कोरोना संकट से निपटने के लिए पुलिस राज्य पर भरोसा कितना पर्याप्त हैं?

कभी किसी ने सोचा भी नही होगा कि मानव सभ्यता अपने अस्तित्व की रक्षा के लिए इस तरह असहाय नजर आएगी। अब तक केवल परमाणु हमले, खगोलीय पिंड की टक्कर और जलवायु परिवर्तन के खतरों को ही सभ्यता के विनाशकारी कारक के तौर पर देखा जा रहा था। परंतु कोरोना वायरस से उपजे संकट ने दर्शा दिया हैं कि मानव सभ्यता के सामने चुनौतियां अनिश्चित हैं, इसलिए जरुरी नही की उनके विरुद्ध प्रतिक्रिया के लिए  समाधान भी पहले से ही तैयार मिले। उनके लिए उसी समय पर तत्कालीन उपायों की जरुरत पड़ सकती हैं। कई बार सटीक उपाय मिल जाते हैं या वैकल्पिक उपायों से काम चल जाता हैं, जैसे कि-जयपुर में एक कोरोना रोगी को एड्स की दवा से ठीक कर दिया गया। लेकिन सरकारों के पास समस्या से निपटने का एक लोकप्रिय तरीका और भी हैं, और वो हैं पुलिस राज्य।

जब भारत को महसूस हो गया कि कोरोना ने दरवाजे पर शानदार तरीके से दस्तक दे दी हैं। एयरपोर्ट्स पर सतर्कता के माध्यम से, जिस तरह भारत ने इबोला और जिका जैसे वायरसों पर नियंत्रण किया था, वो रणनीति अब यहाँ पर्याप्त नही हैं। अब अंदर की तरफ सक्रीय प्रयास करने की जरुरत हैं। तब भारत ने राष्ट्रव्यापी जनता कर्फ्यू का ट्रायल किया। उसके बाद, कोरोना के संक्रमण को आगे प्रसारित होने से रोकने के लिए 25 मार्च से 21दिन के लिए राष्ट्रव्यापी लॉकडाउन की घोषणा की गई। इसी के साथ सभी आवागमन के साधनों को बंद कर दिया गया। उत्पादन में लगी सभी इकाइयां बंद हो गई। ऐसे समय में विशेषकर प्रवासी लोगोमे बेचैनी बढ़ गई। लोग अपने घरों को जाने के लिए उतावले नजर आए। लोगों की आवाजाही को देखते हुए, तब इसको उचित क्रियान्वयन के लिए कर्फ्यू में परिवर्तित किया गया।

इसी के साथ ही ऐसा लगने लगा कि वेलफेयर स्टेट ने हार मान ली हैं और उसकी असमर्थताओं को दूर करने के लिए राज्य ने पुलिस राज्य को अपना लिया हैं। लोगो की भयंकर पिटाई के विडियो देखकर लगने लगा कि अब तो सिर्फ पुलिस स्टेट ही कोरोना से निपटने में राज्य की मदद कर पाएगा। यही से अब हम विभिन्न पहलुओं पर विश्लेषण करेंगे :

1. कल्याणकारी राज्य की विफलता एवं पुलिस राज्य पर भरोसा

कोरोना संकट से निपटने में कल्याणकारी राज्य की विफलता से बचना आसान नही हैं, क्योंकि इस तरह के संकट से निपटने के लिए राज्यों की तैयारियों में कई प्रकार की खामियां थी, जैसे कि :
  • विश्व स्वास्थ्य संगठन ने COVID-19 को वैश्विक महामारी घोषित किया था और सभी राज्यों को इसकी भयावहता के बारे में आगाह किया था। लेकिन सभी राज्यों ने इसकी उपेक्षा की, किसी ने भी इसको गंभीरता से लेने की आवश्यकता नही समझी।
  • सरकार ने इसको क्षेत्रीय संकट मानने को तवज्जो दी और इस भरोसे में रहे कि जिस तरह जिका, इबोला जैसे संकटों से हम बच गये थे, उसी प्रकार इसको भी संभाल लेंगे।
  • स्वास्थ्य आपातकालीन परिस्थितयों को लेकर पर्याप्त तैयारीयों का अभाव हैं। एपिडेमिक एक्ट मोजूद हैं, लेकिन उन्हें जनसंख्या वृद्धि और सघन आवास, यातायात के तीव्र एवं भीड़ भाड़ युक्त साधन आदि के सन्दर्भ में अद्यतन नही किया गया हैं।
  • संकट से निपटने के लिए मानक परिचालन प्रक्रिया (SOP) का अभाव हैं।
  • स्वास्थ्य अवसंरचना अपर्याप्त और अदक्ष हैं। संसाधनों का गंभीर अभाव हैं। स्वास्थ्य सुविधाओं का वितरण भी विषमतापूर्ण हैं।
  • स्वास्थ्य को आवंटित होने वाले बजट का हिस्सा जीडीपी का अति अल्प हैं।     
हालांकि ऐसा कहा जा सकता हैं कि वेलफेयर स्टेट विफल नहीं हुआ हैं बल्कि उसे कुछ चुनौतियां मिली हैं। और चुनौतियां किसी भी व्यवस्था के समक्ष आ सकती हैं, इसलिए यह नही कहा जा सकता कि वेलफेयर स्टेट विफल हो गया हैं और वह पुलिस स्टेट की शरण में चला गया हैं। हकीकत में पुलिस स्टेट वेलफेयर स्टेट की ही मदद का कार्य कर रहा हैं। अभी भी समस्या से निपटने के लिए असली भरोसा वेलफेयर स्टेट पर ही हैं, अभी भी मेडिकल सुविधाओं को ही प्राथमिकता देकर समस्या से निपटने के प्रयास किए जा रहे हैं। पुलिस स्टेट की भूमिका तो इतनी हैं कि वेलफेयर स्टेट के प्रयासों मे बाधा नही आए और उसे समस्या से निकलने के लिए ज्यादा संघर्ष नही करना पड़े।

इस बात से सहमत हुआ जा सकता हैं कि राज्य का अंतिम भरोसा अभी भी कल्याणकारी राज्य के माध्यम से संकट समाधान पर ही हैं। लेकिन सवाल वहां से उठना आरंभ हुआ, जब पुलिस की भूमिका नागरिकों के प्रति असंवेदनशील हो गई तो लोगो ने यह पूछना आरंभ कर दिया कि क्या अब संकट से बाहर पुलिस स्टेट की मदद से ही आ पाएंगे, कोरोना अब केवल लाठीचार्ज और कर्फ्यू की मदद से ही रुक पाएगा।

2. नागरिकों के साथ पुलिस का असंवेदनशील व्यवहार किस उद्देश्य की प्राप्त कर रहा हैं?

लोगों ने पहले कोरोना को लेकर जोक्स और मिम्स बनाये और लॉक डाउन की घोषणा के बाद पुलिस के हाथों हुई पिटाई के। राष्ट्रव्यापी कर्फ्यू में पुलिस का व्यवहार किस प्रकार असंवेदनशील हो सकता हैं, इसको दर्शाने वाले हजारों विडियो सोशल मीडिया पर अपलोड हुए।
  1. लॉक डाउन के कारण आर्थिक गतिविधियाँ बंद हो जाने से कई प्रवासी लोग बड़े-बड़े शहरों में फंस गये, वहां से वापस निकलने के लिए उनके द्वारा अपने मूल स्थानों की तरफ लंबी और पैदल या साइकिल पर यात्रा की गई। पुलिस ने ऐसे लोगों को दोड़ाया, लेटकर, रेंगकर, पलटी मारकर चलने के लिए मजबूर किया।
  2. जरुरी सामानों को लेकर बाहर निकलने वाले लोगों पर अत्यधिक लाठीचार्ज किया गया। घर में रहने का संदेश देने के लिए एक या दो लाठी काफी थी, लेकिन एक ही जने को दस से पन्द्रह तक लाठी मारी गई। कोलकाता में एक जने की मृत्यु पुलिस के लाठीचार्ज से हुई।
  3. पुलिस द्वारा लाठी मारने के लिए सभी सीमाओं को तोडा गया। गाँव में एकेले-दोक्ले मिले लोगो को पकड़ा गया। यहाँ तक कि एक जने को घर से निकालकर तक पिटा गया। घरों और बाड़ों में छापा मारा गया।
  4. पुलिस के अतिचारों के खिलाफ हुई प्रतिक्रियाओं को पुलिस ने अपने अहम् से जोड़कर देखा और फिर अत्यधिक बल का प्रयोग करके उनको सबक सिखाने के लिए अत्यधिक जुल्म किए।
  5. पुरुष सिपाहियों द्वारा महिलाओं और बच्चों पर लाठीचार्ज किया गया। एक बारह साल के लड़के को दस-बारह लाठी मारी गई।
  6. लोगो को आजीविका के साधनों को नष्ट कर दिया गया। दिल्ली में एक सिपाही ने सब्जी की रेहड़ियों को पलट दिया।
इस तरह के अंसख्य विडियो हैं, जो आपको इन्टरनेट पर मिल जाएंगे। सवाल उठता हैं कि पुलिस आखिर किस उद्देश्य की प्राप्ति कर रही हैं। क्या उसे अपने इस लाठी चलाने के अधिकार के लिए अपने कर्तव्य पता हैं। लाठी खाने के बाद उस युवक का क्या हुआ, क्या वह मर गया या जिन्दा हैं, क्या उसके हाथ-पैर टूट गये, इस बारे में पता हैं उनको?  अगर लाठी मारने के बाद उस युवक द्वारा की गई प्रतिक्रिया से आपको क्षति पहुंचती हैं तो आप शहीद-शहीद चिल्लाना शुरू कर देते हो। दुनियाभर की सहानुभूति बंटोरने लग जाते हो। क्या आपके मन में इसी तरह की सहानुभूति पीटने वाले लोगो के प्रति भी हैं। जो राज्य की विफलता की मार खा रहे हैं। एक असंवेदनशील पेशे के लिए कितनी सहानुभूति बंटोरोगे। साथ ही यह भी हैं कि हम मुश्किल वक्त में भी तुम्हारे लिए खड़े होते हैं। इस तरह के बिना वेशभूषा के बहुत सारे पेशे हैं, जो लोगो के लिए बलिदान देते हैं और उसका ढिंढोरा नहीं पिटते। सभी पेशे दूसरों के लिए ही होते हैं। इससे उस सवाल पर प्रशं उठता हैं कि नागरिकों और राज्य के मध्य संबंधों में इतना असंतुलन क्यों हैं।

3. राज्य एवं नागरिकों के मध्य निम्नीकृत संबन्ध : मौजूदा या पूर्व-प्रचलित ? 

कुछ लोगो का मानना हैं कि नागरिकों और राज्य के मध्य संबंधों में पुलिस राज्य की तिलांजलि कभी दी ही नही गई हैं, कल्याणकारी राज्य को अपनाया तो गया हैं लेकिन उसे पुलिस राज्य को प्रतिस्थापित करने के उद्देश्य से नही अपनाया गया हैं, उसके लिए राज्य की अपनी मजबूरियां हैं। पुलिस राज्य हमेशा की तरह बना रहा हैं। एक राज्य को हमेशा अपने नागरिकों की चुनौतियां का खतरा रहता हैं। पुलिस राज्य की संप्रभुत्ता को स्थापित करने में राज्य की आंतरिक स्तर पर मदद करती हैं, वह लोगो को उनकी अधीनता का अहसास समय-समय पर करवाती रहती हैं।

दरअसल सभी राज्यों ने अपनी प्रजा की भलाई के लिए कल्याणकारी मॉडल को अपना लिया हैं। इससे लोगों की भूमिका राज्य पर आश्रित की हो गई हैं। आश्रित लोगो को चीजे उपलब्ध करवाने में उच्च निकाय के पास हमेशा अपनी संप्रभुत्ता रहती हैं। लोगो की बगावत की संभावना हमेशा के लिए समाप्त हो जाती हैं। अगर फिर भी गुंजाईश रहती हैं तो पुलिस के माध्यम से अपनी सुरक्षा करने में सफल रहता हैं। वैसे भी लोकतंत्र ने चुनौती की मंजिल राज्य से परिवर्तित करके राजनीतिक दलों को कर दिया हैं।

हम कह सकते हैं कि कल्याणकारी राज्य का मतलब राज्य द्वारा न तो पुलिस में कटौती से हैं और न ही उसके विस्तार को रोकने से हैं। हमारी आदत हो गई हैं कि हम दो विपरीत या प्रतिद्वंदी चीजों में से किसी स्थान विशेष पर एक की ही उपस्थिति को देखते हैं। दोनों भी साथ-साथ और एक दुसरे के पूरक के रूप में हो सकती हैं।       

इस प्रकार हम देखते हैं कि नागरिकों और राज्य के मध्य संबंधों में यह निम्नीकरण मोजुदा नही हैं, यह पूर्व में प्रचलित ही हैं। हालांकि उसकी अभिव्यक्ति स्पष्ट नही होती हैं। मानव अधिकारों जैसी सीमाएं उन पर आरोपित रहती हैं।

 4. क्या यह निम्नीकरण मूल अधिकारों से संबंधित सुरक्षा उपायों का खोखलापन दर्शाता हैं? 

सड़क पर चल रहे आदमी के क्या मूल अधिकार हैं। अगर वह किसी साधन पर हैं तो पुलिस उसे किसी न किसी जुर्म में फंसा ही सकती हैं या फिर किसी भी जुर्म के शक में जितनी मर्जी हो उतने डंडे मार ही सकती हैं। डंडे मारने के लिए किसी जुर्म का होना जरुरी थोड़े ही हैं। आदमी कानून व्यवस्था को बनाए रखने में बाधक बन रहा था या फिर सहयोग नही कर रहा था, इस तरह की शब्दावली के माध्यम से पुलिस अपने गंभीर कृत्य को धक् ही देती हैं। डंडे मारना तो बहुत छोटी बात हैं, लोगो की पुलिस कस्टडी में हत्या तक हो जाती हैं। उन पर कोई प्रगति नही होती, जिनमे दोषियों को सजा मिल सके। इसलिए विशेषकर डंडे मारने के बारे में मूल अधिकारों की सीमाएं तो स्पष्ट हैं।

लेकिन कई बार हम देखते हैं कि पुलिस कार्यवाही में किसी व्यक्ति की मृत्यु हो जाती हैं या पुलिस द्वारा मानवीय गरिमा के विपरित कार्य किए जाते हैं और उनकी व्यापक आलोचना होती हैं या फिर पुलिस को ही छवि खराब होने का अंदेशा रहता हैं तो उन पर कार्यवाही होती हैं। इसलिए बात यह हैं कि आपको खुद सजग बनना होगा और मार खाने की बजाय सवाल करना होगा। वरना सुरक्षा उपायों के साथ-साथ आपका भी खोखलापन सामने आ जाएगा। 

5. अपने अधिकारों की बहाली या उत्थान के लिए, क्या  लोग आगे प्रयास करेंगे ?

जिस तरह लॉक डाउन में लोगो ने गांधीवादी तरीके से लाठी खाई हैं, उससे तो नही लगता कि लोग आगे भी इस तरह की असंवेदनशीलता के प्रति आवाज उठाएंगे। यह कोई प्रथम मौका नही हैं, ऐसी घटनाए क्षेत्रीय स्तरों पर होती रहती हैं और इस पर कोई प्रतिक्रिया नही आती हैं। दूसरी तरफ पुलिस के साथ-साथ लोगो की भी संवेदना मरती जा रही हैं, जो मार खाते लोगो के वीडियोज बना रहे हैं और उन पर जोक्स बना रहे हैं। इसलिए लोग भी खुश हैं कि हम तो बच गये, वो फंस गया, इसी में ख़ुशी हैं। इसलिए इन संबंधों में परिवर्तन के लिए प्रयास की बात असंभव सी हैं।

निष्कर्ष        

पुलिस में संवेदनशीलता के गुणों के विकास पर विशेष कार्य करने की जरुरत हैं। जरुरतमंद लोगो की मांग को पुलिस कर्मी खुद समझे, इस तरह के मूल्यों को विकसित करने की आवश्यकता हैं। इसी संकट में कुछ ऐसे पुलिस कर्मियों के भी विडियो सामने आये, जिन्होंने लोगों की मदद की और उन्हें सयंमित होकर प्यार से समझाया। लेकिन यह अपवाद न होकर सामान्य विशेषता होनी चाहिए। लॉकडाउन के आरंभिक चरण में ही पुलिस कर्मियों द्वारा अनियंत्रित पीटना दर्शाता हैं कि उनके पेशेवर मूल्यों में गंभीर खामियां हैं। यह कहने के लिए कि आपको घर से बाहर नही निकलना हैं, क्या पुलिस द्वारा तब तक पीटना चाहिए, जब तक वह आदमी उनकी पहुँच में हो। इस तरह की पिटाई तो बार-बार उल्लंघन की दशा में ही कुछ हद तक न्यायोचित ठहराई जा सकती हैं। इसलिए पुलिस में शामिल करने वाले लोगो में विवेक को भी समान रूप से महत्त्व दिए जाने की आवश्यकता हैं। इसी तरह की पुलिस व्यवस्था कल्याणकारी राज्य का अंग मानी जा सकती हैं।

दूसरी बात इस संकट से निपटने में पुलिस स्टेट की भूमिका कुछ भी नही हो सकती, लोगों को घरों में खदेड़ने के अलावा। इसलिए कल्याणकारी राज्य को ही अपनी खामियों पर विचार करते हुए उन्हें तत्काल प्रभाव से दूर करना चाहिए ।

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