रणथंभौर में बाघ: आशीर्वाद या अभिशाप

बाघ और मनुष्यों के बीच बढ़ते संघर्षो को स्वीकार करने में भारी असंतुलन मौजूद है। बाघ के समान, मनुष्य की प्रतिकूलताओं पर नीति निर्माताओ, पर्यावरणविद् और स्थानीय वन प्रशासन का उचित ध्यान नहीं जाता है। बाघ संरक्षित क्षेत्र की घोषणा के बाद, स्थानीय लोगों ने जो खोया है, उसकी चर्चा कभी नहीं की जाती है। तुरंत ही वनों पर उनकी निर्भरता समाप्त हो गई, आजीविका प्रभावित हुई और अब बाहरी क्षेत्र में भी बाघों के हमले बढ़ रहे हैं। कभी-कभी मुझे लगता है कि स्थानीय लोगों की आवाज गायब है। सभी की नजरे बाघ पर है कि कैसे यह विभिन्न हितधारकों को अधिकतम लाभ प्रदान कर सकता हैं। अन्य सभी प्रकार की आवाजें हाशिए पर हैं।

बाघों के कारण सवाई माधोपुर को वैश्विक पटल पर टाइगर सिटी के रूप में पहचान मिली है। प्राकृतिक आवास में बाघों को विचरण करते देखने के लिए आकर्षित होकर आने वाले देशी-विदेशी पर्यटकों ने क्षेत्र की अर्थव्यवस्था को महत्वपूर्ण समर्थन प्रदान किया है। इस हिसाब से बाघों की यहां पर उपस्थिति को  क्षेत्रवासियों के लिए एक प्राकृतिक आशीर्वाद की तरह माना गया है।

लेकिन वे पहलु अब यहां पर महत्व हासिल करते जा रहे है, जो दर्शाते है कि बाघों की यह उपस्थिति क्षेत्र के लोगो के लिए आशीर्वाद से कही बढ़कर अभिशाप है। क्योकि स्थानीय लोगो के लिए इनसे फायदे का ऐसा कोई शक्तिशाली विचार नहीं है, जिसके आधार पर ये गर्व कर सके। वन क्षेत्र के बाहर आबादी वाले क्षेत्रो में बाघों की आवाजाही ने स्थानीय लोगों को अपने घरों और खेतों में भय के माहौल में काम करने के लिए मजबूर कर दिया है। जिसने न केवल गाय, बकरी और भेड़ जैसे पशुओ का शिकार किया हैं, बल्कि मानव पर भी जानलेवा हमले किए हैं। पिछले आठ साल में पन्द्रह से अधिक लोगो का शिकार इस क्षेत्र में किया है। जो चौकाने वाला आंकड़ा है। हाल ही में एक दस साल के लड़के पर हमला किया गया हैं।

यहाँ पर हम, एक ऐसी तस्वीर देख रहे हैं जिसमे एक तरफ पर्यटन व्यवसाय में सलग्न लोग, वन अधिकारी और राजनेताओ के हित तथा बाघ के हितो की पैरवी करने वाले पर्यावरणविद् हैं। इन सबकी नजरो में बाघ महत्वपूर्ण हैं। लेकिन तस्वीर का दूसरा पक्ष स्थानीय लोगो के हितो का हैं, जो आलोचना की हद तक उपेक्षित हैं। हम इस आलेख में इन्ही दो पक्षों के बीच के असंतुलन पर विमर्श करेंगे।

आशीर्वाद के रूप में बाघ
बाघों को प्राकृतिक आवास में विचरण करते देखना रणथंभोर में एक वास्तविक अनुभव है। इस विशेषता ने यहां कई मशहूर हस्तियों को आकर्षित किया है, उदाहरण के लिए सयुंक्त राज्य अमेरिका के तत्कालीन राष्ट्रपति बिल क्लिंटन, भारत और विदेशी सरकार के कई पूर्व और सेवारत गणमान्य व्यक्ति, राजनेता, खिलाड़ी, अभिनेता और कई प्रकृति से प्यार करने वाले लोग। बाघ आधारित पर्यटन के कारण सवाई माधोपुर में होटल और हस्तशिल्प जैसी आर्थिक गतिविधियों में वृद्धि हुई हैं। 

पर्यटकों की संख्या दिन पर दिन बढ़ती जा रही है। इसलिए कई निवेशक यहां रुचि ले रहे हैं। ओबेरॉय जैसे व्यावसायिक घरानों ने यहाँ पर निवेश किया हुआ हैं। कई अफसरों, राजनेताओ और व्यवसायियों के लिए यह निवेश का एक आकर्षक गन्तव्य बन गया हैं। यही वजह हैं कि सवाई माधोपुर के शहरी क्षेत्र से दूर गाँवो तक होटलों का निर्माण कार्य चल रहा हैं, पर्यटकों, चालको और मार्गदर्शको के लिए सुविधा केंद्र बन रहे हैं। इस प्रकार आतिथ्य क्षेत्र की विभिन्न प्रोफाइल में स्थानीय लोगों के लिए रोजगार के अवसर पैदा हुए हैं, उदाहरण के लिए होटल, शिल्प, गाइड और ड्राइवर। 

गलत की शुरुआत यहाँ से होती है
रणथम्भोर में बाघों के हिंसक होने के लिए निम्न कारण देखे जा सकते हैं -
  1. वन में बाघों की संख्या का अधिक होना और इलाको का आपसी टकराव
  2. पर्यटन के दबाव
  3. नीतिगत खामियां
  4. मानवीय गतिविधियों की वन क्षेत्र में उपस्थिति 
अभिशाप के रूप में बाघ
आबादी भूमि में बाघों के प्रवेश की आवृत्ति में इजाफा हुआ है। जिसका कारण वन में बाघों की संख्या का अधिक होना और इलाको का आपसी टकराव है। जिन्हे तत्काल दूसरे क्षेत्रो में भेजने की जरूरत है। या फिर विस्तारित कॉरिडोर का निर्माण की जरूरत है।इसके साथ ही पर्यटन के दबाव को कम करने की भी जरुरत हैं। निम्न बिंदु स्पष्ट करेंगे कि टाइगर ने किस तरीके से लोगो के जीवन को नकारत्मक रूप से प्रभावित किया है -
  1. हिंसक हमले : बाघों ने आबादी भूमि में अक्सर अपनी आवाजाही बनाये रखी है। जिसका शिकार गाय, बकरी और भेड़ जैसे पशुओ के साथ-साथ मानव तक हुए है। पिछले सात साल में तेरह लोगो का शिकार इस क्षेत्र में किया है। जो चौकाने वाला आंकड़ा है।
  2. आजीविका संकट : बाघों के कारण लोगो की जंगल तक पहुंच को प्रतिबंधित कर दिया गया है। जिससे उनकी पशुपालन और वनोत्पाद संग्रहण पर निर्भर आजीविका रुक गई। क्योकि उनके विकल्पों के लिए सरकार द्वारा कोई व्यवस्था नहीं की गई। साथ ही बाघों के खौप के कारण लोग रात में फसलों की सिंचाई और रखवाली तक को नहीं जाते है। जिसके कारण उनकी फसल को रात्रि में आवारा पशुओ का जोखिम रहता है। 
  3. वन क्षेत्र में पहुंच से वंचित होना : वन क्षेत्र में पशुओ को चराने पर प्रतिबंध लगा दिया गया है। वही गाँवो में चरागाहों पर अतिक्रमण की स्थिति उत्पन्न होने से अब किसानो के लिए पशुओ को रखना मुश्किल हो गया है। इस प्रकार इसने आजीविका को भी बुरी तरीके से प्रभावित किया है।
  4. समीपवर्ती गांवो पर प्रतिबंध : गांव बफर एरिया में स्थित है उन पर भी कई तरह के अंकुश थोपे जाते है। जिसके कारण उनमे भी गुस्सा है। इन अंकुशों पर प्रतिक्रिया का उदाहरण उलियाना गांव में सामने आ चूका है। पडोसी गांव के लोगो ने दिवार को समय समय पर तोड़कर बताया है कि वे सरकार के वनो से पृथक करने के फैसले से खुश नहीं है।
  5. विस्थापन : कई गाँवो को इसके सीमा क्षेत्र से विस्थापित कर दिया गया है, जिनका पुनर्वास ने न केवल विस्थापित लोगो बल्कि अन्य लोगो के मन में भी आक्रोश उत्पन्न किया। क्योकि उन्हें नई  जगहों पर बहुत परेशानियों का सामना करना पड़ा। हाल ही में एक जगह पर विस्थापित किए गये लोग अपनी मूल जगह पर धार्मिक काम के सिलसिले में आये थे और उन्होंने वापस जाने से मना कर दिया था। 
  6. पक्षपातपूर्ण नीतियां : एक तरफ लोगो का प्रवेश हतोत्सहित कर दिया गया है, वही दूसरी तरफ पर्यटन गतिविधियों का संचालन लोगो के मन में संशय उत्पन्न करता है कि उन्हें उनके संसाधनों से वंचित किया जा रहा है। इसके अतिरिक्त कुछ व्यवसायियों को वनो में गतिविधियों के संचालन की अनुमति दी हुई है। जिससे यह साबित होता है कि नियम कायदे केवल गरीबो को रोकने और अमीरों की सुविधा के लिए है। पैसे वाले के लिए कोई नियम कानून नहीं है।
  7. उद्योगों की स्थापना में बाधक : रणथम्भौर के पर्यावरण संरक्षण के मद्देनजर इस क्षेत्र में कोई बड़ी औधोगिक इकाई यहाँ पर लग नहीं पाई है। इसकी वजह से क्षेत्र में काफी ज्यादा बेरोजगारी पाई जाती है। पर्यटन की वजह से भी पर्याप्त रोजगार उत्पन्न नहीं हुए है।
  8. इत्यादि। 
क्या किए जाने की जरुरत हैं 
हमे स्थानीय लोगो और पर्यटन व्यवसाय या वन संरक्षण से जुड़े लोगो के हितो को आपस में प्रतिद्वंदी के तौर पर नही देखना चाहिए। हमे इनके बीच में संतुलन स्थापित करना होगा। स्थानीय लोगो के हितो की उपेक्षा करने से वन प्रशासन और पर्यटन व्यवसायीयों के खिलाफ भावनाओ का उदय होगा, जिसके व्यापक राजनीतिक और प्रशासनिक निहितार्थ होंगे। उसी प्रकार पर्यटन क्षेत्र की उपेक्षा करने से एक उभरते क्षेत्र के सामर्थ्य से वंचित रह जायेंगे। उसी प्रकार बाघ के हितो को भी प्राथमिकता देने की आवश्यकता हैं। यहां पर निम्न उपाय किए जा सकते हैं -
  1. बाघों के हमले में घायल और मरने वाले लोगो के लिए एक निश्चित मुआवजा नीति होनी चाहिए। इसे अधिकारियो के विवेक और सौदेबाजी क्षमता के भरोसे मामला-दर-मामला निर्धारित नही करना चाहिए। घायलों के उपचार के लिए व्यवस्था होनी चाहिए। किसी भी हमले की स्थिति में एक जिम्मेदार अधिकारी को पीड़ित के पास जाकर अग्रिम कार्यवाही का आश्वासन देना चाहिए।
  2. बाघ की वन क्षेत्र के बाहर और भीतर सघन निगरानी की जानी चाहिए। वन क्षेत्र से बाहर निकलते ही संबंधित क्षेत्र के निवासियों को वास्तविक समय सूचना प्रदान करनी चाहिए ताकि वे सुरक्षित स्थानों पर पहुँच सके। साथ ही वन विभाग के कर्मियों को वापस वन में भेजने पर कार्य करना चाहिए।
  3. राष्ट्रीय उद्यान के जिन क्षेत्रो से बाघ की निकासी होती हैं, उन क्षेत्रो में चारदीवारी की मरम्मत की जाए। साथ ही चारदीवारी के निर्माण में खराब गुणवत्ता के सामानों का प्रयोग करने वाले ठेकेदारों पर कार्यवाही की जाए।
  4. हिंसक हुए बाघ को एनक्लोजर में रखा जाना चाहिए या फिर उसके लिए अधिक क्षेत्र की व्यवस्था करनी चाहिए। ऐसी घटनाओ को पुनः अंजाम देने वाले बाघों पर ठोस उपाय किए जाने चाहिए।  
  5. फसलो के दिनों में बाघ को छुपने में आसानी रहती हैं, इसलिए इस दौरान निगरानी में सख्ती बरतनी चाहिए। साथ ही बड़े-बड़े बगीचों के पौधो में भी उसके छुपे होने की संभावना हो सकती हैं। इसलिए किसानो और वन विभाग के बीच उसके मूवमेंट को लेकर सूचनाओ के आदान-प्रदान की संस्थागत व्यवस्था होनी चाहिए। चेतावनी प्रणाली की तरह सुचनाए वितरित करनी चाहिए।
  6. बाघ के मूवमेंट को लेकर ग्रामीणों द्वारा दी गई सूचनाओ को वन विभाग द्वारा नकार दिया जाता हैं, ऐसे में वन कर्मियों की जवाबदेही तय करने की आवश्यकता हैं।
  7. वन क्षेत्र में से पर्यटन के दबाव को कम करने की आवश्यकता हैं ताकि बाघ अपने मूल क्षेत्र में हस्तक्षेप मुक्त महसूस कर सके। एक समय सीमा का पालन किया जाना चाहिए। बाघ को परेशान करने वाले जिप्सी चालको और पर्यटकों पर कार्यवाही करने की आवश्यकता हैं।
  8. पर्यटन क्षेत्र और विचरण क्षेत्र को लग करने की आवश्यकता हैं। इसके लिए टाइगर सफारी पार्क की स्थापना  की योजना को यथासीघ्र जमीनी आधार दिया जा सके।
  9. बाघ आधारित नीतियों के निर्माण में स्थानीय लोगो को भी शामिल किए जाने की जरुरत हैं। इसमें केवल व्यवसायिक समूहों से जुड़े बाघ-प्रेमियों का ही दबदबा नही होना चाहिए ।
  10. इत्यादि। 

निष्कर्ष
अंत में हम यही कहेंगे कि जंगल में विचरण करता बाघ निश्चित तौर पर एक वरदान की तरह है। परन्तु जैसे ही यह जंगल से बाहर निकलता है तो लोगो की दिनचर्या का बाधित करने के साथ-साथ दहशत उत्पन्न करने की वजह से यह अभिशाप बन जाता है। ऐसे में हमारी कोशिश होनी चाहिए कि यह जंगल में ही बना रहे। इसके लिए सुझाए गये उपायों का क्रियान्वयन सुनिश्चित करना होगा।

UPSC सिविल सेवा मुख्य परीक्षा 2019 निबंध प्रश्न पत्र

सिविल सेवा मुख्य परीक्षा 2019, निबंध प्रश्न-पत्र का इस आलेख में सटीक दृष्टिकोण बताया जा रहा हैं। किसी निबंध के मॉडल उत्तर में किन-किन पक्षों को शामिल किया जाना चाहिए तथा सम्बन्धित विषय पर क्या संतुलित दृष्टिकोण होना चाहिए, इन सबको आप इस आलेख में देख सकते हैं। इसी तरह की हमारी पहल को गत वर्ष भी काफी सराहा गया था।
खंड I
  1. विवेक सत्य को खोज निकालता है।  (Wisdom finds truth)
  2. मूल्य वे नही जो मानवता है, बल्कि वे है जैसा मानवता को होना चाहिए।  (Values are not what humanity is, but what humanity ought to be)
  3. व्यक्ति के लिए जो सर्वश्रेष्ट है, वह आवशयक नही की समाज के लिए भी हो। (Best for an individual is not necessarily best for the society)
  4. स्वीकारोक्ति का साहस एवं सुधार करने की निष्ठा सफलता के दो मंत्र है। (Courage to accept and dedication to improve are two keys to success)
खंड II
  1. दक्षिण एशियाई समाज सत्ता के आस-पास नही, बल्कि अपनी अनेक संस्कृतियों और विभिन्न पहचानो के ताने बाने से बने है। (South Asian Societies are woven not around the state, but around their plural cultures and plural identities)
  2. प्राथमिक स्वास्थ्य सेवा और शिक्षा की उपेक्षा भारत के पिछड़ेपन का कारण हैं। (Neglect of primary healthcare and education in India are reasons for its backwardness)
  3. पक्षपातपूर्ण मीडिया भारत के लोकतंत्र के समक्ष एक वास्तविक खतरा है। (Biased media is a real threat to Indian Democracy)
  4. कृत्रिम बुद्धि का उत्थान:भविष्य में बेरोजगारी का खतरा अथवा पुनर्कौशल और उच्च-कौशल के माध्यम से बेहतर रोजगार के सृजन का अवसर। (Rise of Artificial Intelligence: the threat of jobless future or better job opportunities through reskilling and upskilling)


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खंड I के निबंधों से संबंधित सही दृष्टिकोण

1.1.विवेक सत्य को खोज निकालता है।
(Wisdom finds truth)

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1.2.मूल्य वे नही जो मानवता है, बल्कि वे है जैसा मानवता को होना चाहिए।
(Values are not what humanity is, but what humanity ought to be)
एक मापदंड के रूप में मूल्यों ने किसी समाज, देश या संगठन के लक्ष्यों और उद्देश्यो की प्राप्ति में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है। समाज के उद्देश्यों की प्राप्ति में सहायक मूल्यों को हमेशा सराहा गया है।मानव समाज के हितों की प्राप्ति के लिए भी मूल्यों का निर्धारण किया गया है। जिन्हें मानवीय मूल्य कहा जा सकता है। सभी लोगो को इन मूल्यों को अंगीकृत करने के लिए प्रोत्साहित किया जाता है। एक तरह से मानव समाज के ऐसा होने की उम्मीद की जाती है।
  • लेकिन मूल्यों का यह मापदंड मानवीय उद्देश्यो में पूर्णतः सफल नही रहा है क्योंकि : कई मूल्य हिंसक, द्वेषतापूर्ण, पक्षपातीय और समयातीत है। भौतिकतावादी दौड़ के कारण मूल्यों का क्षरण हो रहा है। मूल्यों की प्राप्ति हमेशा से आदर्श रही है और माना जाता रहा है कि लोगो की सामाजिक आर्थिक स्थिति उतनी अच्छी नहीं है कि वे आदर्शो को व्यवहार में अपना सके।मानवीय हितों पर आधारित मूल्यों ने प्रकृति की अनदेखी की है।
  • इसलिए मूल्यों ने तो मानवता को समुचित राह दिखाई। लेकिन मानवता ने  मूल्यों को हमेशा कमतर आंका। इसका परिणाम यह रहा कि अनैतिकता को समाज मे मान्यता मिलने लगी। उदारहण के लिए भ्रष्टाचार करने वालो को लोगो द्वारा गलत नही मानना। अगरिमामय और शोषणकारी गतिविधियों को नियति मान लिया गया और विरोध करने वालो को   बगावती या विद्रोही माना गया। एक तरह से मूल्यों का नवीनीकरण जटिल हो गया।
  • ऐसे में जरूरी है कि मूल्यों की शाश्वतता को बनाये रखा जाए, उसे मानवीय हितों के अनुकूल सुविधा अनुसार परिभाषित नही किया जाए। उसके पालन को समाज और सरकारो द्वारा बढ़ावा दिया जाए। अगरिमापूर्ण चीजो को समाप्त किया जाए और सार्वभौमिक मूल्यों को बढ़ावा दिया जाए।
निष्कर्ष :
मूल्य सार्वभौमिक होते है, वे सुविधा के अनुसार प्रभावित नही होते। मूल्यों को संकीर्ण आधार पर निर्धारित नही किया जाना चाहिए। इसलिए यहां भी मानवता को मूल्यों से बढ़कर नही मानना चाहिए, बल्कि मानवता भले ही मूल्यों को निर्धारित करती हो परन्तु वह भी मूल्यों के अधीन ही है।


1.3.व्यक्ति के लिए जो सर्वश्रेष्ट है, वह आवशयक नही की समाज के लिए भी हो।
(Best for an individual is not necessarily best for the society)

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1.4.  स्वीकारोक्ति का साहस एवं सुधार करने की निष्ठा सफलता के दो मंत्र है।  
(Courage to accept and dedication to improve are two keys to success)
जीवन में हर मुकाम पर खुद को बनाये रखने और आगे बढ़ने के लिए संघर्ष करना पड़ता हैं। संघर्ष के परिणाम कई बार अनपेक्षित भी प्राप्त होते हैं। ऐसे में कई लोग परिणाम को स्वीकार करके अपनी राह बदल लेते हैं और कमतर परिणामो से संतुष्ट हो जाते हैं। कुछ लोग परिस्थितियों या व्यवस्था को दोष देने लग जाते हैं। लेकिन सफलता के प्रति जुनूनी लोग अपनी गलतियों को स्वीकार करने में हिचकिचाते नही हैं। वे उनमे सुधार करके फिर से कोशिश करते हैं। इस तरह वे प्रयास करते हुए सफलता को प्राप्त कर जाते हैं।
  • स्वीकारोक्ति की आवश्यकता : 
  • स्वीकार नही करने के नुकसान :
  • गलतियों से सबक और सुधार के बाद सफल होने वालो के उदाहरण 
  • सफलता के लिए क्यों जरुरी हैं  
  • उदहारण :
  • वर्तमान सन्दर्भ : 
निष्कर्ष :




अनुच्छेद 370 के निरस्तीकरण के बहुआयामी निहितार्थ


भारत ने हाल ही में जम्मू-कश्मीर को विशेष दर्जा देने वाले संविधान के अनुच्छेद 370 को निष्प्रभावी करते हुए राज्य का पुनर्गठन किया है।अब जम्मू-कश्मीर और लद्दाख नाम के दो अलग-अलग केंद्रशासित प्रदेश होंगे, जिसमे से जम्मू-कश्मीर में विधानसभा होगी, वही लद्दाख में विधानसभा नही होगी।दोनों राज्यों के लिए उप-राज्यपाल के पद का प्रावधान होगा। इसके साथ ही सात दशक पुराना कश्मीर का मसला एक बार फिर पूरी चर्चा के केंद्र में आ गया है।एक तरफ भारत में इसे ऐतिहासिक निर्णय मानते हुए ख़ुशी मनाई जा रही हैं, वही पाकिस्तान इसे अंतर्राष्ट्रीय मुद्दा बनाने में लगा हुआ हैं। कश्मीर घाटी में इसे हटाने को लेकर असंतोष देखा जा रहा हैं।इस प्रकार इस मुद्दे के बहुआयामीय निहितार्थ हैं।जिन पर हम पृथक-पृथक विमर्श करेंगे ।

ऐतिहासिक पृष्ठभूमि :
आजादी के बाद पाकिस्तान ने इसकी स्वतंत्र स्थिति को नकारते हुए कबाइली भेष में अपनी सेना को युद्ध के लिए भेज दिया। तब महाराजा हरिसिंह द्वारा विलय पत्र पर हस्ताक्षर करने के साथ ही जम्मू-कश्मीर का भारतीय स्वतंत्रता अधिनियम, 1947 के प्रावधानों के तहत कानूनी तौर पर विलय हो गया था। पाकिस्तान द्वारा इस मसले पर युद्द थोपने के कारण  स्थिति को नाजुक होने से बचाने के लिए जवाहर लाल नेहरु इस मुद्दे को सुरक्षा परिषद् में ले गये। सुरक्षा परिषद ने इस पर जनमत संग्रह कराने और विवादित क्षेत्र से सेना हटाने का आश्वासन देते हुए कुछ शर्ते रखी थी।जिन पर पाकिस्तान ने कभी अमल नहीं किया, उसने पाक अधिकृत कश्मीर का विसैन्यीकरण करना तो दूर उस क्षेत्र की जनसांख्यिकी परिवर्तन करने के प्रयास किए। पाकिस्तान ने कश्मीर घाटी के लोगो में भी उग्रवादी भावनाओ को भड़काने के लिए कार्य किया।

1990 के दशक में कश्मीर घाटी से से पंडितो का निर्वासन करने के बाद जनसांख्यिकी में पर्याप्त परिवर्तन हो गये।इसके साथ ही सयुंक्त राष्ट्र का जनमतसंग्रह का प्रस्ताव अप्रासंगिक हो गया।हालाँकि सयुंक्त राष्ट्र के हस्तक्षेप की गुंजाईश 1972 के शिमला समझौते के साथ ही नेपथ्य में चली गई, जिसमे दोनों देश सभी मुद्दों को आपसी बातचीत से सुलझाने के लिए सहमत हुए थे।पाकिस्तान द्वारा प्रायोजित सीमापार आतंकवाद की घटनाओ ने बातचीत की कोशिशो को नाकाम कर दिया।जम्म-कश्मीर में राजनीतिक अस्थिरता भी स्थानीय लोगो में भारत-विरोधी भावनाये भड़काने में सहायक रही। जम्मू कश्मीर का राजनीतिक नेतृत्व जनता का विश्वास जितने में नाकाम रहा।इस तरह के परिदृश्य में पाकिस्तान द्वारा सीमापार घुसपैठ के प्रयासों को बढ़ावा देना, सुरक्षा बलों पर हमला करना, शहीदों के शवो को देखकर भारतीय राष्ट्रवाद का उग्र होना जैसी घटनाये नियमित तौर पर होने लगी।ऐसी स्थितिओ में यह अपरिहार्य हो गया था कि भारत सरकार स्थितियों को सुधारने के लिए धारा 370 को निरस्त करने जैसा क्रांतिकारी कदम उठाये ।

इस प्रकार अनुच्छेद 370 को निरस्त करते ही जम्मू-कश्मीर राज्य की संवैधानिक स्थिति भारत के बाकी राज्यों के समान हो गई।इसके साथ ही यह एक ऐतिहासिक कदम हो गया, जिसने भारत के एकीकरण की प्रक्रिया को पूर्ण कर दिया।वही ऐसा भी माना जा रहा हैं कि जवाहर लाल नेहरु के द्वारा भारतीय सेना ने कबाइलियो को नही खदेड़कर तथा मामले को सुरक्षा परिषद् में ले जाकर जो भूल की गई थी, उसे इस फैंसले के बाद सुधार लिया गया हैं।हालांकि उसे किसी व्यक्ति की भूल बताने की बाते अतिशयोक्तिपूर्ण हो सकती हैं, लेकिन इतना तो तय हैं कि अनुच्छेद 370 को निरस्त करने के दूरगामी सकारात्मक प्रभाव सामने आयेंगे ।


राजनीतिक निहितार्थ :
अनुच्छेद 370 के प्रावधानों के निरस्त होने से जम्म-कश्मीर को मिले विशेष प्रावधान खत्म हो गये हैं।अब बाकी राज्यों की तरह वहाँ पर भी भारतीय कानून लागू होंगे।कुछ ऐतिहासिक कानूनी बदलाव वहाँ देखने को मिलेंगे जो कि इस प्रकार हैं -
  • संसद की ओर से बनाए गए हर क़ानून अब वहां प्रदेश की विधानसभा की मंज़ूरी के बिना लागू होंगे ।
  • सुप्रीम कोर्ट के फ़ैसलों पर भी अमल लागू हो जाएगा ।
  • जम्मू-कश्मीर विधानसभा का कार्यकाल छह से घटकर पांच साल का हो जाएगा.
  • संसद या केंद्र सरकार तय करेगी कि इसके बाद आईपीसी की धाराएं प्रदेश में लागू होंगी या स्थानीय रनबीर पीनल कोड (RPC)। साथ ही इस पर भी फ़ैसला लिया जाएगा कि पहले से लागू स्थानीय पंचायत क़ानून जारी रहेंगे या उन्हें बदल दिया जाएगा ।
  • अब तक क़ानून व्यवस्था मुख्यमंत्री की ज़िम्मेदारी होती थी, लेकिन अब वह सीधे केंद्र सरकार के अधीन होगी और केन्द्रीय गृह मंत्री प्रदेश में अपने प्रतिनिधि उपराज्यपाल के ज़रिये क़ानून-व्यवस्था को संभालेंगे ।
  • अब तक सिर्फ़ 'स्थायी नागरिक' का दर्जा प्राप्त कश्मीरी ही वहां ज़मीन ख़रीद सकते थे, नौकरी प्राप्त कर सकते थे, लेकिन 370 हटने के बाद बाकी लोगो की भी इन तक पहुँच हो जायेगी ।
  • प्रदेश के अलग झंडे की अहमियत नहीं रहेगी ।
  • महिलाओं पर लागू स्थानीय पर्सनल क़ानून बेअसर हो जाएंगे ।
इस प्रकार जम्मू-कश्मीर में व्यापक राजनीतिक परिवर्तन दिखाई देंगे।लेकिन जम्मू-कश्मीर के पुनर्गठन के साथ ही भारतीय राजनीती पर भी इसके गहन निहितार्थ सामने आयेंगे। उदाहरण के लिए -
  1. अब तक किसी क्षेत्र में मौजूद असंतोष का समाधान करने के लिए उस क्षेत्र को संवैधानिक रियायते प्रदान की जाती रही हैं , उदाहरण के लिए बोडोलैंड, गोरखालैंड और लद्दाख के लिए स्वायत पहाड़ी परिषदों का प्रावधान करना, पुंडुचेरी को केन्द्रशासित प्रदेश का दर्जा देना या मेघालय को केंद्र शासित प्रदेश से राज्य का दर्जा देना।लेकिन पहली बार किसी क्षेत्र के असंतोष को शांत करने के लिए राज्य का दर्जा घटाकर केंद्र शासित प्रदेश का कर दिया गया हैं।
  2. अनुच्छेद 370 के समान ही कुछ विशेष प्रावधान 371 के तहत किये गये हैं।अब उन राज्यों में भी आशंका बढ़ रही हैं कि उनकी विशिष्ट संस्कृतियों को संरक्षित करने वाले कानूनों को केंद्र सरकार एकतरफा खत्म कर सकती हैं।
  3. विधानसभा युक्त केन्द्रशासित प्रदेशो में चुनी हुई सरकार और उपराज्यपाल के बीच अधिकारों को लेकर टकराव देखने को मिलता हैं।ऐसे में कश्मीर में भी इन मुद्दों के कारण राजनीतिक स्थितियों के अधिक जटिल होने की संभावना हैं ।
  4. लद्दाख के लिए अलग से केंद्र शासित प्रदेश बनाकर भले ही लम्बे समय से चली आ रही मांग को पूरा कर दिया गया हो लेकिन विधानसभा का नहीं होना स्थानीय जनता के लोकतान्त्रिक अधिकारों की अवहेलना करेगा, साथ ही मुस्लिम बाहुल्य कारगिल जिले को लद्दाख में शामिल करने से कारगिल के लोगो में असंतोष उत्पन्न होगा।
  5. कश्मीरी पंडितो को वापस घाटी में बसाने में मदद मिलेगी।वर्षो से अपने अधिकारों के लिए संघर्ष कर रहे समुदाय को न्याय प्रदान करने में मदद मिलेगी।
राजनयिक निहितार्थ :
ऐतिहासिक और संवैधानिक साक्ष्य पर्याप्त रूप से साबित करते हैं कि जम्मू कश्मीर भारत का एक अभिन्न अंग हैं, लेकिन पाकिस्तान ने कश्मीर को हमेशा विवादित मुद्दे के तौर पर पेश किया हैं।पाकिस्तान ने इसे बहुपक्षीय मंचो पर उठाने के प्रयास किए हैं।  अपने हितो के कारण कई देशो की पाकिस्तान के साथ सहानुभूति वाली नीति भी रही हैं।वर्तमान में भारत एक तेजी से उभरती अर्थव्यवस्था हैं, जिसके पास दुनिया का सबसे बड़ा बाजार हैं।अधिकतर विकसित देश इसीलिए भारत को आकर्षक निवेश गन्तव्य के तौर पर देख रहे हैं।शायद यही कारण हैं कि भारत को अनुच्छेद 370 निरस्तीकरण के कारण किसी बाहरी देश की बयानबाजी का सामना नही करना पड़ा।

जम्मू-कश्मीर को लेकर बहुआयामी राजनयिक निहितार्थ निम्न प्रकार हैं -
  1. पाकिस्तान के लिए कश्मीर का मुद्दा बेहद अहम् हैं।वह मुस्लिम जनसँख्या होने के कारण इसे अपना स्वभाविक भाग मानता हैं।पाकिस्तान की घरेलु राजनीति कश्मीर मुद्दे से काफी गहराई तक जुडी हुई हैं।इसलिए वह इस मुद्दे को लेकर तनाव बढ़ाने के प्रयास करने में लगा हुआ हैं और आपसी व्यापारिक संबंधो को स्थगित कर दिया हैं। वही इस मुद्दे के अंतर्राष्ट्रीयकरण करने के प्रयास  में लगा हुआ हैं।उसने अन्तराष्ट्रीय न्यायालय में भी इस मुद्दे को ले जाने की घोषणा की हैं।
  2. भारत का जम्मू-कश्मीर क्षेत्र में अक्साई चीन को लेकर विवाद हैं, लेकिन भारत ने इसे आंतरिक मामला बताया हैं, जो कि राजव्यवस्था से सम्बन्धित हैं और किसी भी प्रकार से सीमाओं में परिवर्तन नहीं करता हैं।इसलिए चीन ने आपसी विवाद को लेकर तो कोई टिप्पणी नहीं की हैं।लेकिन पाकिस्तान में अपने निवेश की रक्षा के लिए पाकिस्तान के हित में कुछ बयान दिए हैं और सुरक्षा परिषद् में इसे उठाने की कोशिश की हैं। 
  3. अमेरिका इस समय अफगानिस्तान से बाहर निकलने के लिए तालिबान से समझौता करने में लगा हैं ।इस कार्य में पाकिस्तान का सहयोग उसके लिए उपयोगी हो सकता हैं।इस वजह से पाकिस्तान को राजी करने के लिए अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रम्प ने दोनों देशो के बीच मध्यस्थता करने की पेशकश की हैं ।
  4. अगर दुसरे देशो की भूमिका को देखे तो वे बयानबाजी तक सीमित रहे हैं। केवल तुर्की ने पाकिस्तान के पक्ष में बयान दिए हैं।बाकी देशो ने सक्रीय या मूक रूप से भारत के पक्ष में अपना रुख रखा हैं ।
  5. दक्षिण एशिया में पाकिस्तान को छोड़कर बाकि सभी देशो ने इसे भारत का आंतरिक मामला बताया हैं।श्रीलंका ने बोद्ध बाहुल्य लद्दाख को केंद्र शासित प्रदेश का दर्जा दिए जाने का स्वागत किया हैं ।
  6. सयुंक्त राष्ट संघ की भूमिका - 1972 के शिमला समझौते के बाद सयुंक्त राष्ट की भूमिका इस मामले पर अप्रासंगिक होती चली गई।इसलिए सयुंक्त राष्ट्र का इस विषय पर विमर्श क्षेत्रीय शांति और स्थिरता को ध्यान में रखकर ही हो सकता हैं। खासकर पाकिस्तान द्वारा सीमापार युद्धविराम के उल्लंघन की घटनाओ की स्थिति में ।
राजनयिक समीकरणों की भविष्य की राह को लेकर अभी कयास नही लगाये जा सकते।लेकिन भारत के अपनी मजबूत अर्थव्यवस्था और सशक्त राजनयिक पहुँचो की बदौलत इस मामले में फायदे में रहने की संभावना हैं।अब भारत ने अपनी परमाणु हथियारों को ‘पहले उपयोग नही करने’ की नीति में भी संशोधन करने के संकेत दिए हैं तथा पाकिस्तान अधिकृत कश्मीर पर अब बात करने को एजेंडा बनाने की घोषणा की हैं।इन सबसे लगता हैं कि भारत ने पाकिस्तान के साथ आक्रामक व्यवहार को अपनाने को तवज्जो दी हैं।दरअसल पाकिस्तान का व्यवहार इसके लिए काफी हद तक जिम्मेदार हैं।उसने भारत द्वारा किए गये पिछले शांति प्रयासों को प्रभावहीन कर दिया था।ऐसे में उसे शांति का व्यवहार करने हेतु प्रेरित करने के लिए वैश्विक मंचो पर अलग-थलग करने की जरुरत हैं ।

जम्मू कश्मीर को मुख्यधारा में शामिल करना : 
अनुच्छेद 370 को निरस्त करके राज्य का पुनर्गठन कर दिया गया हैं।लेकिन कश्मीर के लोगो को मुख्यधारा में शामिल करने के लिए प्रयास करने की जरुरत हैं। ऐसे में पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी का “इंसानियत, कश्मीरियत और जम्हूरियत ” का विचार एक मार्गदर्शन सूत्र हो सकता हैं। जम्मू-कश्मीर के लोगों को भरोसा दिलाना होगा कि कि केन्द्र सरकार उनके दुख-दर्द में उनके साथ है।राज्य की सभी की समस्याओं को सुना जाएगा और मिलजुल कर हल किया जाएगा।लोगो को विश्वास दिलाना होगा कि दिल्ली का दरवाजा और दिल हमेशा राज्य की जनता के लिए खुला हैं।इस प्रकार के उदार माहौल के द्वारा ही कश्मीर क्षेत्र के लोगो के मन से उग्रवादी विचारो को दूर किया जा सकता हैं।इसके लिए युवाओ को रोजगार के अवसर उपलब्ध कराने के लिए निवेश को बढ़ावा देना होगा।खेलकूद और रंगमंच जैसी गतिविधियों में युवाओ की भागीदारी बढ़ानी होगी ।
अभी हालात समान्य होने में थोडा समय लगेगा।लेकिन अनुच्छेद 370 के निरस्त होने के बाद लोगो में विशिष्टता के भाव का अंत होगा, जिससे अलगाववादी विचारो को पनपने से रोका जा सकेगा।फिलहाल कानून व्यवस्था को बनाये रखने के लिए कार्य करना होगा।पाकिस्तान भी इस समय प्रतिशोधवश आतंकी घटनाओ को अंजाम दे सकता हैं।इसलिए नियंत्रण रेखा और अन्य भागो में सुरक्षा व्यवस्था चौकस रखने की जरुरत होगी ।

केंद्र सरकार ने खुद यह आश्वासन दिया हैं कि एक दिन जम्मू-कश्मीर में हालात सामान्य होंगे और उसे फिर से राज्य का दर्जा दिया जाएगा।इसलिए संक्रमण काल के लिए केंद्र शासित प्रदेश का दर्जा एक अहम् कड़ी साबित होगा।इस दौरान कानून व्यवस्था भी बेहतर रखी जा सकती हैं और कल्याणकारी योजनाओ का भ्रष्टाचार मुक्त क्रियान्वयन करके राज्य के लोगो को भरोसा भी दिलाया जा सकता हैं ।

निष्कर्ष :
संविधान के अनुच्छेद 370 के तहत जम्मू कश्मीर को मिल रहे विशेष दर्जे को हटाने से क्षेत्र में आतंकवाद का खात्मा होने की उम्मीद हैं।अब ऐसे कदम उठाने की जरुरत हैं कि वह विकास के मार्ग पर अग्रसर हो।इस मामलें में सर्वसम्मति से फैंसले लिए जाने चाहिए । जिससे सहकारी संघवाद को भी बढ़ावा मिलेगा और कश्मीर के युवाओं तथा निवासियों को भी यह आश्वाशन प्राप्त होगा कि कश्मीर देश की आर्थिक प्रगति का हिस्सा है और भारत का अभिन्न अंग है ।

क्या राजस्थान तेलंगाना-करण से निपटने के लिए तैयार है?

राजस्थान के नक़्शे में विभिन्न केंद्रीय और राज्य स्तर के संस्थानों के वितरण पर गौर किया जाए तो हमे एक उच्च स्तर की विषमता नजर आएगी। राजस्थान के पश्चिमी भाग में अधिकतर संस्थानों का जमावड़ा मिलेगा। ऐसे में अभी कुछ साल पहले ही राज्य बने तेलंगाना की याद आती है। आंध्रप्रदेश की राजधानी सहित तमाम उच्च संस्थान हैदराबाद जैसे शहरो में थे जो कि तेलंगाना में रह गए। हालाँकि दस सालो के लिए हैदराबाद को सयुंक्त राजधानी के तौर पर स्वीकार कर लिया गया। लेकिन   विभाजन के बाद आंध्र प्रदेश को जो हिस्सा प्राप्त हुआ उसमे प्रशासनिक, राजनीतिक, आर्थिक और सामाजिक विकास से जुड़े सभी संस्थानों को फिर से बनाना होगा। एक तरीके से हम कह सकते है कि नए राज्य के रूप में भले ही दुनिया तेलंगाना को देखती हो, लेकिन हकीकत में तो नया राज्य आंध्रप्रदेश ही बना है। जैसे ही तेलंगाना राज्य का निर्माण हुआ तो राजस्थान के पश्चिमी भाग में मरू प्रदेश नाम से अलग राज्य बनाने की मांग शुरू हो गई। ऐसे में यह प्रश्न प्रासंगिक हो जाता है कि क्या राजस्थान भी तेलंगाना-करण की तरफ बढ़ रहा है। 

 ऐसे में यह सवाल अहम् हो गए है कि क्या पश्चिमी राजस्थान इतने सारे संस्थानों को प्राप्त करके बगावत कर देगा। तथा इस बगावत को रोजगार, आर्थिक विकास जैसे पिछड़ेपन के आधार पर उसी तरीके से न्यायोचित ठहराएगा, जिस तरीके से तेलंगाना ने ठहराया था।

कुल मिलकर राजस्थान के तेलंगाना करण का सिद्धांत इस डर पर आधारित है कि अगर किसी भी वजह से राजस्थान का विभाजन हो गया तो अधिकतर संस्थान पश्चिमी भाग में रह जाएंगे। तथा पूर्वी भाग में उनको फिर से निर्मित करने के लिए भारी निवेश करना होगा। जिस वजह से उस काल में राजनीतिक और आर्थिक अस्थिरता उत्पन्न हो जायेगी, जैसा की आंध्रप्रदेश में हुआ है। वहां तेलुगु देशम पार्टी को जब नए राज्य के लिए केंद्र से पर्याप्त सहयोग नहीं मिला तो वे सत्तारूढ़ गठबंधन से बाहर निकल गए। हालांकि केंद्र सरकार राज्य को स्पेशल पैकेज दे रही थी तो टीडीपी नेता स्पेशल राज्य के दर्जे पर अड़ गए, ताकि लोगो की जन भावना को आगामी चुनावो में उत्तेजित कर सके। लेकिन विपक्षी दल ने राजधानी के चक्कर में बाकी जनता की उपेक्षा को मुद्दा बनाते हुए सत्ता हासिल कर ली। इस प्रकार विभाजन ने राजनितिक अस्थिरता को जन्म दिया।

राजस्थान को तेलंगाना-करण की तरफ ले जाने वाले कारक 
राजस्थान के तेलंगाना करण की हमारी आशंका को निम्न कारक बल देते है। इन्हे हम सूचीबद्ध कर रहे है -
  1. राजस्थान के पश्चिमी भाग में संस्थानों के जमावड़े की बात वास्तविकता है, यह कोई दुर्भावना पर आधारित नहीं है। बीकानेर, बाड़मेर , जोधपुर, नागौर जैसे क्षेत्रो में बहुत सारे संस्थान स्थित है। इसलिए यह दोतरफा अलगाववाद को बढ़ावा देता है। जिनके पास संस्थान है वे बाकी राजस्थानियों की तुलना में उनके अधिक प्रत्यक्ष लाभ प्राप्त करेंगे। जबकि जिनके पास नहीं है उनके मन में भी सयुंक्त राजस्थान की भावना कमजोर होगी। 
  2. पश्चिमी भाग में पृथक राज्य बनाने की मांग का वास्तविक रूप से अस्तित्व में होना। मरू प्रदेश के नाम से कई ब्लॉग, लोगो और अन्य सामग्री इंटरनेट पर आपको मिल जायेगी। मरू प्रदेश की मांग करने वाले कई संगठन सक्रिय है। कई संगठनों के बैनर तले भूख हड़ताल हो चुकी है। उच्च नेतृत्व से अपनी पृथक राज्य की भावना के बारे में अवगत करा दिया गया है। इंटरनेट पर इस पृथक राज्य के बारे में कई अन्य सामग्री भी मौजूद है।
  3. पश्चिम राजस्थान के पास मरुस्थलीय भूभाग के कारण कमजोर आर्थिक विकास का बहाना होना। जबकि आर्थिक विकास के स्तर में सभी भागो की निम्न स्थिति होना। तेलंगाना ने भी समुद्री जुड़ाव नहीं होने और आंतरिक भूभाग की समस्याओ तथा कृषिगत समस्याओ को मुद्दा बनाया था। लेकिन राज्य की मांग करते समय ऐसी बाते उठा देना। 
  4. राजस्थान में सत्ता को आधार मानकर प्रयास करने वाले दो क्षेत्रीय दलों के प्रयास विफल हो चुके है। २०१३ के चुनाव में पूर्वी राजस्थान में राजपा और २०१८ के चुनाव में पश्चिमी राजस्थान में रालोसपा के प्रयास को सफलता नहीं मिल पाई थी। ऐसे में कोई भी क्षेत्रीय दल यह सोचकर लोगो की भावना को भड़का सकता है कि हो सकता है अगर राज्य छोटा होता तो हम शायद सत्ता पर पहुंच सकते थे। 
क्या राजस्थान के तेलंगाना कारण की अवधारणा वास्तविकता से परे अतिशयोक्तीपूर्ण कल्पना है ?
हालांकि हमने देखा की राजस्थान की विभाजन के लिए कई आकर्षक कारक रहे है। फिर भी निम्न कारण दर्शाते है कि यह सही नहीं है। 
  1. १. भारत में केवल राजस्थान ही ऐसा राज्य है जो विभिन्न रियासतो के सयोंजन से बना है। अन्य राज्य किसी ने किसी राज्य से पृथक हुए है। इसलिए ऐसा राज्य टूट नहीं सकता। 
  2. २. पश्चिमी भूभाग में अर्थव्यवस्था का इतना सुदृढ़ नहीं होना कि वह पृथक राज्य की बात भी सोच सके। 

गुर्जर आरक्षण आंदोलन : ट्विस्ट एंड टर्न्स की कहानी

malarana dungar gurjar aarakshan aandolan
गुर्जर आंदोलन सँघर्ष
(पीलूपुरा से पीलू किनारे तक) :

लोकसभा चुनावों से कुछ दिनों पहले गुर्जरों ने अपने अधिकार की मांग को लेकर 9 दिनों तक रेलवे ट्रैक को जाम कर दिया। यह जाम मलारना डूंगर क्षेत्र में लगाया गया था। जहाँ से गुजर रही बनास नदी के चारों ओर कुछ गृर्जर बाहुल्य गांव स्थित है। इन क्षेत्रों में पीलू के पेड़ बहुतायत में पाए जाते है। 2008 में गुर्जरों ने जिस जगह पर जाम लगाया था उसका नाम पीलूपुरा था। अब इन दो जामो में पीलू शब्द गृर्जर इतिहास में महत्वपूर्ण स्थान लेगा।

जब पीलूपुरा में जाम लगाया गया था तब लोगो ने गुर्जरों के भोलेपन पर बनने वाले चुटकलों में एक ओर इजाफा कर लिया था। लोग कहने लगे कि आरक्षण कोई पटरी के नीचे थोड़ी रखा है जो पटरी उखड़ते हो। लेकिन अब मलारना में मिली सफलता के बाद खुद बैंसला ने गर्व से कहा है कि पटरी पर आरक्षण मांगा था और वो पटरी पर ही मिला। हालांकि  इस आंदोलन की कहानी कई तरह के ट्विस्ट और टर्न से भरी हुई थी -

पृष्ठभूमि :
(अनुसूचित जनजाति की मांग को त्यागना और उम्मीद का भाजपा से कांग्रेस की और खिसकना )
इस आंदोलन की शुरुआत अनुसूचित जनजाति में शामिल होने को लेकर हुई थी।  मीना समाज ने इसे अतिक्रमण के तौर पर देखा। जिससे दोनों समाज एक दूसरे के आमने सामने आ गए थे और दोनो के बीच मे जमीनी सँघर्ष हुआ। जिन गांवों से लोग आंदोलन के लिए बाहर गए थे, उन गांवो में दूसरे समाज के लोगो ने पहुचकर महिलाओ के सम्मान को क्षति पहुचाई। इस मामले में दोनो ही समाज दूध के धुले नही है। इन व्यथा कथाओं को पीड़ित लोग ही जानते है। दोनो समाजो के बीच नफरत हिन्दू मुस्लिम जैसी होती गई। उसके तुरंत बाद हुए चुनावो में राजनीतिक दलों ने कई जगहों पर मीना बनाम गृर्जर के बीच मुकाबले करवाये। जिससे यह नफरत आगे तक बढ़ती। लेकिन चुनावो में बैंसला की नमोनारायण मीना से हार हो गई। और उन्होंने भांप लिया कि भाजपा दो समाजो के धुर्वीकरण में गृर्जर समाज के अंदर अपना वोट बैंक बनाना चाहती है। तो उनका रुझान कांग्रेस की तरफ बढ़ता चला गया।

मीना प्रतिरोध की वजह से उन्होंने ST की मांग छोड़कर अलग से 5 प्रतिशत आरक्षण की मांग शुरू कर दी। अब अगली राजनीति इस बिंदु के इर्दगिर्द घूमने लगी। जैसी ही सरकारो ने आरक्षण दिया , वह 50 प्रतिशत की सीमा को तोड़ने की वजह से हाइकोर्ट में जाकर अटक गया। तब उन्हें 1 प्रतिशत आरक्षण ही दिया। जब गुर्जरों की मांग पूरी करना अव्यवहारिक लगने लगा तो भाजपा ने गुर्जरों के बजाय मीनाओ से नजदीकी बनाना शुरू किया। यहां तक कि उनके कांग्रेस परस्त लोगो को भी टिकट दे दिए।

वही दूसरी तरफ 2014 के चुनावों के बाद सचिन पायलट ने कांग्रेस का नेतृत्व सम्भाला। तो भाजपा से आरक्षण की बात पर खपा चल रहे नेता अपने समाज के नेता पर ही भरोसा करने लगे। गुर्जर समाज ने पायलट को मुख्यमंत्री बनाने के तो पायलट ने गुर्जरो को आरक्षण दिलाने के सपने दिखाए। कांग्रेस ने इस वाडे को अपने घोषणा पत्र का हिस्सा बना लिया तो गुर्जरो ने उस पर भरोसा किया और कांग्रेस के पक्ष में  अंधाधुंध वोट दिए। नतीजतन 2018 में कांग्रेस की सरकार भी बन गई।

एक बात और उसी समय केंद्र सरकार ने आर्थिक पिछडो को दस प्रतिशत आरक्षण के लिए संविधान संसोधन करके गुर्जरो को पांच प्रतिशत आरक्षण देने का रास्ता साफ़ कर दिया था। इस बार कोई कारण नही बनता था कि गुर्जरों की मांग को खारिज कर दिया जाता। क्योंकि बिना आंदोलन किए ही जनरल को दस प्रतिशत आरक्षण दे दिया गया था। जबकि गुर्जरों ने एक लंबा सँघर्ष किया था। उनके 73 लोग शहीद भी हुए थे।

अब बात आती है कांग्रेस के वादे को पूरा करने की। जब गुर्जरो को पता है कि खुद उनके समाज का नेता सरकार में शीर्ष पर बैठा है तो फिर उस पर भरोसा करते, अभी सरकार बने 2 महिने ही तो हुए हैं। इतनी क्या जल्दी थी कि ज्यादा इंतजार ही नहीं किया। वही कांग्रेस ने इसे घोषणापत्र में शामिल कर रखा था और मंशा भी साफ़ थी , फिर एक समयबध्द आश्वाशन क्या नहीं दिया।

आंदोलन को जानबूझकर होने दिया गया। ऐसा लग रहा था जानो यह कांग्रेस की साजिश हो। जो यह सोचती है कि इतनी बड़ी चीज अगर शांति से ही दे दी तो किसी को क्या पता चलेगा, लोकसभा चुनाव आ रहे है इसलिए थोड़ा बहुत हो हल्ला तो होना चाहिए। वही बैंसला भी यही मान रहे थे कि अगर शांति से ही मिल गया तो जो पिछला लम्बा संघर्ष किया है, वह अर्थहीन हो जाएगा। इसलिए ऐसा लगना चाहिए कि हमे दिया गया नहीं है बल्कि हमने लिया है। इसी जिद में 7 फरवरी को गुर्जरो ने मलारना डूंगर में रेलवे ट्रैक को जाम कर दिया।


प्रशासन की भूमिका :
आंदोलन कारियो के साथ जरूरत से ज्यादा उदारता बरती गई। अगर प्रशासन चाहता तो देश को 9 दिनों के ट्रैन बंदी से मुक्ति दिला सकता था। एक तो पहले दिन ही ट्रेन रोकने जाने वाले लोगो की संख्या एक बारात में जाने वाले लोगो से ज्यादा नही थी। उल्टा प्रशासन ने एक दिन पहले शांतिपूर्ण सभा करने की बात तक अपनी हिदायत सीमित रखी थी। उसके बाद जयपुर ट्रैक भी जाम होने दिया। राज्य सरकार को तो जैसे कोई परवाह ही नही थी। वही केंद्र भी लोकसभा चुनावों को देखते हुए चुप रहा।

प्रशासन बेहद ढिलाई से पेश आ रहा था। उसने रोकने के लिए, हटाने के लिए कोई गम्भीरता नही दिखाई। यह जांच का विषय होना चाहिए कि क्या ऐसा ऊपर के निर्देशों के कारण था। लोगो की परेशानी पर मानवाधिकार आयोग की कठोर चिट्ठी का सम्प्रेषण भी प्रशासन ने बहुत ही उदारतापूर्ण किया।

इस जाम के दौरान लोग यकायक फंस गए, जिन्हें अपने गंतव्यों तक पहुचने के लिए परेशानी उठानी पड़ी। कई छात्रों की परीक्षाए छूट गई। कई लोगो को जरूरी काम के लिए परिवहन वालो की मनमर्जी का शिकार होना पड़ा। रेलवे को लगभग 2 करोड़ रुपए तो आरक्षित टिकटो के ही वापस करने पड़े। राजस्व हानि हुई वो अलग है।

आंदोलन की प्रकृति :
इसके बाद भी गुर्जर कहते है कि यह आंदोलन अहिंसक था। क्या अहिंसा का पैमाना केवल खून का बहना ही है, लोगो की योजनाओं और गतिविधियों को खत्म कर देना अहिंसा नही है। अहिंसा का आवरण ओढ़ने के लिए बैंसला आंदोलन स्थल पर गांधीजी की किताब पढ़ रहे थे। लेकिन इस तरह के पाखंड वाले आंदोलन को गांधी जी की ढाल नही मिल सकती।
इसके बावजूद भी गुर्जरों ने अपने किए पर औपचारिकता भर के लिए गम्भीर खेद नही व्यक्त किया। गृर्जरो का रवैया राजस्थानियत से बिल्कुल उलट था। सरकार की तरफ से वार्ता के लिए आने वाले अफसरों से बहुत ही अभिमान पूर्ण तरीके से बात की। जिसे नीरज के पवन जैसे अफसर ने अनदेखा कर अपने कर्तव्य पर ध्यान दिया।
वार्ता प्रक्रियाओ को जान बूझकर गुर्जरों ने लंबा खींचा। वार्ता के दौरान आवागमन के बाधित होने से लोगो को होने वाली परेशानियों से बेफिक्र होकर बात कर रहे थे।

वही आंदोलन स्थल का माहौल किसी मेले से कम नही था। रात में रुकने के लिए टैंट, रजाई गद्दों की व्यवस्था थी। गुर्जर भी भाई चारे के नाम पर आसपास के गांवो से लोग दूध और आटे-सब्जियों की व्यवस्था कर दे रहे थे। इन सब के लिए पैसा किधर से आ रहा था, ये सब सन्देह के विषय है। रोजना की शाम सुबह बढ़िया मिठाई या अन्य लजीज व्यंजनों की रसोई रहती थी। दिन में महिला पुरुषो के रसिया और डांस के कार्यक्रम होते थे। पुरानी कथाओं के चटकारे भी उड़ते थे। दुसरो को परेशान कर मनोरंजन में लिप्त आंदोलन का यह तरीका निराला था। शायद ही कोई लेखक इसका बचाव करे।

पीलूपुरा के सबक :
2008 में इनके द्वारा की गई परेशानियों को देखते हुए हाइकोर्ट ने दिशानिर्देश दिए थे। जिनकी अवमानना पर सुनवाई चल रही है। इसके अलावा नए मुकदमो का क्या होगा, यह भी देखना है क्या सरकार उन्हें वापस ले लेगी।


इससे सबक लेते हुए बैंसला ने आंदोलनकारियों को शपथ दिलाई कि वे हिंसा का सहारा नही लेंगे। और तो और बच्चों को परेशान नही करेंगे।

गुर्जर नेतृत्व की भूमिका :
आंदोलन में गुर्जरों की आंतरिक राजनीति की भी झलक मिलती है। बैंसला ने पहले आंदोलन को ढाल बनाकर राजनीति में असफल पारी खेली थी। कई गुर्जर नेता इसमे उसी का प्रसार देख रहे थे। बैंसला खुद को मसीहा के तौर पर दिखाना चाहता था, जिसमे वो कामयाब रहा है। इसमे मदद मिली सचिन पायलट से। अब इन दो के अलावा बाकी किसी का योगदान होगा तो वो नेपथ्य में चला जायेगा।

इसके असर कुछ इस तरह होंगे-
राजस्थान की राजनीती में गुर्जरो का कद बढ़ेगा। जो समाज अब तक हाशिए पर चल रहा था वो अब मुख्यधारा में आ जाएगा। दिल्ली और अन्य क्षेत्रो के गुर्जर भी अपने राजनितिक कॅरिअर  के लिए राजस्थान की और रुख करेंगे।  हो सकता है गुर्जरो के उत्पात से तंग आकर दूसरे समाज भी प्रत्युत्तर में संगठित होने लगे। 

निष्कर्ष :
शायद अब आरक्षण की वजह से शिक्षा और रोजगारो का स्तर बढ़ेगा और वे अपनी सामाजिक जिम्मेदारियों को भली भांति समझेंगे। और एक जिम्मेदार नागरिक बनेंगे।
जिस आरक्षण के लिए इन्होंने इतना सँघर्ष किया है। अब इन्हें उसके अवसरों की तरफ टूट पड़ना चाहिए ताकि गांवो के गरीब गुर्जरों के सामाजिक आर्थिक जीवन मे बदलाव आए।
आगे पता नही क्या होगा। लेकिन सरकार ने सकारात्मक संकेत दिए है। परंतु गुर्जरों ने पटरी चालू करके सही काम किया क्योंकि इसे अभी वही से दिल्ली भी पहुँचाना है। इन सबके बीच कई तरह की राजनीतियो की गुंजाइश है, हो सकता है गुर्जरों का सँघर्ष अभी बकाया हो। मतलब twist and turns के मौके अभी भी है।