जलवायु परिवर्तन के वैश्विक एजेंडे में कोरोना संकट जनित व्यवधान

द्वितीय विश्व युद्ध की समाप्ति के साथ शुरू हुई उपनिवेशों की आजादी ने वैश्विक राजनीति के मंच को नव-स्वतंत्र, विकासशील देशों के लिए भी खोल दिया। द्विध्रुवी विश्व की राजनीति खत्म होने के बाद पश्चिमी देश मुद्दाविहीन होते चले गये तो इन्ह्ने जोर-शोर से जलवायु परिवर्तन का अजेंडा चलाया। जिसके संकट को इन्होने अतिशयोक्तिपूर्ण तरीके से व्यक्त करना शुरू कर दिया था।

वर्ष 1991 में एक तो नव-उदारवाद की शुरुआत हुई, वही अगले साल वर्ष 1992 में पृथ्वी सम्मेलन ने पर्यावरणीय राजनीति की शुरुआत की। तब से वैश्विक राजनीति इन्ही के इर्दगिर्द घूम रही हैं। क्योटो और पेरिस जैसे समझौतों ने लगभग सभी देशों को इस राजनीति का हितधारक बना दिया। लेकिन वर्ष 2020 में आकर कोरोना संकट ने पुरे वैश्विक परिदृश्य को बदल करके रख दिया। इसने बिलकुल ही अलग प्रकार की वैश्विक व्यवस्था को जन्म दिया, जिसमे सभी पीड़ित देश किसी एक जिम्मेदार की खोज करने में विफल हैं। सभी देश दीर्घकालीन अनिश्चित संकट का सामना करने के बजाय वर्तमान में मौजूद निश्चित संकट का समाधान खोजने के लिए प्रयासरत हैं। लेकिन दोनों ही मामलों में भय और उपाय जैसी सामान्य विशेषताएँ दृष्टिगोचर की जा सकती हैं। 

इस समय पर देखा जाए तो हम कह सकते हैं कि कोरोना संकट ने जलवायु परिवर्तन को पछाड़ दिया हैं। इस कथन को कहने के लिए हमारे पास कई तर्क मौजूद हैं -

  • दीर्घकालीन संकट के ऊपर वर्तमान संकट को प्राथमिकता : इस समय पर जलवायु परिवर्तन से ज्यादा शोर कोरोना संकट का हैं। यदि, जलवायु परिवर्तन की कीमत पर भी कोई उपाय इस समस्या से छुटकारा दिला सकता हैं तो दुनिया उसे अपनाना पसंद करेगी। इससे पता चलता हैं कि कम से कम इस समय पर तो जलवायु परिवर्तन का मुद्दा द्वितीयक हैं।
  • कोरोना संकट में जलवायु परिवर्तन का संकट कम हुआ हैं : जलवायु परिवर्तन का एजेंडा इस समय इसलिए भी प्राथमिकता में नही हैं क्योंकि इस महामारी की रोकथाम के लिए लगाए गये लॉकडाउन के कारण प्रदूषण के स्तर में अभूतपूर्व कमी देखने को मिली। ध्रुवों पर ओजोन छिद्र के भी भरने की बात सामने आ रही हैं।  कुछ लोग दूर पहाड़ों को देखने का दावा कर रहे हैं तो कुछ नदियों के जल को  स्वच्छ होने का। यह बात सही भी हैं कि इस दौरान जीवाश्म ईंधन के प्रयोग में कमी से उत्सर्जन में गिरावट आई। यहाँ एक तरह से कोरोना संकट जलवायु परिवर्तन के विरुद्ध उपाय का कार्य कर रहा हैं।
  • प्रायोजित डर में बढ़त : जिस प्रकार वैश्विक एजेंडा जलवायु परिवर्तन की विकटता के प्रति आगाह करने के लिए कई प्रकार की रिपोर्ट और सूचकांक जारी कर रहा था। कोरोना में भी समय के साथ विभिन्न रिपोर्ट इसकी भयावहता के बारे में उत्तरोत्तर वृद्धि की बात कह रही हैं। शुरू में कहा गया कि यह संक्रमित व्यक्ति से स्त्रावित द्रव के संपर्क में आने से होता हैं, अब कहा जा रहा हैं कि यह हवा में भी प्रसारित हो सकता हैं। ऐसा कह सकते हैं कि डर का कोई प्रायोजक उपस्थित हैं, जो मार्केट की डिमांड के अनुसार इसके संस्करण को अपडेट करता रहता हैं। साथ ही कोरोना का यह प्रायोजित डर जलवायु परिवर्तन से आगे निकल गया हैं। लॉकडाउन के दौरान दिल्ली में कम से कम आठ बार भूकम्प आया था, लेकिन खौप कोरोना का ही ज्यादा था।   
  • समाधानों के लिए प्रयास में कोरोना आगे हैं : जिस प्रकार विभिन्न व्यवसाय समूह वैश्विक राजनीति की सहायता से जलवायु परिवर्तन को रोकने के लिए हरित उपकरणों का बाजार खड़ा करने में लगे हुए हैं। उसी प्रकार कोरोना संकट में भी विभिन्न प्रतिभागी निवारक एवं उपचार समाधानों का बाजार खड़ा करने में लगे हुए हैं। रिओ समिट के बाद पुरे विश्व को परिचर्चा की सभा में एकजुट करने के लिए जलवायु परिवर्तन ही सर्वोच्च मुद्दा था, इसने पिछले दशकों के व्यापार वार्ता, परमाणु निशस्त्रीकरण जैसे मुद्दों को पीछे छोड़ दिया था। परन्तु इस समय कोरोना संकट ने इस मुद्दे को नेपथ्य में डाल दिया हैं। इस समय पर सभी देश या तो वैक्सीन को लेकर वार्तारत है या फिर बदहाल स्थिति की बहाली के लिए चर्चाओं में संलग्न हैं।
  • अन्य मुद्दें : जिस तरह जलवायु परिवर्तन ने वैश्विक राजनीति में विकसित बनाम विकासशील देश, समान परंतु विभेदित उत्तरदायित्व, न्यूनीकरण एवं अनुकूलन जैसे मुद्दें मुख्यधारा में रहते हैं, उसी प्रकार यहाँ भी ब्लेम गेम, विकासशील देशों की सहायता जैसे मुद्दें मुख्यधारा में हैं।  

कोविड-19 का डर : पूर्व में और अब 

जैसे-जैसे कोरोना की जीवन यात्रा आगे बढ़ी हैं, डर उत्पन्न करने की एक व्यवस्था भी इसके साथ आगे बढ़ी हैं। 

  1. शुरू में इटली और चीन की ख़बरों, मूवीज के दृश्यों को सोशल मीडिया पर साझा करके लोगो को इतना डराया कि उन्हें एक सख्त लॉक डाउन में रहने के लिए मजबूर और प्रताड़ित किया गया। जिसके साथ लोगो की आजीविका चौपट हो गई और उन्हें सैंकड़ों किलोमीटर दूर अपने घरों की और पैदल सफ़र करना पड़ा। जिसकी विभिषका अपने आप में ही एक अध्याय (कोविड-19 लॉकडाउन और मजदूरों का पलायन)हैं।      
  2. आरंभिक दौर में कोरोना के बारे में अपुष्ट, एकतरफा दावे करके मौजूदा स्वास्थ्य अवसंरचना को भी सीमित और संशयित रखा गया। शुरू में लोगो का ईलाज नही करके उन्हें आइसोलेशन वार्ड में बंद कर दिया, जिन्हें समय पर खाना तक नही दिया। इनमे से परेशान होकर कई लोगों ने आत्महत्या कर ली। शायद इस स्तर पर सोच यह थी कि भले ही ये तो मर जाए, लेकिन बाकि लोग इनके संपर्क में नही आये।
  3. आरंभिक दौर ऐसा था, जिसमे लोगों में इस हद तक डर था कि अगर कोई गाँव का आदमी बाहर से आया है तो उससे संपर्क नही रखा गया। अगर किसी आदमी को बुखार है तो मेडिकल वाला दवाई देने से मना कर देता था। एक तरीके से एक आधुनिक अस्पृश्यता की स्थिति देखने को मिल रही थी। मतलब लोग संक्रमण के डर की वजह से अतिरिक्त सतर्क (Extra -Alert) थे।
  4. जब संक्रमित व्यक्ति के संपर्क से भी कई लोगो को नही हुआ तो लोगो को डराने के लिए इसके हवा में प्रसारित होने की बात कही गई। लोग फिर भी नही डरे तो कहा गया कि अभी एक दक्षिण पूर्वी देश में कोरोना के ऐसे उपभेद (strain) मिले हैं, जो अभी तक ज्ञात संक्रमण के मामलों से बहुत अधिक खतरनाक हैं।
  5. अब तो पडौस में हो जाता हैं तो भी कोई तवज्जों नही देता। क्योंकि ठीक होने वाले के अनुसार यह एक प्रकार का बुखार ही हैं। जिसमे आपकी इम्युनिटी ठीक है तो डरने की कोई जरुरत भी नही हैं। इसका आलम यह हुआ कि लोग खुद सामने आकर अपने पॉजिटिव होने का स्टेटस अपडेट कर रहे हैं कि उनको कोरोना था तो उनसे मिलने वाले अपना टेस्ट कराये, जबकि पहले इसके साथ बहुत बड़ा स्टिग्मा जुदा हुआ था। अब लोग कोरोना पॉजिटिव आने के बाद भी धरने और प्रदर्शनों का हिस्सा बन रहे हैं। कोरोना पॉजिटिव आकर किसी परिजन के मरने के बाद भी लोग खुद से उनका अंतिम संस्कार कर रहे हैं। जबकि पहले मृतक को पैक करके देने के कारण कई शवों की आपस में अदला-बदली हो गई। कई शव कॉविड प्रोटोकॉल का पालन करने के कारण लंबे समय तक अस्पतालों में पड़े रहे। कईयों के साथ अस्पतालों में छल-कपट हुआ, जब अच्छे-खासे लोगो को कॉविड से मृतक बता दिया गया।

इन सब उदाहरणों से स्पष्ट हो जाता हैं कि आरंभिक दिनों में कोरोना को लेकर कितना अन्याय हुआ हैं। देश ने वाकई पिछले चार-पांच महीने बहुत कष्ट झेला हैं।

क्या कोरोना की तुलना जलवायु संकट से की जा सकती हैं?

जलवायु संकट की चिंताएं भी वास्तविक हैं, लेकिन जो समाधान किए जा रहे हैं, वे व्यावसायिक हैं। सभी व्यवसायी वैकल्पिक हरित समाधानों को विकसित करने का दावा करके हाशिए पर पड़े लोगो के परम्परागत आजीविका निर्वाह को समाप्त करना चाहते हैं। इनके द्वारा किए गये उपाय लक्ष्यहीन हैं, जो असली चुनौतियों को संबोधित नही करते हैं। इन उपायों के लिए जनता को भरी कीमत चुकानी पड़ रही हैं, जिसे हम ओजोन संरक्षण से जुड़े वियना समझौते से समझ सकते हैं। जिसके लक्ष्यों को तथाकथित तौर पर प्राप्त कर लिया गया हैं। लेकिन आम लोगो की जिन्दगी में इससे कोई फर्क नही पड़ा, जबकि उन्हें चीजे प्राप्त करने से रौकने के लिए कीमतों में वृद्धि की गई। साथ ही यह राजनीति में विकासशील देशों के प्रति ऐतिहासिक न्याय किए बिना उन पर दायित्व थोपना चाहते हैं। कोरोना संकट में भी यही स्थिति हैं, जिम्मेदार पक्ष की न तो पहचान की गई हैं और न ही उसके दायित्व निर्धारित किए गये हैं। अगर ऐसा नही किया गया तो यह इस प्रकार के अग्रिम दुस्साहसों को प्रोत्साहित करेगा।

दूसरी बात डर की बात भी दोनों में प्रायोजित हैं, जो वैश्विक संगठनों द्वारा इर्धारित किया जाता हैं। इसका नुकसान यह रहा हैं कि यह मूल और अति आवश्यक मुद्दों से ध्यान को विमुख कर दे रहा हैं। यही कारण हैं कि निर्धनता उन्मूलन, पोषण एवं भूख जैसे मुद्दें वैश्विक राजनीति से गायब हो गये हैं या फिर गिलोटिन की भेट चढ़ने वाले उप-खंडों में बदल गये हैं।

राष्ट्रीय-राज्य की अक्षमता

कोरोना संकट में राष्ट्रीय-राज्य की अक्षमता उजागर हुई कि वह आगामी अप्रत्याशित संकटों के प्रति अनुक्रिया करने के लिए तैयार नही हैं। चाहे वह कोरोना हो या फिर कोई प्राकृतिक आपदा हो।

लॉक डाउन के बारे में सरकार को आरंभ में पता ही नही था कि इसके लिए किस कानून का सहारा लिया जाए। इसलिए देश भर में इसका अनुपालन सुनिश्चित करने के लिए CrPC की धारा 144 का प्रयोग किया गया। लॉक डाउन 2.0 में जाकर NDMA ने आपदा प्रबंधन अधिनियम से शक्तियों को ग्रहण किया। 

लेकिन धारा 144 के अखिल भारतीय प्रयोग ने पुरे देश का एक साथ आपराधिक-करण कर दिया गया। लोगो को घरों से निकालकर भी पीटा गया, धार्मिक स्थलों और कही जरुरी जगह से आते अकेलें आदमियों को भी पीटा गया। इसका क्षेत्राधिकार विस्तृत था। यह आपातकाल से भी बदतर था, जिसमे अनुच्छेद 359 के तहत प्राप्त अनुच्छेद 20 और 21 का समर्थन भी प्राप्त नही था। प्रधानमंत्री ने कहा कि जनता इसे अपने आप पर लगाया हुआ आपातकाल माने। यह एक राष्ट्रीय-राज्य की विफलता थी कि वो अपनी आवाम को अपनी क्षमताओं पर भरोसा दिलाने में नाकामयाब रहा। अधिकतर राष्ट्रीय-राज्यों ने अपनी अक्षमताओं के लिए लोगो को दंडित किया। इस दौरान कईयों के खिलाफ मुकदमे दर्ज हुए और कईयों के वाहन जब्त हुए, जिनके लिए वे आज भी (22 सितंबर 2020) पुलिस थानों और अदालतों के चक्कर लगा रहे हैं। 

इस सख्त लॉक डाउन के बाजवूद भी लोगों ने पलायन किया। उनके लंबे सफ़र, साथ में बच्चे और बूढ़े, रास्ते में दुर्घटना, बसों को अनुमति देने में राजनीति आदि मुद्दों की कारण उत्पन्न मानवीय संकट की चर्चा सोशल मीडिया में जमकर हुई। जिसके कारण सरकार पर दबाव पड़ा और वह लॉकडाउन को सरल बनाने के लिए मजबूर हुई। साथ ही अर्थव्यवस्था की बहाली के लिए घोषित आत्मनिर्भर भारत पैकेज के नाम के पीछे काफी हद तक प्रवासी मजदूरों को गृह राज्य में ही रोजगार देने की अवधारणा थी, हालाँकि आत्म निर्भर पैकेज का विश्लेषण एक अलग अध्याय में समझाया जाएगा।

कोविड-19 केन्द्रित आगामी राजनीति

ये बात तो सही हैं कि आगामी समय में कोविड-19 केन्द्रित राजनीति ही मुख्यधारा में रहेगी क्योंकि इस समय पर सभी देश वैक्सीन का बड़ी बेसब्री से इंतजार कर रहे हैं। सभी देश वैक्सीन को प्राप्त करने, वितरण करने और सुरक्षित रखने जैसे कार्यों में संलग्न हैं। जो व्यवसायी जलवायु परिवर्तन के लिए समाधान विकसित करने हेतु कार्यरत थे, वे अब वैक्सीन से जुड़े कार्यों में संलग्न हो गये हैं। वैक्सीन आने पर कंपनियों द्वारा मोटी कमाई किए जाने की आशंका बताई जा रही हैं, हो सकता हैं तब सामान्य बुखारों को कोरोना बताने के चलन में वृद्धि हो।

निष्कर्ष

जलवायु परिवर्तन और कोरोना दोनों संकट वास्तविक हैं और दोनों के ही प्रति समान रूप से सतर्कता बरतने की आवश्यकता हैं। लेकिन केवल व्यावसयिक हितों के कारण ही डर को प्रायोजित नही करना चाहिए क्योंकि इससे लोगो के मध्य भारी अराजकता उत्पन्न होती हैं, जो उनकी जान और आजीविका के लिए विध्वन्श्कारी होती हैं। दोनों के लिए ही समाधानों और नवाचारों का समर्थन करने की आवश्यकता हैं। 

नेपोलियन बोनापार्ट का जीवन परिचय

नेपोलियन बोनापार्ट फ्रांस का महान बादशाह था। एक आम आदमी से बादशाह की गद्दी तक का नेपोलियन की ज़िंदगी का सफ़र जितना दिलचस्प रहा था, उरूज से उनके पतन तक की कहानी भी उतनी ही दिलचस्प है। कद-काठी में छोटे नेपोलियन ने अपनी बहादुरी से दुनिया के एक बड़े हिस्से पर अपना राज क़ायम किया था। ब्रिटेन के महान योद्धा ड्यूक ऑफ़ वेलिंगटन ने कहा था कि जंग के मैदान में नेपोलियन, 40 हज़ार योद्धाओं के बराबर है। नेपोलियन के सैनिक उससे मोहब्बत करते थे, तो दुश्मन उससे ख़ौफ़ खाते थे। आज की तारीख़ में भी बहुत कम ऐसे लोग हैं जो नेपोलियन की ऊंचाई तक तक पहुंचे।

नेपोलियन का जन्म कोर्सिका द्वीप के अजाचियो में 15 अगस्त 1769 को हुआ था।  फ्रांस ने कोर्सिका द्वीप को नेपोलियन के पैदा होने से एक साल पहले ही जेनोआ से जीता था। जब फ्रांस की सेना ने कोर्सिका पर हमला किया था, तो स्थानीय लोग फ्रांस के विरोध में खड़े हुए थे। हालांकि बाद में उन्होंने फ्रांस की सत्ता मान ली थी। नेपोलियन के मां-बाप बहुत अमीर नहीं थे। वो सामंती परिवार से नहीं थे, हालांकि वो इसका दावा बहुत करते थे। नौ साल की उम्र में नेपोलियन पढ़ाई के लिए फ्रांस चले आए। वो ख़ुद को बाहरी महसूस करते थे। फ्रांस के रीति-रिवाज से नावाक़िफ़ नेपोलियन की शुरुआती पढ़ाई ऑटुन में हुई। इसके बाद वो पांच साल तक ब्रिएन में रहे। पढ़ाई का आख़िरी साल उन्होंने पेरिस की मिलिट्री एकेडमी में गुज़ारे।  नेपोलियन को सितंबर 1785 में ग्रेजुएट की डिग्री मिली।  58 लोगों की क्लास में वो 45वें नंबर पर रहे थे। जब नेपोलियन पेरिस में थे तभी उसके पिता की मौत हो गई। परिवार पैसे की तंगी झेल रहा था।

नेपोलियन की उम्र उस वक़्त सिर्फ़ 16 बरस थी। वो परिवार के सबसे बड़े लड़के भी नहीं थे। फिर भी उन्होंने परिवार की ज़िम्मेदारी उठा ली। फ्रांस की सेना में नेपोलियन को तोपखाना रेजिमेंट में सेकेंड लेफ्टिनेंट की रैंक मिली थी। वो उस दौरान सेना की रणनीति और लड़ाई से जुड़ी क़िताबें ख़ूब पढ़ते थे।

फ्रांस में लोकतांत्रिक क्रांति


फ्रांस में रहने के दौरान उन्हें कोर्सिका की बहुत याद आती थी। अपनी क़िताब लेटर्स सुर ला कोर्स में नेपोलियन ने आज़ाद कोर्सिका की कल्पना उकेरी थी, जो फ्रांस के क़ब्ज़े से मुक्त था। डिग्री मिलने के साल यानी 1786 में ही वो कोर्सिका लौट आए और अगले दो साल तक वापस सेना की नौकरी पर नहीं गए।

1789 में फ्रांस में लोकतांत्रिक क्रांति हो गई। जनता ने बस्तील जेल पर हमला करके क़ैदियों को आज़ाद करा लिया।  फ्रांस में एक नए युग की शुरुआत हो चुकी थी।  फ्रांस की नई संसद ने कोर्सिका के नेता पास्कल पाओली को वापस जाने की इजाज़त दे दी। नेपोलियन भी एक बार फिर कोर्सिका लौट गए।

नेपोलियन का स्वागत


शुरू में तो कोर्सिका में नेपोलियन का स्वागत हुआ। लेकिन जब उनके छोटे भाई लुसिएन ने पाओली को ब्रिटिश एजेंट कहकर विरोध शुरू किया तो कोर्सिका के लोग बोनापार्ट परिवार के ख़िलाफ़ हो गए। नेपोलियन और उनका परिवार इसके बाद फ्रांस में आकर रहने लगे। फ्रांस के प्रति वफ़ादारी दिखाने के लिए नेपोलियन को ज़्यादा वक़्त नहीं लगा।

फ्रांस की सरकार का विरोध कर रहे सैनिकों ने टूलों शहर को अंग्रेज़ों के हवाले कर दिया था। दक्षिणी फ्रांस स्थित टूलों, भूमध्यसागर में बड़ा सैनिक अड्डा था। फ्रांस के लिए टूलों को दोबारा जीतना ज़रूरी थी। अगर फ्रांस का उस पर क़ब्ज़ा नहीं होता, तो फ्रांस में हुई क्रांति पर बड़ा धब्बा लग जाता।

24 की उम्र में ब्रिगेडियर जनरल


टूलों को जीतने की ज़िम्मेदारी नेपोलियन को दी गई। आख़िर में ब्रिटिश सेना को पीछे हटना पड़ा। इस जीत के बाद नेपोलियन को महज़ 24 बरस की उम्र में ब्रिगेडियर जनरल बना दिया गया। युद्ध में नेपोलियन की कामयाबियों के क़िस्से मशहूर होने लगे। सेना के कमिश्नर ने नेपोलियन की तारीफ़ में क़सीदे पढ़ते हुए चिट्ठी लिखी।

उस वक़्त फ्रांस की सत्ता मैक्सीमिलियन रॉब्सपियर के क़ब्ज़े में थी। देश उनके ज़ुल्मो-सितम से बेहाल था। हज़ारों लोगों को उसने गुलेटिन या सूली पर चढ़ा दिया था। 1794 की शुरुआत में आल्प्स पर्वत इलाक़े मे तोपखाने का इंचार्ज बनाया गया। रॉब्सपियर की ताक़त कम होने से नेपोलियन के तेज़ी से चमकते करियर पर ब्रेक लगा।

सरकार के ख़िलाफ़ बग़ावत


लेकिन ये कुछ वक़्त के लिए ही था। जब शाही परिवार के भक्तों ने लोकतांत्रिक सरकार के ख़िलाफ़ बग़ावत की, तो सरकार को बचाने की ज़िम्मेदारी नेपोलियन पर आई। पांच अक्टूबर 1795 को शाही परिवार के समर्थकों ने पेरिस के नेशनल कन्वेंशन को घेर लिया।

नेपोलियन ने मुट्ठी भर सैनिकों के साथ क़रीब बीस हज़ार लोगों की सेना का सामना किया। उसने अपनी बहादुरी से विरोधियों को पीछे हटने पर मजबूर कर दिया। नेपोलियन ने नए गणतंत्र को तो बचाया ही, अपनी तरक़्क़ी का रास्ता भी खोल लिया। नेपोलियन ने मार्च 1796 में जोसेफ़ीन नाम की महिला से शादी की।

जोसेफ़ीन और नेपोलियन


जोसेफ़ीन के पति को रॉब्सपियर ने सूली पर चढ़ा दिया था। वो किसी दौर में फ्रांस के सबसे ताक़तवर शख़्स रहे पॉल बारा की रखैल रह चुकी थीं। जोसेफ़ीन, नेपोलियन से कई साल बड़ी थी। नेपोलियन उन्हें टूटकर प्यार करते थे। लेकिन जोसेफ़ीन के लिए ये शादी महज़ मौक़ा परस्ती थी।

पॉल के छोड़ देने के बाद उन्होंने सिर्फ़ सहारे के लिए नेपोलियन का हाथ थामा था। शादी के दो दिन बाद नेपोलियन इटली रवाना हो गए थे। उन्हें इटली में सेना का कमांडर बनाया गया था। जब उन्होंने मुआयना किया तो सेना को बेहद कमज़ोर हालत में पाया। इसके बावजूद उसने कई जंगों में जीत हासिल की।

नेपोलियन की शोहरत


आख़िर में वो उत्तरी इटली के बेताज बादशाह बन गए थे। अब उन्हें राज करना आ गया था। वो समझने लगे थे कि कैसे लोगों से काम कराया जाए। कैसे संविधान बनाया जाए। एक साल के भीतर नेपोलियन की शोहरत नई ऊंचाई छूने लगी थी। इटली में नेपोलियन के अच्छे दिन बीते। उस वक़्त सिर्फ़ ब्रिटेन ही था जो फ्रांस के विरोध में था।

साल 1798 में नेपोलियन ने मिस्र पर हमला बोल दिया। वो भारत और ब्रिटेन के बीच का रास्ता रोक कर ब्रिटेन को घुटने टेकने पर मजबूर करना चाहते थे। साथ ही वो पूर्वी दुनिया में फ्रांस के साम्राज्य का विस्तार भी करना चाहते थे। लेकिन नेपोलियन का ये सपना साकार नही हुआ।

ताक़तवर सेना की ज़रूरत


होरासियो नेल्सन नाम के ब्रिटिश कमांडर ने नेपोलियन के 35 हज़ार सैनिकों को घेर लिया। वो घर भी वापस नहीं जा पा रहे थे। ब्रिटेन और रूस ने फ्रांस के ख़िलाफ़ गठजोड़ कर लिया था। फ्रांस में सरकार के नए अगुवा इमैनुअल सीस को महसूस हुआ कि सत्ता के लिए ताक़तवर सेना की ज़रूरत है।

इमैनुअल को ऐसे सेनापति की ज़रूरत महसूस हुई जो पेरिस में रहकर सरकार की हिफ़ाज़त करे। मौक़ा अच्छा देख नेपोलियन ने अपने सैनिको को मिस्र में छोड़ा और जा पहुंचे फ्रांस। जब नेपोलियन पेरिस पहुंचे तब तक फ्रेंच सेनाओं ने स्विट्ज़रलैंड और हॉलैंड में जीत हासिल कर के हालात अपने हक़ में कर लिए थे।

सत्ता के शिखर पर


लेकिन इमैनुअल और नेपोलियन ने उस वक़्त की सरकार का तख़्ता पलट करके सत्ता अपने हाथ में ले ली। अब नेपोलियन यूरोप के सबसे ताक़तवर देश के अगुवा बन चुके थे। सत्ता के शिखर पर पहुंचने के बाद पूरे यूरोप में नेपोलियन का डंका बज रहा था। एक तरफ़ तो वो जंग के मैदान में कामयाबी के झंडे बुलंद कर रहा था।

तो, दूसरी तरफ़ उसने प्रशासनिक सुधार की ऐसी हवा चलाई जो आज तक मिसाल बनी हुई है। 1802 तक नेपोलियन ने यूरोप में शांति बहाल कर ली थी। ऑस्ट्रिया को इटली के मोर्चे पर शिकस्त दी जा चुकी थी। वहीं जर्मनी और ब्रिटेन ने फ्रांस की ताक़त देखकर समझौता करने में ही भलाई समझी।

फ्रांस के बादशाह का पद


जंग से फ़ुरसत पाने पर नेपोलियन ने क्रांति के बाद के फ्रांस की नींव रखी। उन्होंने लोगों को निजी आज़ादी का अधिकार दिया। लोगों को अपनी पसंद का धर्म मानने का अधिकार दिया। नेपोलियन ने ही क़ानून के सामने सब को बराबरी के अधिकार के सिद्धांत की बुनियाद रखी। इस दौरान उन्होंने फ्रांस में सबसे ताक़तवर सेना भी तैयार की।

इन कामयाबियों के चलते नेपोलियन को ज़िंदगी भर के लिए कॉन्सुल यानी सत्ता के बड़े अधिकारी की पदवी दी गई। लेकिन, यूरोप में लंबे वक़्त तक अमन क़ायम नहीं रह सका। फ्रांस की अंदरूनी खींचतान और दूसरे देशों से युद्ध के चलते हालात ऐसे बने कि नेपोलियन को फ्रांस के बादशाह का पद संभालना पड़ा।

सबसे बड़ी जंग


फ्रांस की सरकार के विरोधी दो लोगों ने नेपोलियन की हत्या की साज़िश रची। जब इसका पर्दाफ़ाश हुआ, तो नेपोलियन को लगा कि जब तक राजशाही नहीं होगी, तब तक फ्रांस में अमन क़ायम नहीं हो सकता। तब 1804 में उसने पोप की मौजूदगी में ख़ुद को बादशाह घोषित कर दिया।

फ्रांस का राजा बनने के एक साल बाद यानी 1805 में नेपोलियन ने अपनी ज़िंदगी की सबसे बड़ी जंग जीती। ये युद्ध आज के चेक रिपब्लिक में ऑस्टरलित्ज़ में हुआ था। नेपोलियन के मुक़ाबले ऑस्ट्रिया और रूस की सेनाएं थीं। नेपोलियन ने जाल बिछाकर दुश्मन के 26 हज़ार सैनिकों को मार डाला।

ट्रैफलगर की लड़ाई


इसके मुक़ाबले नेपोलियन के सिर्फ़ 9 हज़ार सैनिक मारे गए। ऑस्ट्रिया को हराकर नेपोलियन ने एक बार फिर यूरोप पर अपना सिक्का जमा लिया था। वो अपने दौर का सबसे महान सैन्य कमांडर बन चुका था। साथ ही उसने रूसी साम्राज्य की सेना को भी धूल चटा दी।

ट्रैफलगर की लड़ाई के बाद ब्रिटेन पर हमले की नेपोलियन की उम्मीदें टूटती जा रही थीं। इस वजह से ब्रिटेन के साथ शांति समझौते की उम्मीद भी। नेपोलियन ने एक बार फिर से ब्रिटेन की अर्थव्यवस्था को कमज़ोर करने की कोशिश की। उन्होंने ब्रिटेन के साथ हर तरह के कारोबार पर रोक लगाने की कोशिश की।

ब्रिटेन से व्यापार


ब्रिटेन से हर तरह का व्यापार रोक दिया गया। ब्रिटेन आने-जाने वाले हर जहाज़ को लूटने की पूरी छूट दे दी गई। नेपोलियन को उम्मीद थी कि दबाव में आने पर ब्रिटेन समझौते के लिए राज़ी हो जाएगा। मगर पुर्तगाल ने नेपोलियन का ब्रिटेन से कारोबार न करने का फ़रमान मानने से इनकार कर दिया।

नेपोलियन ने स्पेन और पुर्तगाल पर क़ब्ज़ा कर लिया। दोनों देशों में नेपोलियन के ख़िलाफ़ बग़ावत हो गई। ब्रिटेन ने आर्थर वेलेज़ली की अगुवाई में एक सैन्य टुकड़ी पुर्तगाल और स्पेन की मदद के लिए भेज दी। इससे ब्रिटेन को यूरोपीय महाद्वीप में पैर जमाने का मौक़ा मिल गया।

नेपोलियन की ताक़त


स्पेन और पुर्तगाल में नाकामी के बावजूद नेपोलियन की ताक़त में कमी नहीं आई थी। उनका साम्राज्य हॉलैंड, इटली और जर्मनी के एक बड़े हिस्से तक फैल चुका था। अब नेपोलियन को ज़रूरत थी अपने वारिस की। उसने 1810 में जोसेफ़ीन को तलाक़ दे दिया। इसके बाद उन्होंने ऑस्ट्रिया के राजा फ्रांसिस प्रथम की बेटी मेरी लुई से शादी कर ली।

जल्द ही नेपोलियन को बेटा हुआ। उनके बेटे का नाम भी उनके ही नाम पर रखा गया। नेपोलियन ने रोम के राजा की उपाधि भी ले रखी थी। साल 1812 में ब्रिटेन की आर्थिक नाकेबंदी को कामयाब बनाने के लिए फ्रांस ने रूस की सीमा पर छह लाख सैनिक जमा कर दिया। उसका मक़सद ब्रिटेन की आर्थिक नाकेबंदी के लिए रूस को राज़ी करना था।

रूस में नाकामी


इधर स्पेन में ब्रिटेन के कमांडर ड्यूक ऑफ़ वेलिंगटन ने नेपोलियन की सेना को शिकस्त दे दी। रूस के मोर्चे पर भी नेपोलियन को कुछ ख़ास कामयाबी नहीं मिल रही थी। कोई भी जंग जीतता नहीं दिख रहा था। 1812 में नेपोलियन ने मॉस्को पर क़ब्ज़ा कर लिया। लेकिन सर्दियां आ रही थीं। मजबूरी में नेपोलियन को पीछे हटना पड़ा।

जब तक वो अपने वतन लौट पाते उनकी सेना में महज दस हज़ार सैनिक ही युद्ध के लायक़ बच रहे थे। रूस में नाकामी और स्पेन में हार के बाद ऑस्ट्रिया और प्रशिया एक बार फिर से नेपोलियन को हराने की फिराक़ में थे। उनकी बादशाहत बिखर रही थी। 1814 के मार्च महीने में दुश्मनों ने राजधानी पेरिस को घेर लिया।

फ्रांस के हालात


नेपोलियन को गद्दी छोड़नी पड़ी। उन्हें एल्बा नाम के एक जज़ीरे पर क़ैद कर के रखा गया था। फ्रांस की गद्दी पर लुई 16वें को बैठाया गया। क़ैद से भी नेपोलियन की निगाह फ्रांस के हालात पर थी। 1815 में वो क़ैद से भाग निकले और पेरिस पहुंच गए। पेरिस पहुंचने के बाद नेपोलियन ने संविधान में तेज़ी से बदलाव किए।

इससे कई विरोधी नेपोलियन के पाले में आ गए। 1815 में मार्च महीने तक यूरोप के कई देशों ने मिलकर नेपोलियन के ख़िलाफ़ मोर्चा बना लिया था। जून में नेपोलियन ने बेल्जियम पर हमला कर दिया। लेकिन 18 जून को वाटरलू की लड़ाई में ड्यूक ऑफ़ वेलिंगटन ने उन्हें शिकस्त दे दी। इसके बाद वो फिर कभी क़ैद से नहीं छूट सके।

यूरोप का नक़्शा


ब्रिटेन ने नेपोलियन को क़ैद करके दक्षिणी अटलांटिक स्थित सेंट हेलेना नाम के द्वीप पर रखा। उन्हें न तो परिवार से मिलने दिया गया, न ही उनकी कोई ख़बर दी गई। अगले छह साल नेपोलियन ने तन्हाई में बिताए। वो खाते थे। ताश खेलते थे। लिखते थे। उन्होंने बोलकर अपना ज़िंदगीनामा भी लिखवाया।

1821 में पेट के कैंसर से नेपोलियन की मौत हो गई। मगर दुनिया को अलविदा कहने से पहले नेपोलियन ने यूरोप के नक़्शे पर कभी न मिटने वाली इबारत लिख डाली थी।

समाजवादी चिंतक मस्तराम कपूर का साहित्यिक योगदान

मस्तराम कपूर मशहूर समाजवादी लेखक और चिंतक थे। समाजवादी चिंतन से संबंधित उन्होंने 100 से अधिक किताबें लिखी हैं। राम मनोहर लोहिया की जीवनी पर उनके लिखे अंग्रेजी में दस और हिंदी में नौ खंड प्रकाशित हुए थे। इससे उन्हें काफी लोकप्रियता मिली थी।  समाजवादी नेता मधु लिमये के वह काफी करीबी थे। अपने जीवन के अंतिम दिनों तक वह गैर कांग्रेस और गैर बीजेपी युक्त तीसरी शक्ति के गठबंधन के लिए कोशिश करते रहे। मस्तराम कपूर का जन्म  22 दिसंबर1926 को हिमाचल प्रदेश के कांगड़ा में हुआ था। वे उत्तर प्रदेश सरकार द्वारा यश भारती पुरस्कार से भी सम्मानित किए जा चुके हैं। अप्रैल 2013 में उनका 87 वर्ष की आयु में निधन हो गया।

उन्होंने साहित्य के क्षेत्र में विभिन्न विधाओं में अपना योगदान दिया हैं। उनकी प्रमुख रचनाएँ इस प्रकार हैं -

उपन्यास : 
विमथगामी, रास्ता बंद, कान चालू, नाक का डॉक्टर, एक सदी बाँझ तथा बिषय-पुरुष ।

कहानी-संग्रह : 
एक अदद औरत, ग्यारह पत्ते, ब्रीफकेस, हेनी और अन्य कहानियाँ (प्रेस में) ।

नाटक : 
पत्नी ऑन ट्रायल, सॉप आदमी नहीं होता ।

कविता : 
कूडेदान से साभार ।

निबंध : 
हम सब गुनहगार, समसामयिक प्रतिक्रियाएँ, पं० चंद्रधर शर्मा 'गुलेरी', साहित्यकार का संकट, अस्तित्ववाद से गांधीवाद तक, राष्ट्रीय एकता का संकट और साम्प्रदायिक शक्तियां, मंडल रिपोर्ट : वर्णव्यवस्था से समाजवादी व्यवस्था की ओर, साम्यवादी विश्व का विघटन और समाजवाद का भविष्य ।

पैम्फलेट : 
हिन्दूवाद आत्महत्या की ओर, नर-नारी समता के मायने, साम्प्रदायिक दंगों का समाजशास्त्र, अंग्रेजी हटाओ' आंदोलन की प्रासंगिकता, भ्रष्टाचार : उपभोगवादी संस्कृति का ब्रह्मराक्षस, वर्तमान सभ्यता का संकट और गांधी-लोहिया ।

बाल-साहित्य : निर्भयता का वरदान, दंड का पुरस्कार, सहेली, बेजुबान साथी, मुँहमाँगा इनाम, पहला पडाव, बीजू की दादी, पारस की खोज (कहानी-संग्रह);
नीरू और हीरू, सपेरे की लड़की, भूतनाथ, सुनहरा मेमना (उपन्यास); एक थी चिड़िया (चित्रकथा) स्पर्धा, बच्चों के नाटक, बच्चों के एकांकी पाँच बाल-नाटक (नाटक) ।

अनुवाद : 
ग्यारह तुर्की कहानियां, आंध्र प्रदेश : लोक संस्कृति और साहित्य, डॉ० आंबिडकर : एक चिंतन, सरदार पटेल : व्यवस्थित राज्य के निर्माता, एशिया के बाल-नाटक, स्वामी और उसके दोस्त आदि ।

कोरोना संकट से निपटने के लिए पुलिस राज्य पर भरोसा कितना पर्याप्त हैं?

कभी किसी ने सोचा भी नही होगा कि मानव सभ्यता अपने अस्तित्व की रक्षा के लिए इस तरह असहाय नजर आएगी। अब तक केवल परमाणु हमले, खगोलीय पिंड की टक्कर और जलवायु परिवर्तन के खतरों को ही सभ्यता के विनाशकारी कारक के तौर पर देखा जा रहा था। परंतु कोरोना वायरस से उपजे संकट ने दर्शा दिया हैं कि मानव सभ्यता के सामने चुनौतियां अनिश्चित हैं, इसलिए जरुरी नही की उनके विरुद्ध प्रतिक्रिया के लिए  समाधान भी पहले से ही तैयार मिले। उनके लिए उसी समय पर तत्कालीन उपायों की जरुरत पड़ सकती हैं। कई बार सटीक उपाय मिल जाते हैं या वैकल्पिक उपायों से काम चल जाता हैं, जैसे कि-जयपुर में एक कोरोना रोगी को एड्स की दवा से ठीक कर दिया गया। लेकिन सरकारों के पास समस्या से निपटने का एक लोकप्रिय तरीका और भी हैं, और वो हैं पुलिस राज्य।

जब भारत को महसूस हो गया कि कोरोना ने दरवाजे पर शानदार तरीके से दस्तक दे दी हैं। एयरपोर्ट्स पर सतर्कता के माध्यम से, जिस तरह भारत ने इबोला और जिका जैसे वायरसों पर नियंत्रण किया था, वो रणनीति अब यहाँ पर्याप्त नही हैं। अब अंदर की तरफ सक्रीय प्रयास करने की जरुरत हैं। तब भारत ने राष्ट्रव्यापी जनता कर्फ्यू का ट्रायल किया। उसके बाद, कोरोना के संक्रमण को आगे प्रसारित होने से रोकने के लिए 25 मार्च से 21दिन के लिए राष्ट्रव्यापी लॉकडाउन की घोषणा की गई। इसी के साथ सभी आवागमन के साधनों को बंद कर दिया गया। उत्पादन में लगी सभी इकाइयां बंद हो गई। ऐसे समय में विशेषकर प्रवासी लोगोमे बेचैनी बढ़ गई। लोग अपने घरों को जाने के लिए उतावले नजर आए। लोगों की आवाजाही को देखते हुए, तब इसको उचित क्रियान्वयन के लिए कर्फ्यू में परिवर्तित किया गया।

इसी के साथ ही ऐसा लगने लगा कि वेलफेयर स्टेट ने हार मान ली हैं और उसकी असमर्थताओं को दूर करने के लिए राज्य ने पुलिस राज्य को अपना लिया हैं। लोगो की भयंकर पिटाई के विडियो देखकर लगने लगा कि अब तो सिर्फ पुलिस स्टेट ही कोरोना से निपटने में राज्य की मदद कर पाएगा। यही से अब हम विभिन्न पहलुओं पर विश्लेषण करेंगे :

1. कल्याणकारी राज्य की विफलता एवं पुलिस राज्य पर भरोसा

कोरोना संकट से निपटने में कल्याणकारी राज्य की विफलता से बचना आसान नही हैं, क्योंकि इस तरह के संकट से निपटने के लिए राज्यों की तैयारियों में कई प्रकार की खामियां थी, जैसे कि :
  • विश्व स्वास्थ्य संगठन ने COVID-19 को वैश्विक महामारी घोषित किया था और सभी राज्यों को इसकी भयावहता के बारे में आगाह किया था। लेकिन सभी राज्यों ने इसकी उपेक्षा की, किसी ने भी इसको गंभीरता से लेने की आवश्यकता नही समझी।
  • सरकार ने इसको क्षेत्रीय संकट मानने को तवज्जो दी और इस भरोसे में रहे कि जिस तरह जिका, इबोला जैसे संकटों से हम बच गये थे, उसी प्रकार इसको भी संभाल लेंगे।
  • स्वास्थ्य आपातकालीन परिस्थितयों को लेकर पर्याप्त तैयारीयों का अभाव हैं। एपिडेमिक एक्ट मोजूद हैं, लेकिन उन्हें जनसंख्या वृद्धि और सघन आवास, यातायात के तीव्र एवं भीड़ भाड़ युक्त साधन आदि के सन्दर्भ में अद्यतन नही किया गया हैं।
  • संकट से निपटने के लिए मानक परिचालन प्रक्रिया (SOP) का अभाव हैं।
  • स्वास्थ्य अवसंरचना अपर्याप्त और अदक्ष हैं। संसाधनों का गंभीर अभाव हैं। स्वास्थ्य सुविधाओं का वितरण भी विषमतापूर्ण हैं।
  • स्वास्थ्य को आवंटित होने वाले बजट का हिस्सा जीडीपी का अति अल्प हैं।     
हालांकि ऐसा कहा जा सकता हैं कि वेलफेयर स्टेट विफल नहीं हुआ हैं बल्कि उसे कुछ चुनौतियां मिली हैं। और चुनौतियां किसी भी व्यवस्था के समक्ष आ सकती हैं, इसलिए यह नही कहा जा सकता कि वेलफेयर स्टेट विफल हो गया हैं और वह पुलिस स्टेट की शरण में चला गया हैं। हकीकत में पुलिस स्टेट वेलफेयर स्टेट की ही मदद का कार्य कर रहा हैं। अभी भी समस्या से निपटने के लिए असली भरोसा वेलफेयर स्टेट पर ही हैं, अभी भी मेडिकल सुविधाओं को ही प्राथमिकता देकर समस्या से निपटने के प्रयास किए जा रहे हैं। पुलिस स्टेट की भूमिका तो इतनी हैं कि वेलफेयर स्टेट के प्रयासों मे बाधा नही आए और उसे समस्या से निकलने के लिए ज्यादा संघर्ष नही करना पड़े।

इस बात से सहमत हुआ जा सकता हैं कि राज्य का अंतिम भरोसा अभी भी कल्याणकारी राज्य के माध्यम से संकट समाधान पर ही हैं। लेकिन सवाल वहां से उठना आरंभ हुआ, जब पुलिस की भूमिका नागरिकों के प्रति असंवेदनशील हो गई तो लोगो ने यह पूछना आरंभ कर दिया कि क्या अब संकट से बाहर पुलिस स्टेट की मदद से ही आ पाएंगे, कोरोना अब केवल लाठीचार्ज और कर्फ्यू की मदद से ही रुक पाएगा।

2. नागरिकों के साथ पुलिस का असंवेदनशील व्यवहार किस उद्देश्य की प्राप्त कर रहा हैं?

लोगों ने पहले कोरोना को लेकर जोक्स और मिम्स बनाये और लॉक डाउन की घोषणा के बाद पुलिस के हाथों हुई पिटाई के। राष्ट्रव्यापी कर्फ्यू में पुलिस का व्यवहार किस प्रकार असंवेदनशील हो सकता हैं, इसको दर्शाने वाले हजारों विडियो सोशल मीडिया पर अपलोड हुए।
  1. लॉक डाउन के कारण आर्थिक गतिविधियाँ बंद हो जाने से कई प्रवासी लोग बड़े-बड़े शहरों में फंस गये, वहां से वापस निकलने के लिए उनके द्वारा अपने मूल स्थानों की तरफ लंबी और पैदल या साइकिल पर यात्रा की गई। पुलिस ने ऐसे लोगों को दोड़ाया, लेटकर, रेंगकर, पलटी मारकर चलने के लिए मजबूर किया।
  2. जरुरी सामानों को लेकर बाहर निकलने वाले लोगों पर अत्यधिक लाठीचार्ज किया गया। घर में रहने का संदेश देने के लिए एक या दो लाठी काफी थी, लेकिन एक ही जने को दस से पन्द्रह तक लाठी मारी गई। कोलकाता में एक जने की मृत्यु पुलिस के लाठीचार्ज से हुई।
  3. पुलिस द्वारा लाठी मारने के लिए सभी सीमाओं को तोडा गया। गाँव में एकेले-दोक्ले मिले लोगो को पकड़ा गया। यहाँ तक कि एक जने को घर से निकालकर तक पिटा गया। घरों और बाड़ों में छापा मारा गया।
  4. पुलिस के अतिचारों के खिलाफ हुई प्रतिक्रियाओं को पुलिस ने अपने अहम् से जोड़कर देखा और फिर अत्यधिक बल का प्रयोग करके उनको सबक सिखाने के लिए अत्यधिक जुल्म किए।
  5. पुरुष सिपाहियों द्वारा महिलाओं और बच्चों पर लाठीचार्ज किया गया। एक बारह साल के लड़के को दस-बारह लाठी मारी गई।
  6. लोगो को आजीविका के साधनों को नष्ट कर दिया गया। दिल्ली में एक सिपाही ने सब्जी की रेहड़ियों को पलट दिया।
इस तरह के अंसख्य विडियो हैं, जो आपको इन्टरनेट पर मिल जाएंगे। सवाल उठता हैं कि पुलिस आखिर किस उद्देश्य की प्राप्ति कर रही हैं। क्या उसे अपने इस लाठी चलाने के अधिकार के लिए अपने कर्तव्य पता हैं। लाठी खाने के बाद उस युवक का क्या हुआ, क्या वह मर गया या जिन्दा हैं, क्या उसके हाथ-पैर टूट गये, इस बारे में पता हैं उनको?  अगर लाठी मारने के बाद उस युवक द्वारा की गई प्रतिक्रिया से आपको क्षति पहुंचती हैं तो आप शहीद-शहीद चिल्लाना शुरू कर देते हो। दुनियाभर की सहानुभूति बंटोरने लग जाते हो। क्या आपके मन में इसी तरह की सहानुभूति पीटने वाले लोगो के प्रति भी हैं। जो राज्य की विफलता की मार खा रहे हैं। एक असंवेदनशील पेशे के लिए कितनी सहानुभूति बंटोरोगे। साथ ही यह भी हैं कि हम मुश्किल वक्त में भी तुम्हारे लिए खड़े होते हैं। इस तरह के बिना वेशभूषा के बहुत सारे पेशे हैं, जो लोगो के लिए बलिदान देते हैं और उसका ढिंढोरा नहीं पिटते। सभी पेशे दूसरों के लिए ही होते हैं। इससे उस सवाल पर प्रशं उठता हैं कि नागरिकों और राज्य के मध्य संबंधों में इतना असंतुलन क्यों हैं।

3. राज्य एवं नागरिकों के मध्य निम्नीकृत संबन्ध : मौजूदा या पूर्व-प्रचलित ? 

कुछ लोगो का मानना हैं कि नागरिकों और राज्य के मध्य संबंधों में पुलिस राज्य की तिलांजलि कभी दी ही नही गई हैं, कल्याणकारी राज्य को अपनाया तो गया हैं लेकिन उसे पुलिस राज्य को प्रतिस्थापित करने के उद्देश्य से नही अपनाया गया हैं, उसके लिए राज्य की अपनी मजबूरियां हैं। पुलिस राज्य हमेशा की तरह बना रहा हैं। एक राज्य को हमेशा अपने नागरिकों की चुनौतियां का खतरा रहता हैं। पुलिस राज्य की संप्रभुत्ता को स्थापित करने में राज्य की आंतरिक स्तर पर मदद करती हैं, वह लोगो को उनकी अधीनता का अहसास समय-समय पर करवाती रहती हैं।

दरअसल सभी राज्यों ने अपनी प्रजा की भलाई के लिए कल्याणकारी मॉडल को अपना लिया हैं। इससे लोगों की भूमिका राज्य पर आश्रित की हो गई हैं। आश्रित लोगो को चीजे उपलब्ध करवाने में उच्च निकाय के पास हमेशा अपनी संप्रभुत्ता रहती हैं। लोगो की बगावत की संभावना हमेशा के लिए समाप्त हो जाती हैं। अगर फिर भी गुंजाईश रहती हैं तो पुलिस के माध्यम से अपनी सुरक्षा करने में सफल रहता हैं। वैसे भी लोकतंत्र ने चुनौती की मंजिल राज्य से परिवर्तित करके राजनीतिक दलों को कर दिया हैं।

हम कह सकते हैं कि कल्याणकारी राज्य का मतलब राज्य द्वारा न तो पुलिस में कटौती से हैं और न ही उसके विस्तार को रोकने से हैं। हमारी आदत हो गई हैं कि हम दो विपरीत या प्रतिद्वंदी चीजों में से किसी स्थान विशेष पर एक की ही उपस्थिति को देखते हैं। दोनों भी साथ-साथ और एक दुसरे के पूरक के रूप में हो सकती हैं।       

इस प्रकार हम देखते हैं कि नागरिकों और राज्य के मध्य संबंधों में यह निम्नीकरण मोजुदा नही हैं, यह पूर्व में प्रचलित ही हैं। हालांकि उसकी अभिव्यक्ति स्पष्ट नही होती हैं। मानव अधिकारों जैसी सीमाएं उन पर आरोपित रहती हैं।

 4. क्या यह निम्नीकरण मूल अधिकारों से संबंधित सुरक्षा उपायों का खोखलापन दर्शाता हैं? 

सड़क पर चल रहे आदमी के क्या मूल अधिकार हैं। अगर वह किसी साधन पर हैं तो पुलिस उसे किसी न किसी जुर्म में फंसा ही सकती हैं या फिर किसी भी जुर्म के शक में जितनी मर्जी हो उतने डंडे मार ही सकती हैं। डंडे मारने के लिए किसी जुर्म का होना जरुरी थोड़े ही हैं। आदमी कानून व्यवस्था को बनाए रखने में बाधक बन रहा था या फिर सहयोग नही कर रहा था, इस तरह की शब्दावली के माध्यम से पुलिस अपने गंभीर कृत्य को धक् ही देती हैं। डंडे मारना तो बहुत छोटी बात हैं, लोगो की पुलिस कस्टडी में हत्या तक हो जाती हैं। उन पर कोई प्रगति नही होती, जिनमे दोषियों को सजा मिल सके। इसलिए विशेषकर डंडे मारने के बारे में मूल अधिकारों की सीमाएं तो स्पष्ट हैं।

लेकिन कई बार हम देखते हैं कि पुलिस कार्यवाही में किसी व्यक्ति की मृत्यु हो जाती हैं या पुलिस द्वारा मानवीय गरिमा के विपरित कार्य किए जाते हैं और उनकी व्यापक आलोचना होती हैं या फिर पुलिस को ही छवि खराब होने का अंदेशा रहता हैं तो उन पर कार्यवाही होती हैं। इसलिए बात यह हैं कि आपको खुद सजग बनना होगा और मार खाने की बजाय सवाल करना होगा। वरना सुरक्षा उपायों के साथ-साथ आपका भी खोखलापन सामने आ जाएगा। 

5. अपने अधिकारों की बहाली या उत्थान के लिए, क्या  लोग आगे प्रयास करेंगे ?

जिस तरह लॉक डाउन में लोगो ने गांधीवादी तरीके से लाठी खाई हैं, उससे तो नही लगता कि लोग आगे भी इस तरह की असंवेदनशीलता के प्रति आवाज उठाएंगे। यह कोई प्रथम मौका नही हैं, ऐसी घटनाए क्षेत्रीय स्तरों पर होती रहती हैं और इस पर कोई प्रतिक्रिया नही आती हैं। दूसरी तरफ पुलिस के साथ-साथ लोगो की भी संवेदना मरती जा रही हैं, जो मार खाते लोगो के वीडियोज बना रहे हैं और उन पर जोक्स बना रहे हैं। इसलिए लोग भी खुश हैं कि हम तो बच गये, वो फंस गया, इसी में ख़ुशी हैं। इसलिए इन संबंधों में परिवर्तन के लिए प्रयास की बात असंभव सी हैं।

निष्कर्ष        

पुलिस में संवेदनशीलता के गुणों के विकास पर विशेष कार्य करने की जरुरत हैं। जरुरतमंद लोगो की मांग को पुलिस कर्मी खुद समझे, इस तरह के मूल्यों को विकसित करने की आवश्यकता हैं। इसी संकट में कुछ ऐसे पुलिस कर्मियों के भी विडियो सामने आये, जिन्होंने लोगों की मदद की और उन्हें सयंमित होकर प्यार से समझाया। लेकिन यह अपवाद न होकर सामान्य विशेषता होनी चाहिए। लॉकडाउन के आरंभिक चरण में ही पुलिस कर्मियों द्वारा अनियंत्रित पीटना दर्शाता हैं कि उनके पेशेवर मूल्यों में गंभीर खामियां हैं। यह कहने के लिए कि आपको घर से बाहर नही निकलना हैं, क्या पुलिस द्वारा तब तक पीटना चाहिए, जब तक वह आदमी उनकी पहुँच में हो। इस तरह की पिटाई तो बार-बार उल्लंघन की दशा में ही कुछ हद तक न्यायोचित ठहराई जा सकती हैं। इसलिए पुलिस में शामिल करने वाले लोगो में विवेक को भी समान रूप से महत्त्व दिए जाने की आवश्यकता हैं। इसी तरह की पुलिस व्यवस्था कल्याणकारी राज्य का अंग मानी जा सकती हैं।

दूसरी बात इस संकट से निपटने में पुलिस स्टेट की भूमिका कुछ भी नही हो सकती, लोगों को घरों में खदेड़ने के अलावा। इसलिए कल्याणकारी राज्य को ही अपनी खामियों पर विचार करते हुए उन्हें तत्काल प्रभाव से दूर करना चाहिए ।

विरोधाभासी हितों की जकड़न में रणथंभौर

Ranthambore tiger, territorial conflict among tigers
बाघों के प्राकृतिक परिवेश में विचरण करते देखने की चाह लेकर आने वाले वाले देशी-विदेशी पर्यटकों ने रणथंभौर को वैश्विक पर्यटन मानचित्र पर विशिष्ट जगह दी हैं। रणथंभौर को बाघ आरक्षित क्षेत्र घोषित करके उनके संरक्षण को विधायी रूप से सुनिश्चित किया गया हैं। पर्यटन से जुडी गतिविधियाँ यहाँ पर तेजी से फलफूल रही हैं। लेकिन इन्ही के समानांतर रणथंभौर में इस समय कई प्रकार के द्वन्द मौजूद है। जो स्थानीय लोगो को दैनिक रूप से प्रतिकूल रूप से प्रभावित  कर रहे है। इस आलेख में  हम उन द्वंदों की पहचान कर रहे हैं, हालाँकि स्थानीय लोगो को इन द्वंदों के बारे में जागरूक करना भी समान रूप से चुनौतीपूर्ण है। इन द्वंदों का संतुलित विश्लेषण करने के लिए आवश्यक हैं कि द्वंद में मौजूद कमजोर पक्ष अपने उपेक्षित होते हितो की पहचान करे। ऐसी स्थिति में ही संबंधित प्राधिकारियों को उनके हितो के लिए उपाय करने हेतु तैयार किया जा सकता हैं। रणथंभौर में विरोधाभासी हितो की इस पहेली में कई हितधारक हैं, जिनमे सरकार, पर्यटन उद्योग, पर्यावरणवादीयों के साथ-साथ स्थानीय समुदाय प्रमुख हैं। इनमे सबसे कमजोर हितधारक स्थानीय समुदाय हैं, जिनके हितो की पहचान, जागरूकता और संरक्षण की आवश्यकता हैं। इस आलेख में स्थानीय समुदाय को विशिष्ट रूप से ध्यान में रखते हुए द्वंदों की पड़ताल की गई हैं। 

एक ऐसी स्थिति याद आ रही हैं जिसमें लोगो के मन में असंतोष तो हैं कि जो भी हो रहा हैं, वो उनके हितो के अनुकूल नही हैं। लेकिन उन्हें पता नही हैं कि उनके हित क्या हैं और क्या वे किसी प्रकार का कोई नैतिक या न्यायिक आधार रखते भी हैं या नही। कोई न तो उनके हितो की वकालात करता और न ही कोई उनके प्रति सहानुभूति दर्शाता हैं, इससे ऐसा भी लगता हैं कि हो सकता हैं वो ही गलत हो। इस प्रकार यह अज्ञानतापूर्ण अपराधबोध ही उन्हें सुभेद्य स्थिति में ले जाने के लिए उत्तरदायी हैं। यह एक तरीके से औपनिवेशिक स्थिति के समकक्ष हैं, उसकी आहट हैं।     

जिस तरह दादाभाई नौरोजी ने औपनिवेशिक व्यवस्था के आर्थिक प्रभावों की पहचान की और उनके खिलाफ आवाज उठाई। भले ही उसका अंग्रेजों पर तत्काल कोई असर नही हुआ हो,परन्तु वे द्वंद को उजागर करने में कामयाब हुए थे। इसलिए हमे भी दादाभाई नैरोजी के समान अपनी बात को कहने से नहीं चूकना चाहिए, इस भरोसे में नहीं रहे कि कोई सुनने वाला तो है ही नहीं, हम बोलकर क्या करेंगे। हो सकता है लोग एक शुरुआत का इंतजार कर रहे हो।

मौजूदा द्वन्द निम्न प्रकार के है -
1.  वन्य जीव -मानव संघर्ष
2.  बाघ-बाघ संघर्ष
3.  स्थानीय लोग -वन प्रशासन टकराव
4 . लोग आपसी टकराव
5.  व्यावसायिक समूहो के संघर्ष

चलो अब हम इन संघर्षो का विस्तृत खाका खींचने की कोशिश करते है -

1. TIGER- TIGER CONFLICT

रणथम्भौर राष्ट्रीय उद्यान लम्बे समय से बाघों का प्राकृतिक आवास रहा है। प्रोजेक्ट टाइगर के द्वारा मिले संरक्षण के माध्यम से न केवल अपना अस्तित्व बनाये रखा है, बल्कि बाघों के जनसंख्या आधिक्य से जुडी समस्याए उत्पन्न भी हुई है। जंगल में बाघों के इलाको में टकराव के कारण आपसी संघर्ष हुए है। जंगल पर इनकी बढ़ती हुई संख्या के दबाव से इन्होने वन क्षेत्र के बाहर भी मूवमेंट शो किया है।

2. TIGER- LOCAL PEOPLE CONFLICT

आबादी क्षेत्रो में बाघों के प्रवेश ने लोगो में आक्रोश को उतपन्न किया है। इन बाघों ने आबादी क्षेत्रो में जाकर मवेशियों और यहां तक की मानव तक का शिकार किया है। इनके खौप के कारण लोग रात में फसलों की सिंचाई और रखवाली तक को नहीं जाते है। जिसके कारण उनकी फसल को रात्रि में आवारा पशुओ का जोखिम रहता है। रात्रि में विधुत का फीडर होने की वजह से उसे खली छोड़ना पड़ता है। इस वजह से आक्रोश के लपेटे में विद्युत विभाग भी आ जाता है।
बाघों की वजह से जंगल में लोगो की गतिविधियों को पहले ही प्रतिबंधित किया जा चूका है। इसकी वजह से वे दैनिक उपयोग के वनोत्पाद को प्राप्त नहीं कर सकते है। उनके पशुओ को चराने पर प्रतिबंध लगा दिया गया है। गाँवो में चरागाहों पर अतिक्रमण की स्थिति उत्पन्न होने से अब किसानो के लिए पशुओ को रखना मुश्किल हो गया है। इस प्रकार इसने आजीविका को भी बुरी तरिके से प्रभावित किया है।

3.  GOVT- PEOPLE CONFLICT

एक तरफ लोगो का प्रवेश हतोत्सहित कर दिया गया है , वही दूसरी तरफ पर्यटन गतिविधियों का संचालन लोगो के मन में संशय उत्पन्न करता है कि उन्हें उनके संसाधनों से वंचित किया जा रहा है। क्योकि कई गाँवो को इसके सीमा क्षेत्र से विस्थापित कर दिया गया है, जिनका पुनर्वास ने न केवल विस्थापित लोगो बल्कि अन्य लोगो के मन में भी आक्रोश उत्पन्न किया। क्योकि उन्हें नई  जगहों पर बहुत परेशानियों का सामना करना पड़ा।  अब जो गांव बफर एरिया में स्थित है उन पर भी कई तरह के अंकुश थोपे जाते है। जिसके कारण उनमे भी गुस्सा है। इन अंकुशों पर प्रतिक्रिया का उदाहरण उलियाना गांव में सामने आ चूका है। पडोसी गांव के लोगो ने दिवार को समय समय पर तोड़कर बताया है कि वे सरकार के वनो से पृथक करने के फैसले से खुश नहीं है।

4 PEOPLE-PEOPLE CONFLICT

 सरकारी अंकुशों के बावजूद अपनी गतिविधियों को जारी रखने के लिए लोगो ने अवैध तरीको को अख्तियार किया है। जिसकी वजह से स्वयं लोगो को ही परेशानी का सामना करना पड़ा है। जैसे कि - पहाड़ो से पत्थर लाने पर रोक के कारण अवैध खनन करने वाली सरपट दौड़ती ट्रेक्टर-ट्रॉलियों ने कई लोगो को कुचला है ,जिससे खुद ग्राम वाले ही इनका विरोध कर रहे है। दूसरा उदाहरण यह है कि वनो व चरागाहों तक पहुंच के आभाव में पशुपालको के जानवर खेतो में पहुंच जाते है, जिससे ग्रामीणों के बीच आपसी तनाव उत्पन्न हो जाता है। इस  प्रकार से चीजे आपसी तनाव को बढ़ावा दे रही है।

5. CONFLICT FROM BUSINESS

वही लोगो को एक तरफ तो घरो के लिए पत्थरो आदि की जरूरत पड़ती है, वही दूसरी तरफ सरकार इस पर प्रतिबंध लगाकर इस मसले को उलझा देती है। वही कुछ व्यवसायियों को वनो में गतिविधियों का संचालन की अनुमति देती है। जिससे यह साबित होता है कि नियम कायदे केवल गरीबो के लिए है। पैसे वाले के लिए कोई नियम कानून नहीं है।

6. CONFLICT BY ENVIRONMENT

रणथम्भौर के पर्यावरण संरक्षण के मद्देनजर इस क्षेत्र में कोई बड़ी औधोगिक इकाई यहाँ पर लग नहीं पाई है। इसकी वजह से क्षेत्र में काफी ज्यादा बेरोजगारी पाई जाती है। पर्यटन की वजह से भी पर्याप्त रोजगार उत्पन्न नहीं हुए है।

7. OTHER ISSUES

इसके अलावा रणथम्भौर एक ऐतिहासिक स्थल रहा है ,जिसका महत्व वर्तमान में गौण हो गया है। उसके ऐतिहासिक महत्व के आधार पर इसकी प्रासंगिकता पर विचार करना चाहिए , न की सवाई माधोपुर की स्थापना की छाया में उसे दबाना चाहिए।

खंड II
कभी भी ऐसा नहीं होना चाहिए कि भौगोलिक विशेषताएं स्थानीय लोगो को फायदा नहीं पहुचाये, उल्टा उन्हें परेशानी में डाले और फायदे बाहर के लोगो को मिले। लोगो में अपने स्थान को लेकर स्वाभिमान की भावना उत्पन्न करने के प्रयास किए जाने चाहिए। रणथम्भोर से जुड़े इसी प्रकार के मुद्दों को हम इस रिपोर्ट में कवर करने की कोशिश करेंगे, ताकि हम उन से जुड़े समाधानों की तलाश कर सके। लोगो में यह भाव रहना चाहिए कि प्राकृतिक संस्धानों पर उनके परम्परागत अधिकार कायम है। रणथम्भौर में लोगो की समस्याओं के समाधान की असीम क्षमता है, जिसे प्रयुक्त  करने की आवश्यकता है। रणथम्भौर लोगो के जीवन में सकारत्मक भूमिका निभाएगा। इस भावना के साथ हम इस मुद्दे पर आगे बढ़ते है।

अब बात करते है समाधानों की। तो इसके लिए सभी हितधारकों की  चिंताओं का समाधान जरुरी है। जिसे पृथक-पृथक रूप से सम्बोधित किया जा सकता है -
  1. ग्रामीण फोरम
     
    वन क्षेत्र के पडोसी गांव  के लोगो की एक फोरम बनाई जानी चाहिए , जिसे स्थानीय वन चौकी से जोड़ा जाए। जिसमे वन विभाग ग्रामीणों की अपेक्षाओं का ध्यान रखे। वही ग्रामीण वन कानूनों के प्रवर्तन में सहयोग करे। इससे दोनों पक्षों के बीच सुचना अंतराल उत्पन्न नहीं होगा और किसी प्रकार के अविश्वास  उत्पन्न नहीं होगी। वही मांगो और अपेक्षाओं पर तात्कालिक कार्रवाही सम्भव होगी। 
  2. वन्य जीवो का दूसरे जगहों पर स्थानांतरण किया जाए।  वन क्षेत्रो में दूसरे जीवो की संख्या बधाई जाए। पर्यटन  के द्वारा वन क्षेत्र को इतना अशांत नहीं बनाया जाए कि बाघ जंगल से निकलकर आबादी भूमि में पहुंच जाए। 
इस प्रकार हम रणथम्भौर से जुडी प्रतिकुलताओ को  अवसरों में बदल सकते है।

खंड III
रणथम्भौर में पर्यटन से जुड़े अवसरों को संवर्धित करने की आवश्यकता है। यहां  शूटिंग की भी अपार संभावनाए है।

निष्कर्ष :
Those who forget geography can never defeat it  वाली बात यहां पर सही साबित हो जाती है। इसलिए हमे भूगोल को काबू में करने की जरुरत है।