बनारस में वर्ष 2014 के आम चुनाव के संस्मरण

वर्ष 2018 के आम चुनावो की आहट शुरू हो गई है। इसी सिलसिले में में मुझे वर्ष 2014 के आम चुनाव में बनारस का मुकाबला याद आ जाता है। दो लोकप्रिय उम्मीदवार अरविंद केजरीवाल और नरेंद्र मोदी के बनारस से चुनाव लड़ने के कारण, वह पूरे भारत की लाइम लाइट में आ गया था। देश की राजनीती की दिशा भी वहां से जुडी हुई थी। तो उस मुकाबले को कवर करने के लिए देश -विदेश के पत्रकार बनारस में इकठ्ठे हुए थे।

उस दौरान मैं IIT(BHU) से अपनी इंजीनियरिंग का तीसरा साल समाप्त कर रहा था। जब यह लग गया कि इंजीनियरिंग में अपना कुछ होना नहीं है तो मैंने सिविल सेवाओं की तयारी शुरू कर दी थी। इस वजह से देश के जमीनी मुद्दों पर एक समझ विकसित हो गई थी, जिसकी बदौलत यह तय करने में आसानी होने लगी कि कोनसा नेता झूठ बोल रहा है और कोनसा सही बात कर रहा है। इसलिए मैंने अपने साथियों के साथ इस चुनाव में आम आदमी पार्टी का समर्थन किया। हालांकि कॉलेज में सभी दलों का समर्थन करने वाले छात्र मौजूद थे।

आम आदमी पार्टी की तरफ आकर्षण
उस दौरान लोकसभा चुनावों में पहली बार उतरे केजरीवाल सिविल सेवा को ही छोड़कर आये थे और IITian भी थे, वे बाते भी व्यवस्था में बदलाव की कर रहे थे। इन सभी चीजों की वजह से मेरा आकर्षण आम आदमी पार्टी की तरफ हो गया। साथ में पढ़ने वाले लगभग 20-25 लड़को की एक टीम बना ली थी। सबको आम आदमी पार्टी के पक्ष में कर लिया और विरोध करने वालो को स्वच्छ राजनीती का पाठ पढ़ने लग गए। केजरीवाल जब बनारस आये तो कई लड़को ने वोलियन्टर बनकर उसका सहयोग भी किया। केजरीवाल के साथ आये स्टार प्रचारकों से भी सम्पर्क किया। आम आदमी पार्टी को वित्तीय सहायता के लिए ऑनलाइन डोनेशन भी दिया। उसी समय टाइम पत्रिका ने विश्व के प्रभावशाली लोगो के लिए वोटिंग करवाई थी, जिसमे केजरीवाल के पक्ष में मतदान के लिए छात्रों को प्रेरित किया। पार्टी के प्रचार के सिलसिले में आने वाले कई लोगों से मुलाकात की।

बाद में जब जब परिणाम आया तो केजरीवाल बुरी तरीके से हार गए और नरेंद मोदी की देश में पूर्ण बहुमत की सरकार बनी,  इस तरह हमारी इच्छाओ की हार हो गई। बाकी लड़को के सामने शर्मिंदा होना पड़ा। मैंने इसके बाद राजनीती में सक्रिय रूचि से मुँह मोड़ लिया और सिविल सेवाओं की जरूरतों के अनुकूल पार्टी लाइन से ऊपर उठकर निष्पक्षता को मन में बिठा लिया। बाकी के लड़को को अपनी शर्मिंदगी मिटाने का अवसर तब मिला जब केजरीवाल ने अगले साल वर्ष 2015 में दिल्ली विधानसभा की 70 में से 67 सीट जीत ली। लेकिन आगे केजरीवाल ने भी अपनी पार्टी को एक  कम्पनी की शक्ल दे दी और कई गणमान्य सदस्यों को उपेक्षित कर दिया, तो बाकी साथियो का भी आम आदमी पार्टी से मोह खत्म हो गया। आगे वे भाजपा विरोध को आगे जारी रखने के लिए कांग्रेस की तरफ आकर्षित हो गए और खुद को अभी भी वहां पर राजनितिक रूप से सक्रिय बनाये हुए है। 

लेकिन अब पांच साल बाद मेरा मन उस घटनाक्रम और राजनीती का विश्लेषण करने का कर रहा है। कुछ बुनियादी प्रश्न है जिन पर विचार करते है -
>क्या मोदी उस समय अजेय थे?
>क्या केजरीवाल भी एक विकल्प था।

सभी के मन में यही सवाल था कि क्या अरविंद केजरीवाल बनारस में भी दिल्वली की कहानी दोहराएंगे, जहां  दिल्ली में खुद शीला दीक्षित के सामने खड़े होकर उसे शिकस्त दी थी। चाहे कुछ भी हो लेकिन केजरीवाल ने किसी भी प्रकार के चमत्कार की उम्मीद अंतिम समय तक रखी और अंत तक संघर्ष किया। 

संभावनाए और समीकरण :
  1. सब को पता था कि पिछले दो-तीन सालों में जो घोटाले कांग्रेस ने किए है, उसकी वजह से वह सत्ता में कभी नही आ पाएगी। ऐसे में भाजपा के गठबंधन दलों को भावी सरकार के तौर पर देखा जा रहा था। लेकिन भ्रष्टाचार के मुद्दे पर आधारित अन्ना आंदोलन को सहारा बनाकर केजरीवाल द्वारा गठित पार्टी की लोकप्रियता बढ़ती जा रही थी। दिल्ली में लोकलुभावन वादों के सहारे अपनी जगह बनाने वाले केजरीवाल ने खुद शीला दीक्षित को शिकस्त दे डाली, इसके बाद वे केंद में सरकार के ख्याली पुलाव बनाने लगे। और इसी के तहत उन्होंने नरेंद मोदी के खिलाफ बनारस से लड़ने का मन बना लिया था। वही पार्टी के दूसरे दिग्गज नेता कुमार विश्वास को राहुल गांधी के खिलाफ अमेठी से खड़ा कर दिया था ।                               
  2. मोदी को प्रधानमंत्री नही देखने वालों का मानना था कि केजरीवाल ने अगर कैसे भी करके मोदी को बनारस में हरा दिया तो बनारस से हारे हुए मोदी को न तो भाजपा और नही सहयोगी कभी प्रधानमंत्री बनाएंगे। इसलिए सभी केजरीवाल का मूक समर्थन कर रहे थे। लेकिन केजरीवाल की मंशा किसी के समझ में नही आ रही थी। क्योंकि उसने राहुल गांधी के खिलाफ भी बड़ा उम्मीदवार खड़ा कर दिया था। सपा, बसपा से भी उसकी कोई खास बन नही पा रही थी। दूसरे दलों में से केवल नीतीश कुमार की पार्टी ने समर्थन दिया, शरद कुमार प्रचार के लिए भी आये थे ।
  3. यह बात सच मे भी थी। राजनाथ सिंह उस समय भाजपा के अध्यक्ष थे, वे कही न कही ऐसे मौकों का इंतजार भी कर रहे थे। मोदी की टीम को भी पता चल तो उसके समर्थकों ने यह कहना भी शुरू कर दिया था कि अगर मोदी को PM बनाना है तो राजनाथ को हराना है। लखनऊ से खुद के खिलाफ हवा देखकर राजनाथ को कहना पड़ा कि भाई मुझे हराओ मत, जिताओ में आगे रुकावट नही बनूंगा। तब जाकर उसके पक्ष में माहौल बनाया गया।
प्रचार अभियान :
जब बनारस में प्रचार शुरू हुआ तो भाजपा ने केजरीवाल को रायता फैलाने वाले के तौर पर देखा और उसके प्रति बिल्कुल भी सहनशीलता नही दर्शाई गई। वैसे तो मोदी विकास के गुजरात मॉडल पर चुनाव लड़ रहे थे। लेकिन यह विकास की बजाय चुनाव जीतने का मॉडल ज्यादा था। जिसमे विरोधी उम्मीदवार को डराया-धमकाया जाता है। 

बनारस में जगह-जगह पोस्टर लगाए गये कि देखो दिल्ली का भगोड़ा आया हैं। जो दिल्ली में टिक नही सका वो बनारस में क्या टिकेगा। इस आरोप पर केजरीवाल सफाई देते रहे लेकिन उन्हें सुनने के लिए जनता मौजूद नही थी।

केजरीवाल का स्वागत अंडे फेंककर किया गया। इसके मंत्रियों को पीटा गया जिनमे सोमनाथ भारती शामिल थे। इस का समर्थन कर रहे रोडीज के रघु राम को बीएचयू में पीटा गया। इसका मतलब था कि भाजपा वास्तविक तौर पर केजरीवाल से डरी हुई थी।

मजबूत और कमजोर पक्ष :
लेकिन माहौल भाजपा के पक्ष में ही था। जिसके कई कारण तलाशे जा सकते है। पिछली बार भी भाजपा का ही सांसद मुरली मनोहर जोशी थे, जिन्हें मोदी के लिए सीट खाली करके कानपुर भेजा गया था। दूसरी तरफ बनारस हिंदू धर्म का गढ़ मानी जा सकती है। मोदी को स्थानीय जनता ने एक तारणहार के तौर पर देखा।  'हर हर मोदी, घर घर मोदी' नारा कोई कल्पना मात्र नही था। केजरीवाल के पास जनता के दिल मे बसने का ऐसा कोई कारण नही था।

वही भाजपा के पास समर्पित स्थानीय कार्यकर्ताओ का संगठन था। जिन्होंने पार्टी के प्रचार के साथ ही केजरीवाल का विरोध बढ़ चढ़कर किया। जबकि केजरीवाल के पास दिल्ली और एनसीआर से ले जाये गए बन्दे थे, जिन्हें स्थानीय परिस्थितियों की समझ नही थी। फिर राष्ट्रीय नेता का दम्भ भरते केजरीवाल के अहंकार को सन्तुष्ट करने के लिए यह भीड़ उनके साथ ही जाती थी। चाहे अमेठी हो, नागपुर हो, गुजरात हो या फिर दिल्ली एनसीआर हो। सीधी सी बात है इस वजह से कही पर भी फोकस नही हो पाया। फिर भाजपा कार्यकर्ताओं ने भी आप के टूरिस्ट कार्यकर्ता के पैर नही टिकने दिए। उन्हें न तो आराम से रहने दिया और न ही अपनी बात रखने दी। उनकी सभाओ में मंच के पास जाकर विरोधी नारे लगाए।

खुद केजरीवाल को भी इस खराब स्थिति का आंकलन हो गया था। भले ही उन्होंने माना नही हो, लेकिन उनके ढीले पड़े Attitude से इसका अंदाजा लगाया जा सकता था।

केजरीवाल की राजनीति अवसरवाद से भरी हुई थी। जिसे दूसरे दल कतई नही समझ पा रहे थे। वही मीडिया के ऊपर भी केजरीवाल ने लांछन लगा दिया। इसके बाद वे एस्टबलिशमेंट के निशाने पर आ गए।

चुनावी मुद्दे :
भाजपा का एजेंडा पुरे देश के समान मोदी था। जिसके सामने उत्साहित कार्यकर्ता किसी भी विरोधी  मुद्दे को नहीं टिकने दे रहे थे। वही केजरीवाल के पास कोई ठोस मुद्दा नहीं था। वे कह रहे थे कि प्रधानमंत्री का उम्मीदवार होने का मतलब यह नहीं कि इससे आपके क्षेत्र को तगड़े विकास की गारंटी मिल गई है। इस बात को ज्यादा तवज्जो भी नहीं मिल पाई।

वही केजरीवाल को रक्षात्मक भूमिका में ला दिया। जगह-जगह भाजपा ने ४९ दिन के बाद दिल्ली से सरकार छोड़कर भागने का ताना मारने वाले पोस्टर लगा दिए। केजरीवाल इसका कोई ठोस जवाब नहीं दे पाए। दो बड़े उम्मीदवारों की खींचतान में अन्य उम्मीदवारों के मुद्दे दबकर रह गए।

दूसरे दलों की भूमिका :
दूसरे दल इस लड़ाई में भागीदारी का दस्तूर पूरा कर रहे थे। कांग्रेस ने पहले तो कद्दावर नेता की तलाश की थी जिसमे सचिन तेंदुलकर और रेखा के नामो की चर्चा हुई थी। लेकिन आगे फिर स्थानीय व्यक्ति को ही टिकट दे दिया। सपा और बसपा ने भी अपने उम्मीदवार खड़े किए थे। जिनको ठीक ठाक संख्या में वोट प्राप्त हुए थे।

वोट बैंक का विश्लेषण  :
उत्तरप्रदेश की राजनीति पर गौर करे तो हम पाते है कि दलित वर्ग बसपा और कांग्रेस दोनो का वोटबैंक है, वही मुस्लिम समुदाय सपा और कांग्रेस दोनो का वोटबैंक है। रही बात पिछड़े वर्ग की तो ये सपा के हिस्से में रहे है, वही उच्च जाति के सवर्ण वर्ग भाजपा के वोटबैंक रहे है।
दलित वर्ग = बसपा और कांग्रेस 
मुस्लिम =  सपा और कांग्रेस 
पिछड़े वर्ग = सपा 
सवर्ण वर्ग = भाजपा
अब भाजपा को ऐसा लग रहा था कि केजरीवाल शहरी सवर्ण वर्ग के वोट बांट कर नुकसान पहुचाएगा। वही केजरीवाल दलित और मुस्लिम समुदाय को भी आकर्षित करने की रणनीति पर चल रहे थे। इसलिए वहां के मुस्लिम धर्मगुरुओं से मुलाकात की। लेकिन यह बंटा हुआ मोदी विरोध अपने उद्देश्य में विफल रहा था।

परिणाम :
जब अंतिम परिणाम आये तो मतगणना के दिन केजरीवाल बनारस आये थे, इसका मतलब था कि अपने अनुमान के अनुसार वे जितने की उम्मीद रखते थे। लेकिन दोपहर तक प्रतिकूल परिणाम पाकर निकल लिए। अब बनारस आने की बारी मोदी की थी। उन्हें पूरे देश मे भी भारी बहुमत मिला था। उनका सपना पूरा हो गया था, उन्होंने गंगा घाट पर जाकर आरती की।

कुछ अन्य रोचक घटनाए :
  1. भाजपा मुस्लिम बाहुल्य इलाके में रैली करना चाहती थी। लेकिन निर्वाचन अधिकारी प्रांजल यादव ने साफ मना कर दिया। भाजपा ने विरोध करते हुए बीएचयू के गेट पर धरना भी दिया, लेकिन नाकाम रहा।
  2. मोदी की तरफ से प्रचार अभियान भाजपा के बजाय खुद मोदी की टीम के पास था। अमित शाह उस समय उत्तर प्रदेश के प्रचार प्रभारी थे।
  3. बाबा रामदेव ने मोदी का प्रचार किया था। वैसे तो ये व्यवसायी है । इन्होंने पूरे शहर में 100% मतदान होना चाहिए के बोर्ड लगाए। हालांकि किसके पक्ष में इसका उल्लेख नही करके चुनाव आयोग की नजरों से बच गए।
  4. आम आदमी पार्टी के भी कई कार्यकर्ताओ ने गली-गली में धूल छानी। अलका लांबा ने अकेले ही पूरे शहर में पैदल घुमफिरके पर्चे बांटे, बाद में उसे दिल्ली से टिकट मिला और वह विधायक बनी।
  5. मीडिया ने अघोषित रूप से केजरीवाल का बहिष्कार कर दिया। किसी भी अखबार में कोई खबर नही मिलती थी। यह सब ऊपर से मिले निर्देशो का नतीजा कहा जा सकता है। कॉर्पोरेट मीडिया क्या कर सकता है। इस चीज को यहां से समझ सकते है। 

निष्कर्ष :
यह एक ऐतिहासिक चुनाव था, जिसके गवाह बनने का मौका मिला। लेकिन उसके बाद से आप की राजनीति से मोहभंग हो गया। वह कुछ ज्यादा ही व्यक्तिवादी हो चली थी। पूरी पार्टी को केजरीवाल ने हाइजेक कर लिया और उसे एक कॉरपोरेट कम्पनी की तरह चलाने लगे। अंततः कह सकते है कि भोले मनो को ठगने के इस जाल में  केजरीवाल विफल रहे और मोदी इस कार्य मे जीत गये।

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