक्ति तो बाकायदा कानून लाकर कम कर दी गई। इस मामले में रिज़र्व बैंक सरकार को सर्वाधिक खटका जिससे बहुत सारी शक्तिया वापस ली गई। सुचना आयोग का भी यही हाल है। 

आगे क्या :
कुल मिलाकर बात यह है कि अफसरों और संस्थाओ को दबाव में रखकर काम करवाया जा रहा है। ये सब काम सिर्फ पूंजीपतियों के फायदे के लिए किया जा रहा है। जबकि संस्थान वंचित वर्ग के हितों की रक्षा के लिए खड़े होते है। ऐसे में गरीबो के हितों की कीमत पर बिजनेसमैन को खड़ा करने में मोदी सरकार तन मन धन से लगी हुई है।
जनमत को भी इसकी निंदा करनी चाहिए। अफसरों को अपनी सत्यनिष्ठा पर अडिग रहना चाहिए। तब जाकर हो सकता है हम संस्थानों को उन उद्देश्यो पर कार्यरत देख सके, जिनके लिए उन्हें स्थापित किया गया था।

Conclusion :
जब इंदिरा गांधी प्रधानमंत्री थी तो india is indira, indira is india का नारा दिया गया। मतलब जो इंदिरा ने कर दिया वही सही है, कही से विरोधी स्वर निकलने की गुंजाईश ही नहीं थी। अब मोदी जी भी उसी रवैये पर चल रहे है जो मानते है कि अब india MODIfied हो चुका है, जिसमे मोदी जी ने जो कह दिया वो ही सही होगा। हालांकि हम सब जानते है कि अहंकार किसी को भी नही पचता। हमारे अंदर दूसरे संस्थानों और व्यक्तियों की उपस्थिति को लेकर सम्मान होना चाहिए।

Theory of Internal Interference

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जैसा की हमने व्यक्ति के भौतिक विकास के लिए बाहरी हस्तक्षेप की अवधारणा (Theory of Individual Interference) देखी थी। उसमे हमने पाया था की आदमी के भौतिक विकास को अगर संधारणीय बनाना है तो हमे उसके मानसिक विकास (Internal Development ) पर भी ध्यान देना होगा। इसके लिए हमे उसके व्यक्तित्व विकास (Persoanality Development के क्षेत्र में कार्य करना होगा। इसके आधार पर हम उसे ज्यादा मजबूत कर सकते है अपने बलबूते पर ही खुद को खड़ा करने के लिए। व्यक्तित्व का विकास बेहद ही जरूरी हो जाता है। जिसमे शामिल किए जाने वाले बिन्दुओ का हम यहां पर अध्ययन करेंगे।

व्यक्तित्व विकास के लिए व्यक्ति के आंतरिक पटल में हस्तक्षेप करना होगा। हम जानते है यह कार्य परिवार, समाज और विद्यालय के माध्यम से किया जाता है। जो व्यक्ति की समाजीकरण प्रकिया का हिस्सा रहता है। बाद में किताबो,साथियो के माध्यम से भी यह निर्धारित होता है। लेकिन जो लोग इन सभी चीजों के त्रुटिपूर्ण स्वरूपों के सम्पर्क में रहे है, उनके व्यक्तित्व के विकास में भी त्रुटि होगी। वही भोले और सीधे समाज के द्वारा सीधे सादे व्यक्तित्व का विकास होगा। इसके विपरीत जिस समाज में हमेशा बिज़नेस की बाते होती है , वहां के बच्चो में भी यह बिज़नेस भावना व्यक्तित्व का हिस्सा बन जायेगी। इस तरह व्यक्तित्व हमारे मनोवृत्ति को दिशा देता है। जिसके आधार पर हमारे आचरण में अपनी स्थिति सुधारने के लिए किए जाने वाले प्रयासों की तीव्रता शामिल होती है।

व्यक्तित्व विकास में निम्न चीजे शामिल हो सकती है - नैतिक मूल्य आदि। अब इनका हम पृथक-पृथक अध्ययन करते है।

खंड I  नैतिक विकास  

नैतिक विकास आदमी के विकास से सीधा जुड़ा हुआ है। हम देखते है कि गरीब आदमी में नैतिक मूल्यों के प्रति समर्पण ज्यादा होता है। वही जैसे-जैसे यह स्तर बढ़ता जाता है ,नैतिकता का स्तर भी कम होता जाता है। इसके लिए हमे इस नैतिक अंतराल की खाई पर सेतु निर्मित करना होगा। इसके लिए हमे यह देखना होगा कि लोगो के विकास को नैतिक मूल्यों ने किस प्रकार प्रभावित किया है। वे किस प्रकार उसके विकास में बाधा बन रहे है। फिर उन्हें किस तरीके से अपडेट किया जाए। साथ ही इस कर्म में वे कही अनैतिक नहीं बन जाए। इसका भी ध्यान रखना है।

वर्तमान की नैतिकता का मूल्यांकन
वर्तमान में हमारा नैतिकता का दायरा बहुत भोला है। जिसमे छोटी-छोटी खामियों को भी अनैतिक मान लिया जाता है। यह लोगो के एम्पोवेर्मेंट में रुकावट के रूप में उभर कर सामने आती है। लोगो को सक्रिय नागरिक बनने से रोकती है। इसका कारण यह है कि हमारे पूर्वज भी हमारे सामने भोली नैतिकता को मानदंड बनाकर चले गए।

हमे गांधी की बजाय तिलक की नैतिकता की जरूरत थी। जिसमे अपने हक़ के लिए कोई परीक्षा नही देनी पड़ती थी। जबकि गाँधीजी आग्रह पर आधारित थी। आग्रह को ठुकराना कभी भी अनैतिक नही रहा। आज के प्रशासन ने यह तक कर दिया कि आपको आग्रह करने के लिए भी अनुमति की आवश्यकता होगी। अतः गाँधीजी की नैतिकता युग के हिसाब से सही नही थी। आज के युग मे गाँधीजी अप्रभावी है। मतलब जनता के लिए गाँधीजी का संघर्ष व्यर्थ चला गया। सारे सँघर्ष को नेताओ ने भुना लिया।
Question : गांधीजी आज के समय में अप्रभावी है। वह उस समय भी अप्रासंगिक ही थे। फिर किन कारणों ने गाँधी की सफलता सुनिश्चित की। विश्लेषण करो।  
हम इतना जानते है कि गांधी जी की नैतिकता दीर्घकाल में लाभ देती है। आम आदमी रोटी, कपड़े और मकान को दीर्घकाल के लिए नहीं छोड़ सकता है। यह नैतिकता केवल राज्य या फिर संगठनों के लिए फायदेमंद हो सकती है। लोग आजीविका का भी संचार नही कर पा रहे। इतने ज्यादा भोले भी नही होना चाहिए। अब इन्हें कैसे सजग करे। यह मुद्दा है।

नैतिकता में बदलाव का रोडमैप 
हमारी मौजूदा नैतिकता बहुत ही ज्यादा भोलेपन पर आधारित है। इसमें लोगो को छोटी -छोटी चीजों के  प्रति भी रोक दिया जाता है। इसे हमे अधिकार आधारित तो कम से कम बनाना ही चाहिए।
  1. भारतीय मूल्य व्यवस्था या संस्कृति में कुछ खामिया है, जो कि अपने परिवार, मित्रो और रिश्तेदारों को ज्यादा महत्व देती है। उनके लिए हम योग्यता, प्रतिभा, निष्पक्षता और व्यापक भलाई की हत्या करने को भी तैयार रहते है। यही वजह है कि कुछ उद्धमि आते ही सफलता प्राप्त करने लग जाते है।
  2. हमारी नैतिकता समाज द्वारा निर्धारित होती है। अगर हमने समाज के बंधन तोड़ दिए तो इस नैतिकता से भी मुक्त हो जाएंगे। इसके बाद चतुर लोगो की नैतकता को अंगीकार कर लेंगे। हो सकता है जिसके बाद सामाजिक -आर्थिक स्थिति में सुधार हो जाए। 
यह नैतिकता में बदलाव का प्रयास नहीं है बल्कि नैतिकता के परिष्करण की कोशिश है। जो कि समय के अनुसार बदलती रहती है। इसलिए इसको वर्तमान में भी अद्यतन करना कोई गलत बात नहीं है। 

खंड II  व्यक्तित्व विकास  

नैतिक मूल्यों के दायरे का निर्धारण करने के बाद हमे विभिन्न क्षेत्रो का विश्लेषण करना चाहिए। किस क्षेत्र में कोनसा कार्य उत्पादक साबित हो सकता है।इसके अलावा इसमें यह चीज भी प्रदान करने की आवश्यकता होगी कि किस तरह से वे खुद को इस गला काट स्पर्द्धा  वाली दुनिया में टिकाये रख सकेंगे।

इसके लिए कुछ क्षेत्रो के बारे में संकेत किया जा सकता है -
  1. लोगो में पुलिस से डील करने का आत्मविश्वास नहीं है। जैसे ही सामना होता है तो लोग उससे लड़ने पे उतारू हो जाते है। वे उसे ट्रबल मेकर समझते है। हमे लोगो को कानूनों के बारे में स्कूल स्तर पर बताकर अनुपालन संस्कृति की शुरुआत करनी चाहिए।
  2. लोगो को सरकारी योजनाओ के लाभ लेने में भी दिक्कत का सामना करना पड़ता है। इसलिए उनमे अधिकार आधारित मूल्यों को बिठाया जाना चाहिए। 
  3. सरकार से डील करने में ही नहीं लोगो को निजी क्षेत्र के लोगो, किसी व्यक्तिगत आदमी से डील करने के लिए भी एम्पावरमेंट करने की जरूरत है। इसलिए निजी जिंदगी हेतु भी कौशल इसमें शामिल है।  
इन सभी चीजों को स्कूलों के पाठ्यक्रम का हिस्सा बनाया जाना चाहिए। जिनमे अध्ययन के अलावा संबंधित विभाग के अधिकारियो को भेजकर व्यवहारिक प्रयोग दिखाना भी चाहिए। तब जाकर ये चीजे बच्चो के मूल्यों का हिस्सा बनकर उनके आचरण में उजागर होगी। 

खंड III  Theory Analysis  

अब हम वापस से आदमी के विकास में इस सिद्धांत के योगदान के मूल्यांकन पर आ जाते है। 
व्यक्ति का आंतरिक विकास उसके भौतिक विकास को टिकाऊ बनाता है। जिसकी बदौलत वह उसे संधारणीय बनाये रख सकता है। विकास पर ध्यान देते वक्त यह भी बहुत ही अनिवार्य पहलु है।  

लेकिन नकारात्मक पहलू की बात की जाए तो वो यह हो सकता है कि लोगो का एक सीमा से नीचे के कामो के प्रति मोहभंग हो सकता है। या फिर लोगो में कामो के चयन के प्रति विशिष्टता विकसित हो सकती है। तब हमे जरूरी लेकिन निम्न दर्जे के कामो को स्वयं करना होगा ,यह इस चीज का फायदा हो सकता है कि इससे दलित संकल्पना की समाप्ति हो जाए। इसके बाद अन्य निम्न स्तरीय कार्यो में भी लोगो की भागीदारी हेय दृष्टि से नहीं देखी जायेगी और उनके साथ गरिमापूर्ण व्यवहार किया जाएगा। 

इस प्रकार इस सिद्धांत के फायदे और नुकसान की सीमा अधिव्याप्त है। जहां हम नुकसान खोजने जाते है वही पर हमे कुछ फायदा मिल जाता है। 

निष्कर्ष :
व्यक्ति के आंतरिक विकास के लक्ष्यों की प्राप्ति के बाद हम मुख्यधारा का आदमी प्राप्त कर सकते है। हालांकि यह मुख्यधारा की अवधारणा भी परतीय(Layered)है लेकिन कम से कम यहां से उसकी शुरुआत भी होती है तो भी घाटे का सौदा नहीं है। उसके बाद यह वर्ग उपभोगवादी वर्ग में शामिल हो जाएगा। जिससे यह मार्केट के अनुसार खुद को ढलने में सक्षम होगा। अत: ऐसा करके हम लोकतान्त्रिक मूल्यों की स्थापना में आर्थिक न्याय की पहली सीढ़ी को प्राप्त कर लेंगे। बाकी प्रकार के न्याय लगातार हलने वाले प्रक्रम होते है, जिनके प्रति अनुकूलन यही से विकसित होगा। इसके बाद अगर कोई छल-कपट करके भी आगे बढ़ेगा तो अनैतिक नहीं समझा जाएगा, यही माना जाएगा कि उसने समान समझ के लोगो के मध्य उच्च कोटि की चालाकी की प्रदर्शन किया। 

After the Launching of Individuals

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जैसा कि हम सोचते है कि अगर आदमियों को निम्न कक्षा से उच्च कक्षा में एक बार लांच कर दिया तो उसके बाद वह लाचार स्थिति से निकल जाएगा। वह अगली कक्षा में अधिक बेहतर स्थिति का आनंद  उठा सकेगा। उसके बाद वह इस चक्र से निकल जाएगा। लेकिन दूसरी आशंका सामने आ जाती है कि वह अगर अपनी कक्षा में और इजाफा करना चाहे तो क्या उसकी मदद की जानी चाहिए या नहीं। अगर इस तरह मदद करेंगे तो कक्षाओं का स्तरण तो आगे भी समान प्रकार से जारी रहेगा और राज्य कहां तक मदद करेगा। कोई सीमा भी तो होगी। क्या भौतिक चीजों की उपलब्धता बढ़ाकर किया गया कक्षा में इजाफा टिकाऊ होगा या फिर भौतिक चीजों की प्राप्ति ही आदमी का मकसद होता है।  ये सब प्रश्न विचार करने के योग्य है। जिन पर आगे हम विचार करते है।

कक्षा के स्थानांतरण से जुडी Theory of Individual Interference में निम्न बाते उभर कर सामने आती है -

1. कक्षा के स्थानांतरण में बाहरी समर्थन की आवश्यकता के पात्र कोन होंगे ? 
इस प्रश्न का सीधा सा जवाब है कि निम्न वर्ग को ही केवल सरकारी हस्तक्षेप का लाभ मिलना चाहिए। जिसके माध्यम से ये निम्न-मध्यम वर्ग में प्रवेश कर सके। या फिर मध्यम वर्ग में पहुंचने का सामर्थ्य प्राप्त कर सके। लेकिन यहां पर एक प्रश्न खड़ा होता है कि निम्न वर्ग हस्तक्षेप के माध्यम से ऊपरी वर्ग में पहुंचते वक्त निम्न-मध्यम वर्ग को पीछे छोड़ देता है तो उसको कैसे न्योचित ठहराया जाएगा। निम्न वर्ग को निम्न -मध्यम वर्ग में पहुंचाने के लिए क्या मानदंड उसकी योग्यता के निर्धारण में प्रयुक्त किए जाएंगे। दूसरी तरफ यह वर्ग हस्तक्षेप के माध्यम से उस वर्ग के समकक्ष पहुंच जाएगा जो उस समय tax का भुगतान कर रहा होगा। इसके बाद वह इस वर्ग को भी चुनौती देगा, जो क्या इसे स्वीकार्य होगा। इस प्रकार सिद्धांत तो आकर्षक लगता है। लेकिन इसकी डिज़ाइन जटिल होगी और कई तरह की प्रशासनिक जटिलताओं को शामिल करके मौजूदा हस्तक्षेपों के समकक्ष ही पहुंच जायेगी। और आखिर में पूरा सिद्धांत अप्रभावी साबित होगा। 

2. मध्यम वर्ग की भी अपनी मांगो का होना 
वही निम्न वर्ग को प्रगति करते हुए देखने वाला मध्यम वर्ग उस समय क्या चुप थोड़ी रहेगा। वह भी अपने लिए उच्चतर कक्षा में पहुंचने के लिए हस्तक्षेपों की मांग करेगा। इससे आगे उच्च वर्ग भी इसी तरह की मांग समान समय पर करेंगे। वोटबैंक की राजनीती किसी भी वर्ग को नाराज रहने का मौका नहीं देना चाहेगी। वह इन सबको लॉन्चिंग के लिए ड्राइव प्रदान करेगी। जिसकी वजह से संसाधन किसी एक वर्ग के लिए संकीर्ण हो जाएंगे। जिससे उद्देश्य की प्राप्ति समय लेगी। वही ऊपरी वर्गो की भी समान समय पर उच्च स्तर में जाने की मांग असमानता को और अधिक बढ़ा देगी। इससे उद्देश्य प्राप्ति अप्रभावी होना तय है। अगर एक उद्देश्य को प्राप्त करेंगे, उस समय पर जाकर अभावो की दूसरी खाई मौजूद मिलेगी और पुराणी प्रगति इस समय पर आकर अप्रभावी लगना तय है।

3. सरकारी हस्तक्षेप के लिए बुनियादी मापदंड 
यहां से एक बात तो स्पष्ट हो जाती है कि कक्षाओं की उपस्थिति एक कटु सत्य है। हम कभी भी एक देश एक कक्षा के उद्देश्य को प्राप्त नहीं कर सकते। ऐसे में निम्न कक्षाओं के लिए ऊपर की कक्षा में जाने का सपना हमेशा मन में बना रहेगा। वह अपनी इसी आकांशा के साथ जीवन व्यतीत कर देगा। लेकिन हमने देखा कि जो जिंदगी निम्न वाले के लिए आदर्श है वह मध्यम वाले के लिए नीरस है और वह आगे उच्च की जिंदगी को आदर्श मानेगा। ऐसे में संतुष्टि का प्रश्न सामने आ जाता है कि ऐसी क्या बुनियादी चीजे हो जिनके बाद आदमी के जीवन को सरकारी हस्तक्षेप की आवश्यकता नहीं रहे। इसके लिए उसके उच्च वर्ग में पहुंचने के लिए आवश्यक कौशल को प्राप्त करने में लगने वाले संसाधनों को आधार बनाया जाना चाहिए। 

4. संसाधनों का जमावड़ा करने की होड़ 
इसके अलावा यहां से यह चीज भी उठती है कि संसाधनों का जमावड़ा करने की होड़ कभी भी समाप्त नहीं हो सकती। ऐसे में जरूरी हो जाता है कि हम लोगो की प्राथमिकता को अन्य क्षेत्रो की तरफ मोड़े। जैसे कि रचनात्मकता, खेलकूद और अन्य प्रतिभा का क्षेत्र। ताकि जिसके आधार पर आदमी अपने अहम् को संतुष्टि प्रदान करे, बजाय संसाधनों के जमावड़े के आधार पर। लेकिन हम देखते है कि प्रतिभा सम्पन्न लोगो ने भी एक नवीन कुलीन वर्ग को जन्म दिया है। जिससे यह होड़ फिर आगे बढ़ जाती है। ऐसे में हमारे सामने प्रश्न यही है कि इस होड़ को कैसे रोके। इसकी वजह से प्राकृतिक संसाधनों पर दबाव पड़ता जा रहा है।  पत्थर और रेत जंगलो और पहाड़ो से निककर घरो में आके जमा हो गई। इससे जंगल तबाह हो गए, स्थानीय समुदाय विस्तापित हो गए, ग्रीन हाउस गेसो का उतसर्जन बढ़ गया। इसलिए इसे भी साथ में रोककर आगे बढ़ना होगा। पर्यावरण क्षति की वजह से निम्न लोगो के विकास को तो रोक नहीं सकते ।

5. अल्टीमेट रियलिटी की तलाश 
अगर आदमी निचली कक्षाओं से ऊपर की कक्षाओं में पलायन कर गए। तो निचली कक्षा के कामो को कोन सम्पादित करेगा। लेकिन इसकी गारंटी तकनीकी ले रही है। फिर तो इस पलायन से आपत्ति नहीं होनी चाहिए। लेकिन सच्चाई इन दोनों बातो के बीच में है। मतलब तकनीकी पूरी तरीके से आदमी की जगह नहीं ले सकती। इसलिए आदमी की निम्न कार्यो में भूमिका बची रहेगी। अगर ऐसा नहीं रहेगा, फिर तो मध्यम स्तर पर रोजगारो की मांग करने वालो की भीड़ और बढ़ जायेगी। इसलिए यहां से बुनियादी प्रश्न उठता है कि अल्टीमेट रियलिटी क्या है। आदमी का पैसेकमा कर उच्च वर्ग की जिंदगी जीना ही उद्देश्य नहीं हो सकता। वही निम्न वर्ग में रहकर अपनी सभी आवश्यकताओं और इच्छाओ को दबाना भी उद्देश्य नहीं हो सकता। इसलिए बुनियादी चीजों की प्राप्ति के बाद इस रंगमंच पर अभिनय करने की बात यहां से उभर कर सामने आती है।


खंड II
अब हमारे सामने प्रश्न यह है कि जब इतने सारे बुनियादी प्रश्नो का समर्थन इस सिद्धांत को नहीं मिल पा रहा है। ऐसे में क्या इसे आगे बढ़ाना चाहिए या नहीं। इसके अलावा यह बात भी उठती है कि फिर किस तरह से इसका क्रियान्वन किया जाए कि ये प्रश्न खड़े नहीं हो।

1. सबसे पहले तो यह बात स्पष्ट हो जाती है की लांच करने का नियम सभी कक्षाओं पर लागू नहीं होता। यह केवल निम्न कक्षाओं के लिए ही उपुक्त है। जिसका मकसद उनके गरीबी के चक्र में रोकने के लिए जिम्मेदार कारको का खात्मा करना है।  जिस प्रकार अगर गरीबी की वजह से पढाई नहीं कर पाता तो उसे पढाई के लिए बेहतरीन सुविधा उपलब्ध करानी है। यह नहीं कि उसे बीस लाख रूपए देकर कार दिलवा दी। और बोल दिया कि जा अब तू हो गया मध्यम वर्ग का आदमी।

2.  दूसरी तरफ समाज को समानता की तरफ धकेलने के प्रयास किए जाएंगे। इसके लिए कई क्षेत्रो में कार्य किया जाएगा। जो करो के माध्यम से प्राप्त हो सकता है। या फिर सरकारी समर्थनों के माध्यम से।
इसके अलावा संसाधनों की संकीर्णता को रोकने के लिए जनसंख्या नीति पर भी विचार किया जाएगा। साथ ही किसी एक ही आदमी को प्राकृतिक संसाधनों के अत्यधिक प्रयोग से रोका जाएगा। एक व्यक्ति को साल में उत्पादित संसाधनों का कितनी सीमा तक उपयोग करना चाहिए। इस पर विचार किया जाएगा। देश को निरंकुश पूंजीवाद के जाल से निकाला जाएगा। इस वजह से कई चीजों की मनमर्जी की कीमतों से भी मुक्ति मिलेगी।

3. राजनीती आश्वासन दिलाने का काम कर सकती है कि वह सभी के उत्थान का कार्य कर रही है। लेकिन इस समय की विभाजनकारी राजनीती में अलग अलग समय पर शासन से उम्मीद लगा सकते है। एक वर्ग को आगे बढ़ना है तो दूसरे को पीछे छोड़ना पड़ेगा। इस प्रकार यह सिद्धांत पुन: प्रासंगिक हो जाता है कि एक ही समय पर सभी लोगो को खुश करना सम्भव नहीं है। वही इस तरह के प्रयास किसी सरकार द्वारा किए जाएंगे, ऐसे में जरुरी तो नहीं कि सभी राज्य इसी तरह के कार्यक्रम लागू करे। इसलिए स्थानीय सर्कार पर भरोसा भी रखना होगा और उसकी नीतियों को जनोन्मुखी बनाने के लिए दबाव भी रखना होगा। यह सब विरोध की राजनीती की बजाय थिंकटैंक की राजनीती के माध्यम से करना होगा।

4. अब प्रश्न यह हो जाता है कि यह कोई अद्वितीय सिद्धांत नहीं है। लेकिन इसमें निम्न वर्ग को ऊपर उठाने का पवित्र उद्देश्य शामिल है, जिसे कैसे प्राप्त किया जाए। इसके लिए मौजूदा कौशल विकास, उद्यम स्थापना के कार्यक्रमों के माध्यम से कैसे अधिकतम जरुरतमंदो को सम्बोधित किया जाए। इसके लिए मौजूदा कार्यक्रमों की प्रभाविता बढ़ाने के सरकारी प्रयासों की मदद करनी होगी।

5. इस कार्य के लिए अब हमे दूसरे क्षेत्रो की भी मदद लेनी होगी। तब जाकर यह उद्देश्य पूरा किया जा सकता है। बिज़नेस सेक्टर को ऐसे उत्पाद निर्मित करने चाहिए, जो इस वर्ग के लिए किफायती हो। जिनको उपभोग करने में निम्न वर्ग पर भर नहीं पड़े। वही ऐसे उत्पाद भी हो जो आसान और वहनीय तरिके से घर की बुनियादी चीजे बसाने में मदद करे।

निष्कर्ष :
प्रत्येक व्यक्ति के उत्थान में सक्रिय हस्तक्षेप का रास्ता जटिल है। लेकिन हम उन्हें दुसरो के द्वारा उत्पीड़ित होते नहीं देख सकते। उनके मानवाधिकारों को उच्च वर्ग के मनोरंजन का जरिया नहीं बनने दिया जा सकता। इसलिए बुनियादी चीजे उपलब्ध कराने के अलावा उनके व्यक्तित्व के विकास के लिए भी कार्य करना होगा। बिना व्यक्तित्व के क्या गारंटी है कि वे भेजे गए ऊपरी वर्ग में ठीके रहेंगे या फिर दमित या शोषित नहीं होंगे। इसलिए भौतिक विकास  के साथ-साथ आंतरिक विकास के लिए भी हस्तक्षेप जरूरी हो जाता है।

हमारे इर्द-गिर्द के नवीन सामान्य रुझानों का अनुरेखण

किसी भी समाज, संगठन या देश में अधिकतर गतिविधिया तयशुदा नियमो के तहत होती है। लेकिन कुछ गतिविधिया अगर मानक प्रक्रिया के अनुरूप नहीं होती तो उसे हम अपवाद मानकर छोड़ देते है। लेकिन जब इन अपवादों की आवृति बढ़ जाती है तो ये सामान्य सी चीजे बन जाती है।  फिर समय और परिस्थितियों की मांग होती है कि इन नई सामन्य चीजों को व्यवस्थित किया जाए। ताकि इनसे किसी प्रकार की अव्यवस्था नहीं फैले। वर्तमान में ऐसी बहुत सारी चीजे सभी क्षेत्रो में देखी जा रही है। सरकार की इन पर तीव्र निगाहे है ताकि लोगो को गतिशील विश्व के साथ सर्वोत्तम अभिशासन उपलब्ध कराया जा सके।  ये आम बाते राजनीति,अर्थव्यवस्था,समाज और संस्कृति सभी में पाई जाती है। तकनीकी विकास, जनसंख्या वृद्धि और वैश्वीकरण के विभिन्न प्रभावों के कारण ये नई सामन्य चीजे उत्पन्न हो रही है।

इस आलेख में हम इन नई सामान्य चीजों को क्षेत्रवार तलाशने की कोशिश करेंगे।

1. प्रशासन 
निचले स्तर पर रिश्वत दिया जाना सहूलियत के लिए सही समझा जाने लगा है। वही ऊपर के स्तर पर फेवर के बदले फेवर का चलना आम बात हो गई है।

2. राजनीति 
चुनावो को किसी भी तरीके से जीतना सामान्य उद्देश्य हो गया है, बाकी सिद्धांतो को संभालने के लिए धरना प्रबंधन सेल है। जमीनी कार्यकर्ताओ को साम-दाम -दंड - भेद की नीति पकड़ा दी गई है।

3. अर्थव्यवस्था 
अर्थव्यवस्था में क्रोनी कैपिटलिज्म का प्रचलन आम होता जा रहा है।

4. मीडिया 
मीडिया पत्रकारिता के उद्देश्य को छोड़कर बिज़नेस इकाई हो गए है। कई अख़बार और टीवी चैनल राजनितिक दलों के प्रवक्ता बन गए है।

5. समाज 
समाजो में व्यक्तिवाद को महत्व मिल गया है और परम्परागत संस्थाओ और उनके मूल्यों की अपेक्षा आम बात हो गई है।

6. संस्कृति 
संस्कृति में बाह्य तत्वों को बिज़नेस जगत द्वारा मान्यता दिलाने की कोशिश आम बात हो गई है।

7. डिप्लोमेसी 
सभी देशो के साथ रिश्तो को गहरे करना आम चलन में है। देश इसे शीर्ष स्तर से निम्न स्तर के संबध्दता में बदलना चाहते है।

8. शिक्षा और रोजगार 
पढ़ा लिखा लेकिन बेरोजगार आदमी आजकल के समाजो में आम बात हो गई। नौकरी के लिए कई तरह के फर्जीवाड़ा का प्रचलन और उसके लिए किया जाने वाला विरोध का बेअसर होना भी सामान्य सी बात है।

9. सिनेमा 
सिनेमा में दर्शको को कैसे भी करके खींचने के लिए प्रयोग हो रहे है। इसलिए पुराणी अवांछित चीजे अब सामान्य बाते हो गई है। जैसे दारु सिगरेट गाली ,अश्लीलता आदि।

10. पब्लिकेशन 
पब्लिकेशन में तुलनात्मक रूप से लिखने वाले तो बढ़े ही है। लेकिन लक्ष्यित दर्शको/ पाठको का आभाव सामान्य सी बाते है।

खंड II

किस दिशा में ले जा रहे है ये न्यू नॉर्मल्स 
अगर हम इन नई सामन्य चीजों के पैटर्न का अवलोकन करे तो पता चलता है कि अब दुनिया खुल रही है, लोग अपनी इच्छाओ को दबाकर नहीं रख रहे है, अपनी इच्छाओ की पूर्ति के प्रयास भी कर रहे है। यह सब व्यक्तिवाद को समर्थ देने वाले बाजार आधारित मूल्यों की बदौलत भी हो रहा है। लोगो की आदतों में गंभीरता का आभाव बाजार के लिए उर्वर भूमि तैयार करता है।

आगे क्या करने की जरुरत है 
लोगो को या किसी को भी रोकने की जरुरत नहीं है। बल्कि हमे प्रशासन को चुस्त बनाना है ताकि कोई भी नुकसान इनकी गतिविधियों के माध्यम से नहीं हो। लोगो का इस तरह से अपने अरमानो को पूरा करना स्थापित संस्थाओ की सुरक्षा के हित में बहुत जरुरी है। हमे अपने नियमो और नैतिकताओ को इसे अनुरूप कर लेना चाहिए।

इस प्रचलन के प्रभाव 
अधिकतर प्रभाव सकारत्मक ही होंगे। व्यक्तिगत अधिकारों क बल पर आदमी अपना विकास बेहतर क्रियान्वित कर सकता है। अगर कोई नुकसान हो रहा है तो वो यह कि लोगो की उत्पादकता पहले की तुलना में कम होती जा रही है। लेकिन यह कोई मुद्दा नहीं है क्योकि आजकी पीढ़ी के पास लक्ष्य भी बढ़े नहीं है।

निष्कर्ष : 
इन नई सामान्य चीजों पर दृष्टि होना बहुत ही जरुरी है। ताकि इनकी दिशा को पकड़ के इनके प्रभावों को दोहित कर सके। वही इनकी नकारात्मकताओं को रोक सके। इसके लिए सभी संस्थाओ ने संस्थागत प्रयास शुरू कर दिए है जहां पर संक्रमण को लेकर अध्ययन किया जाता है और रणनीति बनाई  जाती है। लोगो को भी नई चीजों के साथ खुद को ढल लेना चाहिए।  

UPSC सिविल सेवा मुख्य परीक्षा 2018 निबंध प्रश्न पत्र

सिविल सेवा मुख्य परीक्षा 2018, निबंध प्रश्न-पत्र का इस आलेख में सटीक दृष्टिकोण बताया जा रहा हैं। किसी निबंध के मॉडल उत्तर में किन-किन पक्षों को शामिल किया जाना चाहिए तथा सम्बन्धित विषय पर क्या संतुलित दृष्टिकोण होना चाहिए, इन सबको आप इस आलेख में देख सकते हैं। इसी तरह की हमारी पहल को गत वर्ष भी काफी सराहा गया था।
खंड I
  1. जलवायु परिवर्तन के प्रति सुनम्य भारत हेतु वैकल्पिक तकनीकियां (Alternative Technologies for a Climate Change resilient india)
  2. एक अच्छा जीवन प्रेम से प्रेरित तथा ज्ञान से संचालित होता है (A good life is one inspired by love and guided by knowledge)
  3. कही पर भी गरीबी हर जगह की समृद्धि के लिए खतरा है (Poverty anywhere is a threat to prosperity everywhere)
  4. भारत के सीमा विवादों का प्रबंधन - एक जटिल कार्य (Management of Indian border disputes - a complex task)
      खंड II
      1. रूढ़िगत नैतिकता आधुनिक जीवन का मार्गदर्शक नहीं हो सकती है। (Customary morality can not be a guide to modern life)
      2. अतीत मानवीय चेतना तथा मूल्यों का एक स्थायी आयाम है। (The past is a permanent dimension of human consciousness and values)
      3. जो समाज अपने सिधान्तो के ऊपर अपने विशेषाधिकारों को महत्व देता है, वह दोनों से हाथ धो बैठता है। (A people that values its privileges above its principles, loses both is defeated by both of them.)
      4. यथार्थ आदर्श के अनुरूप नहीं होता है , बल्कि उसकी पुष्टि करता है। (Reality Does not conform to the ideal, but confirms it.)

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          खंड I के निबंधों से संबंधित सही दृष्टिकोण

          1.1.जलवायु परिवर्तन के प्रति सुनम्य भारत हेतु वैकल्पिक तकनीकियां।
          (Alternative Technologies for a Climate Change resilient india)

          जलवायु परिवर्तन के नुकसान देशों को भारी जान माल की क्षति कर रहे है। वैश्विक स्तर पर सभी देशो द्वारा इन नुकसानों का न्यूनीकरण करने पर ध्यान दिया जा रहा है। यह मुद्दा कई अंतर्राष्ट्रीय मंचो के एजेंडा का हिस्सा रहा है। सेंडाइ फ्रेमवर्क हो या फिर डिजास्टर रिस्क रिडक्शन से संबंधित क्षेत्रीय आयोजन हो। सभी में इस पर लक्ष्यबद्ध तैयारी को प्राथमिकता देने की बात कही गई है। भारत ने भी इन प्लेटफार्म की सदस्यता ली है और इनके लक्ष्यों का अंगीकरण भी किया है ताकि जलवायु परिवर्तन संबंधित जोखिमो को निम्नीकृत किया जा सके। 
          • इन तकनीकियों को अपनाने की क्यों जरुरत है -  Explain india's Vulnerability
          • इस सिलसिले में परम्परागत तरीको को अनुकूलित किए जाने की आवश्यकता है वही उनके जलवायु निम्नीकरण स्वभाव को न्यूनीकृत भी किया जाना चाहिए। इसके लिए निम्न तकनीकि उपयोगी हो सकती है -  Explain INDC and other technologies
          • लेकिन ये तकनीकियां मानस पटल पर ही रहेगी अगर हम इन्हे जमीं पर उतारने में काबिल नहीं हो सके तो , इसके लिए हमे इनके लिए तकनिकी और वित्त संबंधित जरुरतो की पूर्ति पर ध्यान देना होगा। अब इनके समाधान के लिए हम प्रयासरत तो है ही लेकिन सीमाओं को देखते हुए अधिक व्यवहार्य समाधानों पर विचार करने की जरुरत है। - Affordable and accessible solution
          • वैकल्पिक तकनीकियों के निम्न फायदे हो सकते है - ये निवेश का जरिया बनेगी, लोगो के लिए रोजगार के अवसर उत्पन्न होंगे और हरित अर्थव्यवस्था का आधार निर्मित होगा। अन्य फायदे तकनीकी के नवाचार से जुड़े हो सकते है।  
          • वैकल्पिक तकनीकियों के निम्न नुकसान हो सकते है- महँगी होगी , परम्परागत ज्ञान की उपेक्षा होगी या फिर उसके लाभ से वे वंचित रह सकते है। 
          निष्कर्ष : में कहा जा सकता है कि अत भारत को इन तकनीकियों को अपनाने पर ध्यान तो देना ही चाहिए , लेकिन इससे जुड़े सकारत्मक और नकारत्मक मुद्दों पर भी ध्यान दे लेना चाहिए। 

          1.2.एक अच्छा जीवन प्रेम से प्रेरित तथा ज्ञान से संचालित होता है।
          (A good life is one inspired by love and guided by knowledge)

          एक अच्छे जीवन की प्रकृति पर हमेशा विमर्श चलता रहता है। कुछ लोग इसका आंकलन पहले धन के आधार पर करते थे लेकिन हम देखते है कि धन रिश्तो में प्रेम का आभाव बना देता है और जीवन नीरस  या यांत्रिक अधिक प्रतीत होता है, वही गरीब आदमी पारिवारिक प्रेम की बदौलत ख़ुशी से अपना जीवन गुजारता है। लेकिन गरीब आदमी शिक्षा जैसे संसाधनों तक सीमित पहुंच के कारण अपने जीवन की गुणवत्ता को निम्नतर ही रखता है। प्रेम खाने को थोड़ी देता है। इसके लिए तो पैसा चाहिए जो कि ज्ञानार्जन के माध्यम से किए गए कुछ आर्थिक कार्यो पर निर्भर करता है। इसलिए हम देख सकते है की अच्छा जीवन अधिक प्रेम से भी प्रेरित नहीं होता, न ही अधिक ज्ञान से संचालित होता है। इसके लिए सभी गतिविधियों का समायोजन चाहिए। एक दूसरे को समय देना आना चाहिए। धनार्जन भी जरुरी है।  
          • जीवनशैली में प्रेम का महत्व : संतुलित प्रेम और प्रेम की अधिकता बिगड़ देती है और बच्चे कॅरिअर खराब कर लेते है , उसके बाद केवल प्रेम ही अच्छे जीवन का आधार नहीं है। 
          • ज्ञान से संचालित : ज्ञान से जीवन शैली की गुणवत्ता बढ़ती है। वः सही मायने में अच्छे जीवन की तरफ जाता है , लेकिन ज्ञान तर्क पर आधारित होता है जो जीवन को नीरस बना देता है। 
          • संतुलन : अच्छे जीवन के लिए ज्ञान और प्रेम दोनों में संतुलन होना चाहिए। 
          • अच्छे जीवन की लोकप्रिय धारणा और उस पर ये दोनों मानदंड : मानव विकास सूचकांक के लिए शिक्षा, स्वास्थ्य और आय। ऐसे में धनार्जन पर ध्यान देना भी जरुरी है। जिसकी बदौलत सामाजिक न्याय सुनिश्चित किया जा सकता है। 
          निष्कर्ष : अच्छे जीवन का पैमाना विविधता लिए हुए है जो अलग अलग चीजों पर निर्भर करता है. ये दोनों इसका बड़ा हिस्सा है। जिन की उपलब्धता पर हमे ध्यान देना चाहिए।  
          फैक्ट : Happiness index, HDI, Social justice based life

          1.3.कही पर भी गरीबी हर जगह की समृद्धि के लिए खतरा है।
          (Poverty anywhere is a threat to prosperity everywhere)

          आधुनिक सभ्य समाज में असमानता पर प्रश्न काफी दिनों से खड़ा किया जाता रहा है। जिसमे बहुआयामी गरीबी को जितना जल्दी हो सके उतना जल्दी खत्म करने की बात कहि जाती है। सङ्ग में भी इस चीज के लक्ष्य निर्धारित किए गए है। जिसके लिए सभी देशो की सरकार प्रयासरत है। उसके अलावा कई निजी संस्थाए भी कार्यरत है। इस तरह के बहुआयामी प्रयासों वाले गरीबी के प्रश्न को अलगाव का विषय नहीं मानने की अवधारणा है। यह कही न कही दूसरे क्षेत्रो को भी प्रभावित करती है। 
          • गरीबी कैसे दूसरे क्षेत्रो को प्रभावित करती है - लोकतत्र कमजोर होता है, सही नीतिया नहीं बनती, जिससे शोषण या तो बढ़ता है या फिर सम्बोधित नहीं होता। अर्थव्यवस्था को भी शिथिल करती है , मांग का अभाव, उत्पादन और आगे रोजगारो को प्रेरित नहीं करता है।  सांस्कृतिक तोर पर भी विषमता उत्पन्न होती है जो देश के मूल्यों का विभाजन कर देती है , जिसकी वजह से समान रूप से लोगो का सम्बोधन रुक जाता है। समाज में भी व्यक्तिवाद जल्दी से घर कर जाता है।  संकीर्णतम विचारधाराओ को उर्वर भूमि मिल जाती है। 
          • लेकिन समृद्धि भी गरीबो के लिए मुश्किलें खड़ी करती है। जो आज के हालत में देख सकते है। धनि लोग उनके हको पर कब्जा कर रहे है और अपने नैतिक मूल्यों को ढीला कर रहे है। उन्हें विस्तापित करती है। 
          • उदाहरण जैसे नक्सलियों की गरीबी पुरे देश की सुरक्षा के लिए खतरा है, जिसके बदौलत निवेशकों की आनाकानी इस असुरक्षा को बढाती है।  
          • उठाये जाने वाले कदम- ताकि कोई क्षेत्र गरीब छूटे ही नहीं और अगर रह भी जाए तो उसे कैसे ऊपर लाये। 
          निष्कर्ष : हमारी संस्कृति लोगो को साथ में लेकर चलने की है। कोई पीछे छूट गया तो उसे साथ में लाना चाहिए। आरक्षण इसका उदारहण है। इसके अलावा आमिर लोगो को अपना न्य वर्ग बनाने की बजाय वर्गहीन समाज को बढ़ावा देना चाहिए।

          1.4.  भारत के सीमा विवादों का प्रबंधन - एक जटिल कार्य ।
          (Management of Indian border disputes - a complex task)

          भारत एक बड़ी सीमा रखा का धनी है जो भौगोलिक रूप से समुद्र, रेगिस्तान, पहाड़ ,बर्फ, नदी-नाले, कीचड़ आदि के द्वारा बनती है। इसके अलावा यह सीमा कई देशों के साथ साझा होती है ,जिसमें से अधिकतर के साथ संबंध सही नही रहे है। ऐसे में यह चुनौती और बढ़ जाती है। इस सीमा के प्रबंधन के लिए बहुत सारी सुरक्षा एजेंसी भी कार्यरत है। जिसके कारण इसमें कोर्डिनेशन भी मुद्दा बना रहता है।  अंतरराष्ट्रीय सीमा घुसपैठ, तस्करी, चरमपंथियों के आवागमन  संबंधित मुद्दों से जूझ रही है। वही सैन्य प्रबंधन के लोगो को खराब दशा में कार्य करना पड़ता है। दूसरे देशो के सैन्य दलों के साथ कई बार मुठभेड़ की घटनाए भी होती है। 
          • सीमा विवादों की प्रकृति और उसकी वजह से क्या मुद्दे खड़े होते है। 
          • सीमा विवादों के समाधान क्या हो सकते है - क्षमता निर्माण, अवसंरचना निर्माण। राजनयिक प्रयास 
          • समाधानों की सीमाए क्या है - क्यों ये प्रभावी नहीं हो पा रहे है। 
          • सीमा विवादों का सुलझना अर्थव्यवस्था के हितो में जरुरी है। इसके लिए आगे की राह कैसी होनी चाहिए - न केवल सीमा विवादों का सुलझना चाहिए , बल्कि क्षेत्रीय एकीकरण के लिए कार्यकरना चाहिए। जिसका लाभ सभी को होगा। भारत की अफगानिस्तान तक पहुंच बढ़ेगी।  रक्षा बजट में कमी आएगी। मानव विकास में इजाफा होगा। 
          निष्कर्ष : हम दोस्त बदल सकते है लेकिन पडोसी नहीं।  इसलिए हमे इन संबंधो को सुधारने की बुनियाद सीमा विवादों के समाधान पर ध्यान देना चाहिए। जिससे हम देश के किसी भी हिस्से में होने वाली अनिश्चितताओं को रोक सके। क्षेत्र को आधुनिक मूल्यों की शक्ल दे सके, कब तक औपनिवेशिक विरासत से जूझते रहेंगे। 



          खंड II के निबंधों से संबंधित सही दृष्टिकोण

          2.1.रूढ़िगत नैतिकता आधुनिक जीवन का मार्गदर्शक नहीं हो सकती है।
          (Customary morality can not be a guide to modern life)

          भारतीय समाज विकास के आसमान स्तरो पर रहा है। जिसमे कुछ लोग आधुनिक मूल्यों को जल्दी ही प्राप्त कर लिए और कुछ लोग अभी भी परम्परागत मूल्यों के चिपके हुए है। इसके कारण समाज की गतिशीलता में विसंगति देखी जाती है। आधुनिक मूल्य वालो को प्राचीन वाले बिगड़े हुए मानते है, वही प्राचीन वालो को आधुनिक मूल्य वाले लोग पिछड़े हुए मानते है। अब हमे इसी पर विचार करना है कि वर्तमान आधुनिक जीवन में कोनसे मूल्य सही है और कोनसे गलत।  

          किसी भी समाज, संस्था या देश का संचालन कुछ नियमो के माध्यम से होता है। ये नियम उस समाज के उद्देशो की पूर्ति से जुड़े होते है। हमारा व्यवहार अगर उन नियमो के अनुरूप है जो संगठन के लक्ष्यों की पूर्ति में सहायक है तो हमे नैतिक समझा जाएगा। वही हमारा व्यवहार अगर उन नियमो के अनुरूप नहीं है या संगठन के लक्ष्यों में बाधा बनता है तो हमे अनैतिक समझा जायेगा। जैसे जैसे समय बदलता है, यह नैतिकता बदलती जाती है। स्थान के अनुसार भी यह बदलती है। 
          • आधुनिक समाज की प्रगति में रुकावट बने परंरागत मूल्य :  हमारा समाज आगे बढ़ गया। लेकिन कुछ मूल्य इस समाज को आधुनिक दौड़ में शामिल नहीं करा सके, जिनमे महिलाओ की शिक्षा से संबंधित प्रमुख है।
          • आधुनिक समाज के आधुनिक मूल्यों द्वारा उत्पन्न की गई विसंगति :जैसे महिलाओ को उपभोग की वस्तु मानना। अश्लीलता का प्रचलन 
          • आधुनिक जीवन में पश्चिमी मूल्यों की आवश्यकता : सयंम आधिरत जीवन और जलवायु परिवर्तन 
          निष्कर्ष : अत: हम कह सकते है की परम्परागत मूल्यों के संवर्धन की जरुरत है की उनको नकारने की। भारतीय मूल्यों की जड़े काफी गहरी है इसलिए उन्हें बेकार बताना सही नहीं है। भारतीय मूल्य परिष्कृत होकर समाज को बेहतर दिशा देते है। 

          2.2.अतीत मानवीय चेतना तथा मूल्यों का एक स्थायी आयाम है।
          (The past is a permanent dimension of human consciousness and values)

          मानवीय मूल्य और चेतना हमेशा गतिशील होती है। मानव जिस समाज में रहता है उसके अनुकूल अपने को ढालने के लिए अपने मूल्य विकसित करता है। इन सबके लिए उसे उस क्षेत्र की समझ बहुत सहायता करती है। ऐसे में उस समाज के पास इतिहास का समृध्द अनुभव उसके मूल्यों को बहुत धनवान बना सकता है। उसमे गलती होने के अवसर खत्म हो जाते है। इस प्रकार इतिहास एक आयाम की तरह कार्य करता है। 

          लेकिन इतिहास को हमेशा याद रखना उसके लिए अनिवार्य हो जाता है, वरना पुराणी चीजे फिर से दोहराई जा सकती है। इसलिए इतिहास एक स्थायी आयाम प्रतीत होता है। लेकिन मानव की चेतना भी विकसित होती रहती है। इसलिए वह इतिहास की उपेक्षा करके नवीन रास्ते अपना लेता है। जब वह सफल हो जाता है तो इतिहास के स्थायी आयाम की बात कंडित हो जाती है। 

          निष्कर्ष :  इसलिए मानव चेतना और मूल्यों में इतिहास एक आयाम तो होता है लेकिन स्थायी जैसी कोई चीजे नहीं होती है। क्योकि मानव चेतना स्वतंत्र होती है।

          2.3.जो समाज अपने सिधान्तो के ऊपर अपने विशेषाधिकारों को महत्व देता है, वह दोनों से हाथ धो बैठता है।
          (A people that values its privileges above its principles, loses both is defeated by both of them)

          किसी समुदाय या जगह पर बाउट सारे समाजो का अधिवास होता है। उनमे से कोई समाज वर्चस्वकारी  भूमिका में होता है तो कोई अधीनस्थ की भूमिका मे। ऊपर वाला समाज अपने वर्चस्व की बदौलत कुछ विशेषाधिकारों का उपभोग करता है। इसके लिए वह कुछ सिधान्तो के द्वारा अपनी श्रेष्ठता को स्थापित करता है। लेकिन समाज गतिशील होता है उसमे स्थापित वर्ग को चुनौती मिलती है और दूसरा वर्ग स्थापित होता है। यह चक्र चलता रहता है। 

          लेकिन बात संतुलन की है किसके सिद्धांत अच्छे थे। इसे हम उदाहरणों के माध्यम से समझेंगे -
          • ब्राह्मणो ने चतुर्वर्ण के सिद्धांत के आधार पर विशेषाधिकारों का प्रयोग किया, जिसमे व्यक्तिगत हितो केंद्र में रखकर चतुर्वर्ण का सिद्धांत बनाया गया था। आगे विशेषाधिकार भी नहीं रहे और न ही सिद्धांत रहा। अगर सिद्धांत में कुछ पवित्रता होती तो विशेषाधिकारों को चुनौती नहीं मिलती। 
          • अंग्रेजो ने भी सभ्य बनाने के लिए नस्लवाद के सिद्धांत के आधार पर विशेषाधिकारों का उपभोग किया, उनको भी लोगो ने भगा दिया। 
          • यही हाल यूरोप के सामंतो का हुआ था। 
          • लोकतान्त्रिक नेताओ ने लोकतांत्रिक सिद्धांतो के माध्यम से विशेषाधिकार प्राप्त किए। जिन्हे कोई चुनौती नहीं दे पा रहा है क्योकि इनमे सिद्धांतो की प्रमुखता है। यहां पर भी विप कल्चर के बढ़ने पर उसे चुनौती दी जाती है। 
          निष्कर्ष :  इसलिए यहां पर मुद्दा यह है की विशेषाधिकारों का अगर उपभोग करना है तो उनके लिए सिद्धांत नैतिक होने चाहिए, उनमे किसी प्रकार का भेदभाव नहीं हो ,कोई भी प्रतिभा के आधार पर वहां तक पहुंच सके। लोकतंत्र की महत्ता यह से भी सही सिद्ध हो जाती है।

           2.4.यथार्थ आदर्श के अनुरूप नहीं होता है , बल्कि उसकी पुष्टि करता है।
          (Reality Does not conform to the ideal, but confirms it.)

          हक़ीक़त हम सब जानते है कि आदर्श से कोसो दूर होती है। लेकिन हकीकत की कोशिस हमेशा आदर्श के नजदीक जाने की होती है। मतलब हकीकत की आदर्श की तरफ झुकाव उसकी पुष्टि करता है। इसलिए हम किसी भी उद्देश्य को दिशा देने के लिए एक आदर्श लक्ष्य मन में स्थापित कर लेते है। 
          • लेकिन वर्तमान में आदर्श को मनोरंजन जगत की शक्तिया निर्धारित कर रही है, इस वजह से आदर्श विलासिता वाला होता जा रहा है, वह परम्परागत तरीको की वैकल्पिक विधियों की सरासर उपेक्षा कर रहा है। इसकी वजह से लोगो की निजी जिंदगी खराब होती जा रही है -लोगो में तनाव बढ़ रहा है, अवैध संबंध पनप रहे है, लोग भौतिक चीजों को बसने में लगे हुए है, इन सबका दबाव पर्यावरण पर पद रहा है। 
          • इसलिए आदर्शलोक को हक़ीक़त के पैमाने पर रख करके आंकना चाहिए। मार्क्स आदि भी यूटोपियन माने जाते है। जिन्होंने समाजवाद के नाम पर कई लड़ाई लडवाई, जबकि हक़ीक़त दुनिया पूंजीवाद में ही तलाशती है। आदर्शलोक का अव्यवहारिक होना मनोरंजन जगत में तो चल जाता है। लेकिन उसके आधार पर सिद्धांत जब निजी जिंदगी में दे दिए जाते है तब समस्या खड़ी होती है। 
          • यह सब खराब होमवर्क का नतीजा है। इसलिए मनोरंजन जगत को भी प्रैक्टिकल चीजे दिखने के लिए प्रेरित करना चाहिए। वही उलटे सीधे नियम बनाने वालो को भी आलोचनात्मक समीक्षा के आधार पर परखा जाना चाहिए।
          • लेकिन  यह हमेशा गलत ही नहीं होता। यह सपने दिखता है जिसके आधार पर हम कार्य करते है और अभी की खराब हालत से निकलकर बाहर आने के लिए प्रेरित होते है।  इसका मतलब है कि आदर्श को प्राप्त करने के लिए लोगो को प्लेटफार्म दिए जाने चाहिए।
          निष्कर्ष : आज का आदर्श कल की सामन्य चीज हो सकती है। यह इस पर निर्भर करता है की हम उसे पाने के लिए मेहनत कितनी कर रहे है। इसके लिए हमारे पास संसाधन है या नहीं।

          धन्यवाद 

          Theory of individual interference

          mastram meena blog, theory of individual inteference
          भारतीय संविधान में लोगों के आर्थिक, सामाजिक विकास को सुनिश्चित करने के लिए नीति निदेशक तत्वों का प्रावधान किया गया है। जिसके अनुसार राज्य लोगो के उत्थान के लिए सक्रिय हस्तक्षेप करता है। हम देखते है की वर्तमान में यह हस्तक्षेप लोगो को राहत ही प्रदान करता है , न की उन्हें उठने का सामर्थ्य देता है। जिस सामर्थ्य के सहारे ये अभावो के चक्र से मुक्त हो सके और फिर अगले आर्थिक स्तर में प्रवेश कर सके। ऐसा करना समाज के निचले तबके के लिए बहुत ही जरुरी है क्योकि उनकी वर्तमान लाचार हालत उनके मानवीय विकास को अवरुद्द करने का पाप करती है। साथ ही उन्हें जन्म दर जन्म एक ही चक्र में घुमाती रहती है। ऐसे लोगो की उपलब्धता प्राइवेट कंपनी को सस्ते श्रमिक प्रदान करने की वजह से अच्छी लग सकती है। लेकिन तकनीकी समृध्द इस युग में दबी कुचली चेतना के लोगो की उपस्थिति खासकर किसी भी संवेदनशील मन को तो अवश्य कचोट रही होती है। ऐसे में जरूरी है कि हम प्रत्येक व्यक्ति की लॉन्चिंग पर आधारित Theory of Individual Interference के सिद्धांत पर विचार करना चाहिए।

          क्या योजना है  (What) : 
          प्रत्येक व्यक्ति को चयनात्मक हस्तक्षेप उपलब्ध कराने के बजाय लॉन्चिंग हस्तक्षेप उपलब्ध कराने चाहिए।  मौजूदा हस्तक्षेप केवल उनकी बेहतरी की बजाय कमतरी को ज्यादा सम्बोधित करते है। यह प्रणाली केवल उन्हें निर्वाह सक्षम उपाय प्रदान करती है। जबकि इससे आगे जाने के लिए किसी बाह्य समर्थन की जरूरत को पूरा किया जाना चाहिए।

          वर्तमान में लॉन्चिंग के लिए हम सरकार के बहुआयामी उपायों  के माध्यम से समर्थ व्यक्ति के आगे आने की उम्मीद करते है। अगर समर्थ व्यक्ति बनाकर आगे लाने के उपाय किए जाए तो स्थिति अलग हो सकती है।

          किस प्रकार (How) :
          अब इसे किस प्रकार क्रियान्वित किया जा सकता है, इस पर भी विचार कर लेते है -
          यूनिवर्सल बेसिक इनकम को पायलट मोड पर शुरू किया जाना चाहिए। यह शुरू में आर्थिक पैमाने पर परिवार आधारित हो सकती है। यह इतनी पर्याप्त हो कि संबंधित आदमी को शिक्षा, स्वस्थ्य जैसे क्षेत्रो में निवेश के लिए समर्थ कर सके।
          उसके बाद मुद्रा योजना का प्रसार किया जा सकता है। इसे मांग आधारित की बजाय अधिकार आधारित बनाया जा सकता है। इसके लिए लाभार्थियों से काम की प्राथमिकता आमंत्रित करके कौशल विकास किया जाए, फिर ट्रायल एंड एरर मेथड पर आधारित गतिविधियों में भेजा जाए। उसकी लगातार तीन साल तक मॉनिटरिंग की जाए, अगर वह लांच हो जाता है तो हमारा मकसद सफल हो जाएगा। अन्यथा बचे हुए लोगो के लिए फिर से प्रयास किए जाएंगे। या फिर उन्हें अधीनस्थता के ढांचे में खपा लिया जाएगा।

          व्यवहार्यता  (Feasibility) : 
          योजना की व्यवहार्यता पूरी तरीके से क्रियान्वित करने योग्य है। मौजूदा समय में लॉन्चिंग की योजना के तोर पर मनरेगा को लिया जा सकता है। लेकिन हम जानते है की मनरेगा अधिकार आधारित से आकड़े भरपाई आधारित हो गई है। अब लॉन्चिंग के लिए दूसरे प्लेटफार्म की आवश्यकता है और प्रत्येक जरूरतमंद को सक्रिय हस्तक्षेप निश्चित तोर पर बेहतर विकल्प होगा।

          नकारात्मक (Negative) :
          इस योजना के नकारत्मक बिंदु यह हो सकते है की आदमी अब ज्यादा निकम्मे हो सकते है। वे संसाधनों का दुरूपयोग कर सकते है। इसके बाद वे अधिक निकम्मे हो सकते है।  जिससे मानव पूंजी की उत्पादकता में कमी हो सकती है।

          परिणाम (Outcomes ):
          इस योजना के परिणाम का आंकलन करे तो यह है कि इसके बाद आदमी की नागरिक गतिविधि अधिक सक्रियता की परिचायक हो जायेगी। इससे अभिशासन और राजनीती की गुणवत्ता में बढ़ोतरी होगी। जिससे आगे भी लोगो में सुधार के मूल्यों का समायोजन होगा।

          खंड II
          अब हम दूसरे सहायक मुद्दों पर विचार करते है। जो इस कदम की सार्थकता को सिध्द करने में मददगार होंगे।

          1. समाजवाद की अवधारणा आज के युग में 
          समाजवाद की अवधारणा आज के युग में पहले से ज्यादा मायने रखती है। भले ही १९ वि सदी से जीवन स्तर में सुधार हुआ है जिस कारण सम्पतियो का विषम वितरण दृष्टिगोचर नहीं होता है। वर्तमान में यह खाई बढ़ती जा रही है। आदमी आदमी को गुलाम बनाने की हालत पहले भी थी और आज भी वह संवर्द्धित हुई है , जिससे अनुमान लगा सकते है कि इस समय पर भी समाजवाद पूरी तरीके से प्रासंगिक है। 


          लेकिन इसके उद्देश्यों को किस प्रकार प्राप्त किया जाए, यह असली चुनौती है। इसके लिए हमे निचले लोगो को मौजूदा हालत में राहत आधारित समर्थनों से आगे जाकर उन्हें अगले स्तर पर लांच करना होगा। तब जाकर वे भी अगली कक्षाओं में दोड़ने के लिए समर्थ हो सकेंगे।  वरना वे अपने मौजूदा चक्र में ही वे घूमते रहेंगे।

          2. विकास अधिकार या फिर भाग्य के रूप में 
          मौजूदा समय में विकास के जो अवसर उपलब्ध है, उनका वितरण असमान रूप से है। जो नए प्रवेशार्थी  है अगर वे इन विकास अवसरों के पास में है तो वे भी लाभदायक स्थिति में होंगे। वही जो लोग दूरस्थ क्षेत्रो में है उनको इन विकल्पों की उपलब्धता प्राप्त नहीं हो सकेगी। ऐसे में एक बात सामने आती है कि विकास तक पहुँच कोई अधिकार की बात नहीं होकर के भाग्य की बात होती है। अगर विकास के भाग्य रूपी स्वरूप को बदलना है तो दूरस्थ क्षेत्रो को भी लॉन्चिंग करनी होगी।

          3. सभी कार्यो को करने की सुगमता 
          अगर हम लॉन्चिंग ड्राइव शुरू करना चाह रहे है तो हमे निम्न वर्ग के लिए उत्थान के कार्यक्रमों की क्रियान्वयन रुकावटों को न्यून करना होगा। यह एक तरीके से व्यापार की सुगमता के समान होगा। लेकिन इसके क्षेत्र भिन्न होंगे और उनके लिए सुगमता के पैरामीटर भी भिन्न प्रकार के ही होंगे। जिनकी सबसे पहले तो हमे पहचान करनी होगी। उसके बाद उन्हें आसान बनाने के प्रयासों को लागू करना होगा।

          4. दूसरे क्षेत्रो की भागीदारी 
          दूसरे क्षेत्रो की भागीदारी अत्यंत आवश्यक है। जिसके तहत हम कॉर्पोरेट की सामाजिक जिम्मेदारी, अकेडमिक सामाजिक जिम्मेदारी, सोसाइटी की सामाजिक जिम्मेदारी जैसे नवाचारी प्रयासों की मदद लेनी होगी। इससे यह कार्य एक आंदोलन की शक्ल लेगा। जिससे सभी प्रयासों की प्रभावशीलता में इजाफा होगा और हम उद्देश्य के अधिक करीब पहुंचेंगे।

          निष्कर्ष :
          भारतीय संस्कृति सर्वे भवन्तु सुखिनः की रही है। जिसमे सभी लोगो के सुखी होने के आदर्श को स्थापित किया गया है।  इसलिए हमे सरकारी रवैये में भी कष्ट निवारण  से कष्ट उन्मूलन की तरफ बढ़ना होगा। इस कार्य के लिए सरकार को अपनी जिम्मेदारी को एक योजना के लागू करने से बढाकर विभिन्न योजनाओ के बीच संतुलन स्थापित करना होगा। 

          बनारस में वर्ष 2014 के आम चुनाव के संस्मरण

          वर्ष 2018 के आम चुनावो की आहट शुरू हो गई है। इसी सिलसिले में में मुझे वर्ष 2014 के आम चुनाव में बनारस का मुकाबला याद आ जाता है। दो लोकप्रिय उम्मीदवार अरविंद केजरीवाल और नरेंद्र मोदी के बनारस से चुनाव लड़ने के कारण, वह पूरे भारत की लाइम लाइट में आ गया था। देश की राजनीती की दिशा भी वहां से जुडी हुई थी। तो उस मुकाबले को कवर करने के लिए देश -विदेश के पत्रकार बनारस में इकठ्ठे हुए थे।

          उस दौरान मैं IIT(BHU) से अपनी इंजीनियरिंग का तीसरा साल समाप्त कर रहा था। जब यह लग गया कि इंजीनियरिंग में अपना कुछ होना नहीं है तो मैंने सिविल सेवाओं की तयारी शुरू कर दी थी। इस वजह से देश के जमीनी मुद्दों पर एक समझ विकसित हो गई थी, जिसकी बदौलत यह तय करने में आसानी होने लगी कि कोनसा नेता झूठ बोल रहा है और कोनसा सही बात कर रहा है। इसलिए मैंने अपने साथियों के साथ इस चुनाव में आम आदमी पार्टी का समर्थन किया। हालांकि कॉलेज में सभी दलों का समर्थन करने वाले छात्र मौजूद थे।

          आम आदमी पार्टी की तरफ आकर्षण
          उस दौरान लोकसभा चुनावों में पहली बार उतरे केजरीवाल सिविल सेवा को ही छोड़कर आये थे और IITian भी थे, वे बाते भी व्यवस्था में बदलाव की कर रहे थे। इन सभी चीजों की वजह से मेरा आकर्षण आम आदमी पार्टी की तरफ हो गया। साथ में पढ़ने वाले लगभग 20-25 लड़को की एक टीम बना ली थी। सबको आम आदमी पार्टी के पक्ष में कर लिया और विरोध करने वालो को स्वच्छ राजनीती का पाठ पढ़ने लग गए। केजरीवाल जब बनारस आये तो कई लड़को ने वोलियन्टर बनकर उसका सहयोग भी किया। केजरीवाल के साथ आये स्टार प्रचारकों से भी सम्पर्क किया। आम आदमी पार्टी को वित्तीय सहायता के लिए ऑनलाइन डोनेशन भी दिया। उसी समय टाइम पत्रिका ने विश्व के प्रभावशाली लोगो के लिए वोटिंग करवाई थी, जिसमे केजरीवाल के पक्ष में मतदान के लिए छात्रों को प्रेरित किया। पार्टी के प्रचार के सिलसिले में आने वाले कई लोगों से मुलाकात की।

          बाद में जब जब परिणाम आया तो केजरीवाल बुरी तरीके से हार गए और नरेंद मोदी की देश में पूर्ण बहुमत की सरकार बनी,  इस तरह हमारी इच्छाओ की हार हो गई। बाकी लड़को के सामने शर्मिंदा होना पड़ा। मैंने इसके बाद राजनीती में सक्रिय रूचि से मुँह मोड़ लिया और सिविल सेवाओं की जरूरतों के अनुकूल पार्टी लाइन से ऊपर उठकर निष्पक्षता को मन में बिठा लिया। बाकी के लड़को को अपनी शर्मिंदगी मिटाने का अवसर तब मिला जब केजरीवाल ने अगले साल वर्ष 2015 में दिल्ली विधानसभा की 70 में से 67 सीट जीत ली। लेकिन आगे केजरीवाल ने भी अपनी पार्टी को एक  कम्पनी की शक्ल दे दी और कई गणमान्य सदस्यों को उपेक्षित कर दिया, तो बाकी साथियो का भी आम आदमी पार्टी से मोह खत्म हो गया। आगे वे भाजपा विरोध को आगे जारी रखने के लिए कांग्रेस की तरफ आकर्षित हो गए और खुद को अभी भी वहां पर राजनितिक रूप से सक्रिय बनाये हुए है। 

          लेकिन अब पांच साल बाद मेरा मन उस घटनाक्रम और राजनीती का विश्लेषण करने का कर रहा है। कुछ बुनियादी प्रश्न है जिन पर विचार करते है -
          >क्या मोदी उस समय अजेय थे?
          >क्या केजरीवाल भी एक विकल्प था।

          सभी के मन में यही सवाल था कि क्या अरविंद केजरीवाल बनारस में भी दिल्वली की कहानी दोहराएंगे, जहां  दिल्ली में खुद शीला दीक्षित के सामने खड़े होकर उसे शिकस्त दी थी। चाहे कुछ भी हो लेकिन केजरीवाल ने किसी भी प्रकार के चमत्कार की उम्मीद अंतिम समय तक रखी और अंत तक संघर्ष किया। 

          संभावनाए और समीकरण :
          1. सब को पता था कि पिछले दो-तीन सालों में जो घोटाले कांग्रेस ने किए है, उसकी वजह से वह सत्ता में कभी नही आ पाएगी। ऐसे में भाजपा के गठबंधन दलों को भावी सरकार के तौर पर देखा जा रहा था। लेकिन भ्रष्टाचार के मुद्दे पर आधारित अन्ना आंदोलन को सहारा बनाकर केजरीवाल द्वारा गठित पार्टी की लोकप्रियता बढ़ती जा रही थी। दिल्ली में लोकलुभावन वादों के सहारे अपनी जगह बनाने वाले केजरीवाल ने खुद शीला दीक्षित को शिकस्त दे डाली, इसके बाद वे केंद में सरकार के ख्याली पुलाव बनाने लगे। और इसी के तहत उन्होंने नरेंद मोदी के खिलाफ बनारस से लड़ने का मन बना लिया था। वही पार्टी के दूसरे दिग्गज नेता कुमार विश्वास को राहुल गांधी के खिलाफ अमेठी से खड़ा कर दिया था ।                               
          2. मोदी को प्रधानमंत्री नही देखने वालों का मानना था कि केजरीवाल ने अगर कैसे भी करके मोदी को बनारस में हरा दिया तो बनारस से हारे हुए मोदी को न तो भाजपा और नही सहयोगी कभी प्रधानमंत्री बनाएंगे। इसलिए सभी केजरीवाल का मूक समर्थन कर रहे थे। लेकिन केजरीवाल की मंशा किसी के समझ में नही आ रही थी। क्योंकि उसने राहुल गांधी के खिलाफ भी बड़ा उम्मीदवार खड़ा कर दिया था। सपा, बसपा से भी उसकी कोई खास बन नही पा रही थी। दूसरे दलों में से केवल नीतीश कुमार की पार्टी ने समर्थन दिया, शरद कुमार प्रचार के लिए भी आये थे ।
          3. यह बात सच मे भी थी। राजनाथ सिंह उस समय भाजपा के अध्यक्ष थे, वे कही न कही ऐसे मौकों का इंतजार भी कर रहे थे। मोदी की टीम को भी पता चल तो उसके समर्थकों ने यह कहना भी शुरू कर दिया था कि अगर मोदी को PM बनाना है तो राजनाथ को हराना है। लखनऊ से खुद के खिलाफ हवा देखकर राजनाथ को कहना पड़ा कि भाई मुझे हराओ मत, जिताओ में आगे रुकावट नही बनूंगा। तब जाकर उसके पक्ष में माहौल बनाया गया।
          प्रचार अभियान :
          जब बनारस में प्रचार शुरू हुआ तो भाजपा ने केजरीवाल को रायता फैलाने वाले के तौर पर देखा और उसके प्रति बिल्कुल भी सहनशीलता नही दर्शाई गई। वैसे तो मोदी विकास के गुजरात मॉडल पर चुनाव लड़ रहे थे। लेकिन यह विकास की बजाय चुनाव जीतने का मॉडल ज्यादा था। जिसमे विरोधी उम्मीदवार को डराया-धमकाया जाता है। 

          बनारस में जगह-जगह पोस्टर लगाए गये कि देखो दिल्ली का भगोड़ा आया हैं। जो दिल्ली में टिक नही सका वो बनारस में क्या टिकेगा। इस आरोप पर केजरीवाल सफाई देते रहे लेकिन उन्हें सुनने के लिए जनता मौजूद नही थी।

          केजरीवाल का स्वागत अंडे फेंककर किया गया। इसके मंत्रियों को पीटा गया जिनमे सोमनाथ भारती शामिल थे। इस का समर्थन कर रहे रोडीज के रघु राम को बीएचयू में पीटा गया। इसका मतलब था कि भाजपा वास्तविक तौर पर केजरीवाल से डरी हुई थी।

          मजबूत और कमजोर पक्ष :
          लेकिन माहौल भाजपा के पक्ष में ही था। जिसके कई कारण तलाशे जा सकते है। पिछली बार भी भाजपा का ही सांसद मुरली मनोहर जोशी थे, जिन्हें मोदी के लिए सीट खाली करके कानपुर भेजा गया था। दूसरी तरफ बनारस हिंदू धर्म का गढ़ मानी जा सकती है। मोदी को स्थानीय जनता ने एक तारणहार के तौर पर देखा।  'हर हर मोदी, घर घर मोदी' नारा कोई कल्पना मात्र नही था। केजरीवाल के पास जनता के दिल मे बसने का ऐसा कोई कारण नही था।

          वही भाजपा के पास समर्पित स्थानीय कार्यकर्ताओ का संगठन था। जिन्होंने पार्टी के प्रचार के साथ ही केजरीवाल का विरोध बढ़ चढ़कर किया। जबकि केजरीवाल के पास दिल्ली और एनसीआर से ले जाये गए बन्दे थे, जिन्हें स्थानीय परिस्थितियों की समझ नही थी। फिर राष्ट्रीय नेता का दम्भ भरते केजरीवाल के अहंकार को सन्तुष्ट करने के लिए यह भीड़ उनके साथ ही जाती थी। चाहे अमेठी हो, नागपुर हो, गुजरात हो या फिर दिल्ली एनसीआर हो। सीधी सी बात है इस वजह से कही पर भी फोकस नही हो पाया। फिर भाजपा कार्यकर्ताओं ने भी आप के टूरिस्ट कार्यकर्ता के पैर नही टिकने दिए। उन्हें न तो आराम से रहने दिया और न ही अपनी बात रखने दी। उनकी सभाओ में मंच के पास जाकर विरोधी नारे लगाए।

          खुद केजरीवाल को भी इस खराब स्थिति का आंकलन हो गया था। भले ही उन्होंने माना नही हो, लेकिन उनके ढीले पड़े Attitude से इसका अंदाजा लगाया जा सकता था।

          केजरीवाल की राजनीति अवसरवाद से भरी हुई थी। जिसे दूसरे दल कतई नही समझ पा रहे थे। वही मीडिया के ऊपर भी केजरीवाल ने लांछन लगा दिया। इसके बाद वे एस्टबलिशमेंट के निशाने पर आ गए।

          चुनावी मुद्दे :
          भाजपा का एजेंडा पुरे देश के समान मोदी था। जिसके सामने उत्साहित कार्यकर्ता किसी भी विरोधी  मुद्दे को नहीं टिकने दे रहे थे। वही केजरीवाल के पास कोई ठोस मुद्दा नहीं था। वे कह रहे थे कि प्रधानमंत्री का उम्मीदवार होने का मतलब यह नहीं कि इससे आपके क्षेत्र को तगड़े विकास की गारंटी मिल गई है। इस बात को ज्यादा तवज्जो भी नहीं मिल पाई।

          वही केजरीवाल को रक्षात्मक भूमिका में ला दिया। जगह-जगह भाजपा ने ४९ दिन के बाद दिल्ली से सरकार छोड़कर भागने का ताना मारने वाले पोस्टर लगा दिए। केजरीवाल इसका कोई ठोस जवाब नहीं दे पाए। दो बड़े उम्मीदवारों की खींचतान में अन्य उम्मीदवारों के मुद्दे दबकर रह गए।

          दूसरे दलों की भूमिका :
          दूसरे दल इस लड़ाई में भागीदारी का दस्तूर पूरा कर रहे थे। कांग्रेस ने पहले तो कद्दावर नेता की तलाश की थी जिसमे सचिन तेंदुलकर और रेखा के नामो की चर्चा हुई थी। लेकिन आगे फिर स्थानीय व्यक्ति को ही टिकट दे दिया। सपा और बसपा ने भी अपने उम्मीदवार खड़े किए थे। जिनको ठीक ठाक संख्या में वोट प्राप्त हुए थे।

          वोट बैंक का विश्लेषण  :
          उत्तरप्रदेश की राजनीति पर गौर करे तो हम पाते है कि दलित वर्ग बसपा और कांग्रेस दोनो का वोटबैंक है, वही मुस्लिम समुदाय सपा और कांग्रेस दोनो का वोटबैंक है। रही बात पिछड़े वर्ग की तो ये सपा के हिस्से में रहे है, वही उच्च जाति के सवर्ण वर्ग भाजपा के वोटबैंक रहे है।
          दलित वर्ग = बसपा और कांग्रेस 
          मुस्लिम =  सपा और कांग्रेस 
          पिछड़े वर्ग = सपा 
          सवर्ण वर्ग = भाजपा
          अब भाजपा को ऐसा लग रहा था कि केजरीवाल शहरी सवर्ण वर्ग के वोट बांट कर नुकसान पहुचाएगा। वही केजरीवाल दलित और मुस्लिम समुदाय को भी आकर्षित करने की रणनीति पर चल रहे थे। इसलिए वहां के मुस्लिम धर्मगुरुओं से मुलाकात की। लेकिन यह बंटा हुआ मोदी विरोध अपने उद्देश्य में विफल रहा था।

          परिणाम :
          जब अंतिम परिणाम आये तो मतगणना के दिन केजरीवाल बनारस आये थे, इसका मतलब था कि अपने अनुमान के अनुसार वे जितने की उम्मीद रखते थे। लेकिन दोपहर तक प्रतिकूल परिणाम पाकर निकल लिए। अब बनारस आने की बारी मोदी की थी। उन्हें पूरे देश मे भी भारी बहुमत मिला था। उनका सपना पूरा हो गया था, उन्होंने गंगा घाट पर जाकर आरती की।

          कुछ अन्य रोचक घटनाए :
          1. भाजपा मुस्लिम बाहुल्य इलाके में रैली करना चाहती थी। लेकिन निर्वाचन अधिकारी प्रांजल यादव ने साफ मना कर दिया। भाजपा ने विरोध करते हुए बीएचयू के गेट पर धरना भी दिया, लेकिन नाकाम रहा।
          2. मोदी की तरफ से प्रचार अभियान भाजपा के बजाय खुद मोदी की टीम के पास था। अमित शाह उस समय उत्तर प्रदेश के प्रचार प्रभारी थे।
          3. बाबा रामदेव ने मोदी का प्रचार किया था। वैसे तो ये व्यवसायी है । इन्होंने पूरे शहर में 100% मतदान होना चाहिए के बोर्ड लगाए। हालांकि किसके पक्ष में इसका उल्लेख नही करके चुनाव आयोग की नजरों से बच गए।
          4. आम आदमी पार्टी के भी कई कार्यकर्ताओ ने गली-गली में धूल छानी। अलका लांबा ने अकेले ही पूरे शहर में पैदल घुमफिरके पर्चे बांटे, बाद में उसे दिल्ली से टिकट मिला और वह विधायक बनी।
          5. मीडिया ने अघोषित रूप से केजरीवाल का बहिष्कार कर दिया। किसी भी अखबार में कोई खबर नही मिलती थी। यह सब ऊपर से मिले निर्देशो का नतीजा कहा जा सकता है। कॉर्पोरेट मीडिया क्या कर सकता है। इस चीज को यहां से समझ सकते है। 

          निष्कर्ष :
          यह एक ऐतिहासिक चुनाव था, जिसके गवाह बनने का मौका मिला। लेकिन उसके बाद से आप की राजनीति से मोहभंग हो गया। वह कुछ ज्यादा ही व्यक्तिवादी हो चली थी। पूरी पार्टी को केजरीवाल ने हाइजेक कर लिया और उसे एक कॉरपोरेट कम्पनी की तरह चलाने लगे। अंततः कह सकते है कि भोले मनो को ठगने के इस जाल में  केजरीवाल विफल रहे और मोदी इस कार्य मे जीत गये।

          PRESENTING LOGIC THROUGH GRAPHS

          हम सभी आंकड़ों के युग में जी रहे है। जिसके तहत  किसी प्लेटफार्म पर हमारी बात में तब तक कोई वजन नहीं आएगा, जब तक कि हम उस बात को आंकड़ों के माध्यम से स्थापित नहीं कर देते। सरकारी कामकाज की कार्यप्रणाली इसी तरह की होती है। जहां कोई भी पॉलिसी तबतक विश्वसनीय नहीं मानी जाती, जब तक की उसे आंकड़ों के माध्यम से स्थापित नहीं कर दिया जाता। सरकार न केवल योजना बनाने क लिए आंकड़े एकत्रित करती है। बल्कि वह योजनाओ के क्रियान्वयन के पश्च्यात भी आंकड़े जारी करती है।  ताकि विपक्षी दलों और जनता को सरकार की कर्मण्य प्रवृति का अहसास हो सके। इस कार्य में सरकार को सहयोग करने के लिए कई सरकारी एजेंसी, विभाग यहां तक कि मंत्रालय तक निर्मित किये गए है। खुद सरकार भी इन आंकड़ों के प्रसार में दिलचस्पी रखती है , जिसका उदाहरण है RTI एक्ट के माध्यम से आंकड़े को जनता के सामने रखने की इच्छा व्यक्त करना ।

          अगर गौर से नजर दौड़ाये तो  ये आंकड़ों का संसार कई लोगो को आकर्षित कर सकता है। जो आंकड़ों के संग्रहण, विश्लेषण, प्रस्तुतिकरण के माध्यम से  विभिन्न क्षेत्रो में मदद कर सकते है -
          1. यह ऐसी सिविल सोसाइटी को आकर्षित कर सकता है जो आंकड़ों के विश्लेषण के माध्यम से नीति-निर्माण में सरकार की सहायता करनी चाहती हो। ऐसा करके वे सुधार के क्षेत्रो की पहचान में मदद कर सकती है। पश्चिमी देशो की कई संस्थाए इंडेक्स और स्केल के माध्यम से इन आंकड़ों को प्रस्तुत करके दुनिया भर के देशो की नीतियों को प्रभावित करने में लगी हुई है। इसके सकारत्मक पहलु तो यह है की इससे कार्यवाही करने योग्य क्षेत्रो की पहचान होती है। वही नकारत्मक यह है कि देशो की नीतियों की सम्प्रभुता प्रभावित होती है। 
          2. यह आंकड़े संग्रहण के क्षेत्र में कार्य करने वालो को आकर्षित करता है क्योकि वर्तमान समय में इन आंकड़ों के संग्रहण में कई प्रकार की चुनोतिया है। जिनमे प्रमाणिकता की कमी है क्योकि वे अकुशल कार्मिको के द्वारा जुटाए जाते है। समय पर अद्यतन नहीं किए होते है। एक व्यापक छवि बनाने के लिए केवल सैंपल पर निर्भर रहना पड़ता है। जाहिर सी बात है इस वजह से जो परिणाम पेश किए जाते है, वे वास्तविकताओं से अंतराल रखते है। 
          3. सरकार खुद अपने काम को वर्तमान में आउटसोर्स करने में लगी हुई है। इसलिए निजी क्षेत्रो का इस दिशा में सामने आना भविष्य की तैयारियों का अच्छा संकेत है। गूगल और फेसबुक दुनिया भर के आंकड़ों को एकत्रित करके व्यवस्थित करने में लगे हुए है। स्थानीय लोगो को भी इस आंदोलन का फायदा तभी मिलेगा, जब उनके मुद्दों और आदतों को इन आंकड़ों को माध्यम से विश्लेषित किया जाएगा। सरकार के लिए इन आउटसोर्स करने वाली इकाइयों के बीच समन्यव की आवश्यकता बढ़ती जायेगी। 
          4. बहुत सारे डेटा तो सरकार की मौजूदा पद्धति में ही मौजूद है जैसे की IRCTC, GSTN आदि। इनका BIG DATA  के माध्यम से विश्लेषण करके किसी निष्कर्ष पर पहुंचने की आवश्यकता है। ताकि जटिलता भरे विश्व को सुविधाजनक बनाया जा सके। इस कार्य के लिए निवेश तलाशने की आवश्यकता है। 
          5. इस आंकड़े का प्रयोग करके कई प्रकार की सामाजिक जिम्मेदारियों का निर्वाह करने में कॉर्पोरेट सेक्टर की मदद की जा सकती है। जो ट्रस्टीशिप में भरोसा करते हुए सकारत्मक योगदान देना चाहता है। कई क्रियान्वयन एजेंसी को भी इसकी जरूरत पड़ सकती है।  
          दूसरे देश और बाहर की कम्पनिया इस चीज का महत्व काफी पहले समझ चुकी है। भारत सरकार ने भी इसकी महत्ता को स्वीकारा है और डिजिटल इंडिया अभियान के तहत बहुत सारे कामकाजो की नीव रखने का कार्य किया है। अब जरुरत है तो सिर्फ इस अवसर का दोहन करने की। 

          इसके कई फायदे हो सकते है। जैसे की
          1. सुदूर और उपेक्षित क्षेत्रो का पक्ष आंकड़ों के माध्यम से मजबूती से रखा जा सकता है। जिसके कारण पॉलिसी लेवल पर उसके साथ हो रहे भेदभाव को खत्म करने में मदद मिल सकती है। जिसकी बदौलत उसे आसानी से मुख्यधारा में लाया जा सकता है। 
          2. आंकड़ों के माध्यम से अकर्मण्य संस्थाओ और कार्मिको को जवाबदेह बनाने में मदद मिलेगी। पारदर्शिता बढ़ेगी।  सुशासन का सपना साकार होगा। भ्रष्टाचार को रोकने में मदद मिलेगी। 
          3. सरकार की प्राथमिकता उच्च स्तरीय कामकाजो में सलग्न होने के लिए उपलब्ध हो सकेगी। 
          4. हम विभाजित राजनीती के चंगुल से मुक्त हो सकेंगे। केवल तथ्यों पर आधारित राजनीती की शुरुआत होगी , जो मजबूत होते लोकतंत्र की परिचायक होगी। 
          5. कई लोगो को इस कार्य में रोजगार उपलब्ध होगा। आंकड़ों के संग्रहण के लिए लोगो से होने वाला निरंतर सम्पर्क उनमे जागरूकता उत्पन्न करेगा। 
          6.  
          इस मौके का फायदा उठाने के लिए धन और समय के भारी निवेश की जरूरत होगी। विकेन्द्रीकृत ढांचे के अंदर कार्य शुरू किया जा सकता है। जो माइक्रो स्टडीज के माध्यम से ही उत्पादन करने में सक्षम हो सकेगा। और ऐसी छोटी -छोटी इकाइयां ही बेहतर विशेलषण प्रदान कर सकती है क्योकि कम आंकड़ों के साथ फोकस विचलित नहीं होगा। इसके लिए कई प्लेटफार्म हो सकते है जैसे किसी विभाग के साथ कार्य करना या फिर किसी जिले या क्षेत्र के साथ कार्य करना।  


          निष्कर्ष 
          अवसर हमारे सामने मौजूद है ,अब यह सिर्फ हम पर निर्भर करता है की हम इसके प्रति कैसे प्रतिक्रिया करते है। हम उदासीन रहकर विदेशी कम्पनियो को यह सब करते हुए देखना चाहते है या फिर खुद भी इस रेस में दौड़ना चाहते है। अगर हम दूसरा विकल्प चुनते है तो हमे सोचने से आगे जाना होगा और एक शुरआत करनी होगी। एक शुरुआत -बेहतर कल की। यह सुचना क्रांति के फायदों को अगले चरण में ले जाने वाली बात होगी। 


          ताजमहल के साथ वार्तालाप


          "मैं ताज हूं ,
          वक्त के गाल पर थमा हुआ आंसू हूं,

          मैं शब्दहीन ध्वनि और ध्वनिहीन शब्द का अंजाम हूं,
          मैं दिलो की धड़कन का आकार हूं,
          मैं एक ध्वनि का रूपांतरित दृश्य हूं,
          मैं इंसानी हौंसलो और इरादों का परचम हूं,

          मैं ताज हूं,
          संगमरमर पर लिखी हुई कविता हूं,
          मैं मनुष्य के अंतहीन सफर का एक पड़ाव हूं

          वियना यूनिवर्सिटी की प्रोफेसर और लेखिका इबा कोच से ताजमहल ने इस तरह बातचीत की। इस वार्तालाप के वाक्यो को दोबारा गौर से पढ़े तो कही पर भी ताजमहल बड़बोला नही लगता। वह इन सब बातों पर खरा उतरता है। यहां पर लेखिका ने एक पंक्ति रविन्द्र नाथ टेंगोरे से चुरा ली है जिन्होंने ताजमहल को 'काल के गाल पर थमा हुआ आंसू' बताया था।

          इबा कोच ही नही यहां आने वाले सभी सैलानियों से ताजमहल कुछ न कुछ बाते जरूर करता है। किसी से वह प्रदूषण के कारण व्हाइट मार्बल के बदलते रंग पर बात करता है, तो किसी से यहां के पर्यटन व्यवसाय में लगे लोगो की गुस्ताखीयो को नजरअंदाज करने की कहता है, किसी को वह प्रेम और सद्भाव के पन्ने पढ़ाता है। वहीं जो चंचल मन वाले लोग है उन्हें कहता है कि तुम फोटोज लेकर ही अपनी मुलाक़ात को यादगार बना लो, क्योंकि इस परिसर की हर एक जगह सेल्फी/फोटोग्राफी पॉइंट है।

          मेरी भी ताजमहल के साथ इतिहास और संस्कृति से जुड़े विषयो पर लंबी बातचीत हुई। जिसका सार नीचे दे रहा हूँ -
          1. ताजमहल के निर्माण से कई मिथक जुड़े हुए है। कहा जाता है कि इसके ऊपर किए जा रहे खर्चे और ऊर्जा के व्यव से मुगल परिवार के दूसरे सदस्य खुश नही थे। जहांआरा जिन्होंने शाहजहां की अंतिम समय मे देखभाल की थी उन्होंने तो प्रतिक्रिया स्वरूप कह भी दिया था कि मेरी कब्र पर तो केवल घासफूस लगा देना। लेकिन ताजमहल के निर्माण में लगे मजदूरों की संख्या, निर्माण राशि की विशालता, बर्षो की मेहनत आदि सभी चीजो को आखिरी कृति न्यायोचित ठहरा देती है।

            ताजमहल फुरसत और बिना जल्दबाजी का नतीजा है। कही पर भी इसमे सममिति को भंग नही किया गया है। वैसे तो फुरसत में बनाई गई चीज मुहावरे का प्रयोग आशिक़ लोग लड़कियों के नैन-नक्श की सुंदरता के लिए करते है। लेकिन एक आशिक़ की इस कृति पर भी यह बात सटीक बैठती है। प्यार करने वाले लोगो ने तो शाहजहां पर यह भी आरोप लगाया है कि उसने मोहब्बत को दौलत से जोड़ दिया, जिस पर प्रतिक्रिया देते हुए साहिर लुधियानवी ने लिखा है कि -"इक शहंशाह ने दौलत का सहारा ले करहम गरीबों की मुहब्बत का उड़ाया है मज़ाकमेरे महबूब, कहीं और मिला कर मुझसे ! "

          2. दुनिया मे कोई भी रिकॉर्ड या उपलब्धि ज्यादा दिन नही टिकती, कुछ ही दिनों में उससे ज्यादा प्रतिभाशाली लोग उसे पार कर जाते है। लेकिन आज तक कोई भी ताजमहल की उत्कृष्टता को सफलतापूर्वक चुनोती नही दे पाया। कई लोगो ने इसे मात देने की कोशिश की लेकिन सब नाकाम रहे। इस सिलसिले में औरंगजेब  ने बीबी का मकबरा बनाया, वही अंग्रेज़ो ने भी कोलकाता में विक्टोरिया मेमोरियल बनाया, दोनो ही भोंडी नकल साबित हुए। इस मामले में खुद मुगल भी इतने सतर्क थे कि बनाने वाले कारीगरों के हाथ कटवा दिए गए। ऐसे में स्वतंत्र रूप से चुनोती देने वाली आकृति तो दूर की चीज हो जाती है। अतः बिना शक के कह सकते है कि दुनिया ताजमहल की अवधारणा (Concept of Tajmahal) की सर्वोच्चता को ही पार नही कर पाई है।

          3. ताजमहल की अवधारणा एक ऐसे मकबरे के रूप में की गई थी जो विशाल और भव्य हो। आज तो इस परिसर को सैलानियों से ही फुर्सत नही मिल पाती। लेकिन पहले के दिनों में इतनी बड़ी इमारत और बगीचे का सन्नाटा बाकी के लोगो को बताता होगा कि यहां एक महान आत्मा आराम कर रही है जिसे डिस्टर्ब नही किया जाए। दरअसल बाग-बगीचों में मकबरे बनाने की प्रथा इस्लाम मे विकसित हुई, जिसमे मुगलो ने चार बाग शैली की शुरुआत की।

          4. हमारे इतिहासकारो की नजर में भी यह तत्कालीन मुगल साम्राज्य की अर्थव्यवस्था में आई दरार को ढकने का प्रयास था, ताकि लोगो को ध्यान जर्जर होते साम्राज्य पर नही जा पाए और वे बगावत नही करे। लेकिन यह राज्य की असुरक्षाओं को कम नही कर सका।

          5. लाल किले के लिए लाल पत्थर और ताजमहल के लिए सफेद मार्बल दोनो की आपूर्ति राजस्थान से की गई थी। ऐसे विशालकाय स्थापत्य किसी साम्रज्य की महिमा को फैलाते थे और तत्कालीन राजपूती शासक मुगल साम्राज्य के इस कार्य में उल्लेखनीय योगदान दे रहे थे। बदले में मुगलो ने भी राजपूती शासको को खुश करने के लिए हिन्दुओ के साथ समन्वित व्यवहार किया। बिना राजपूती शासको के सहयोग के इसका निर्माण असम्भव था। अतः यह गंगी जुमनी तहजीब का उत्पाद है।

          6. ताजमहल आगरा से हिंदुस्तान पर राज करने वाले बादशाह का निर्माण कार्य है। इसके बाद उनकी राजधानी दिल्ली हो गई, जैसे ही राजधानी दिल्ली गई, वहां जाते ही कठमुल्लों के द्वारा कट्टरपंथ को हावी कर दिया गया और समन्वित संस्कृति का दारा शिकोह की तरह कत्ल कर दिया गया। अतः दिल्ली की इमारतों में इस्लाम हावी हो गया। हो सकता है इतने दिन रहने के बाद उसके पर ज्यादा निकल आये हो। इसलिए दिल्ली में मुस्लिमों ने हमेशा खुद को राज करने वालो की तरह ही पेश किया, यहाँ तक कि आज भी बुखारी और शाही इमाम राजनीतिक दलों को धर्मनिरपेक्षता का सर्टिफिकेट बांटकर इसका दस्तूर पूरा करते हो। मतलब हिन्दू-मुस्लिम में बांटने की राजनीति तो दिल्ली के डीएनए में है । आगे अंग्रेजों के टाइम पर फुट डालो राज करो कि नीति भी कोलकाता से दिल्ली राजधानी स्थान्तरित करने पर ही गति पकड़ी थी। वर्तमान में लोकतंत्र के युग मे भी यह जारी है।
            देख लो, दोनो ही शहर यमुना के किनारे है लेकिन दोनों जगह के पानी में शासन के तरीकों को लेकर मूलभूत अंतर है। एक बात और यह है कि भले ही आगे यमुना गंगा में जाकर मिल जाती हो, लेकिन इतिहास में तो यमुना ही गंगा पर हावी रही है। महाभारत काल मे भी हस्तिनापुर का उदाहरण मिल जाएगा।

          7. मुगलो द्वारा राजधानी को आगरा से दिल्ली ले जाना उनके हित मे बिल्कुल भी नही रहा। आगरा भारतीय उपमहाद्वीप के लगभग केंद्र में था। दिल्ली जाते ही उनकी राज्य पर पकड़ कमजोर हो गई और अवध, बंगाल और हैदराबाद जैसे प्रान्त सम्भाल रहे उनके वजीर आज़ाद हो गए। एक तरीके से उनकी सोने की मुर्गी उड़कर चली गई। उनके दूर जाने से बगल में ही शक्तिशाली मराठा उभर आये, राजपूत राज्य आज़ाद हो गए, जाट और सिक्ख राज्यो का उदय हुआ। इतने सारे राज्यों के चले जाने के बाद मुगल केंद्रीय सत्ता को समय पर न तो राजस्व मिलता था और न ही सैनिक सहायता। इसकी बदौलत उसकी जीर्ण होती दशा को विरोधियों ने भी अवसर के तौर पर देखा। अफगानों ने आक्रमण कर दिया और मुगल बादशाह को मराठो को उनसे निपटने के लिए कहना पड़ा। अंग्रेज़ इन सबको नजदीक से देख रहे थे और उन्होंने भी मौका मिलते ही बक्सर में अपने हाथ सेंक लिए जहां से भारत की गुलामी का मार्ग प्रशस्त हुआ। कहने का मतलब है कि आगरा से बाहर गई राजधानी के प्रभावों को मुगल सल्तनत पचा नही पाई। शायद आगरा के  हवा पानी की बात ही अलग थी। अगर राजधानी यही रहती तो गुलामी का इतिहास अलग रहा होता।

          8. ताजमहल आगरा में स्थायित्व प्राप्त कर रहे साम्राज्य की परिपक्व होती स्थापत्य कला का उदाहरण है। जिसने यह उपलब्धि चरणबद्ध प्रयोगों के माध्यम से प्राप्त की थी। मैं यह कहना चाह रहा हु कि अगर मुगल बादशाह आगरा में ही टीके रहते तो अगले निर्माण कार्यो में ओर अधिक उत्कृष्टता उजागर हो सकती थी। उन्होंने दिल्ली में तो जाते ही आगरा शैली को लगभग छोड़ दिया।
          इस तरह हमारे बीच बातचीत में हमने भूतकाल की बातों को आगे के इतिहास से जोड़कर देखा। ताजमहल सच मे ही काफी इतिहास छुपाए बैठे है, जिन पर अध्ययन किया जाता रहा है।

          निष्कर्ष :

          आगरा को प्रधानमंत्री मोदी जी के स्वच्छ भारत अभियान का मजाक उड़ाते रेलवे ट्रैक के आधार पर ही जज नही किया जाना चाहिए,  स्टेशन के पास की पुरानी बस्तियों की भीड़भाड़ से थोड़ा सा आगे चलकर देखे तो यह भी बाकी शहरों की तरह ही है। जहां पर खुली हुई कॉलोनी है, साफ सुथरे और चौड़े रोड है, मिलनसार और हँसमुख लोग है। अब आगरा को देश के 100 स्मार्ट सिटीज में जगह भी मिल पाई है। इससे  बनने वाले स्मार्ट सोलुशन लोगो को आकर्षित करेंगे ।आखिरकार यह शहर भारत के गौरवशाली इतिहास का साक्षी जो रहा है।