गुर्जर आरक्षण आंदोलन : ट्विस्ट एंड टर्न्स की कहानी

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गुर्जर आंदोलन सँघर्ष
(पीलूपुरा से पीलू किनारे तक) :

लोकसभा चुनावों से कुछ दिनों पहले गुर्जरों ने अपने अधिकार की मांग को लेकर 9 दिनों तक रेलवे ट्रैक को जाम कर दिया। यह जाम मलारना डूंगर क्षेत्र में लगाया गया था। जहाँ से गुजर रही बनास नदी के चारों ओर कुछ गृर्जर बाहुल्य गांव स्थित है। इन क्षेत्रों में पीलू के पेड़ बहुतायत में पाए जाते है। 2008 में गुर्जरों ने जिस जगह पर जाम लगाया था उसका नाम पीलूपुरा था। अब इन दो जामो में पीलू शब्द गृर्जर इतिहास में महत्वपूर्ण स्थान लेगा।

जब पीलूपुरा में जाम लगाया गया था तब लोगो ने गुर्जरों के भोलेपन पर बनने वाले चुटकलों में एक ओर इजाफा कर लिया था। लोग कहने लगे कि आरक्षण कोई पटरी के नीचे थोड़ी रखा है जो पटरी उखड़ते हो। लेकिन अब मलारना में मिली सफलता के बाद खुद बैंसला ने गर्व से कहा है कि पटरी पर आरक्षण मांगा था और वो पटरी पर ही मिला। हालांकि  इस आंदोलन की कहानी कई तरह के ट्विस्ट और टर्न से भरी हुई थी -

पृष्ठभूमि :
(अनुसूचित जनजाति की मांग को त्यागना और उम्मीद का भाजपा से कांग्रेस की और खिसकना )
इस आंदोलन की शुरुआत अनुसूचित जनजाति में शामिल होने को लेकर हुई थी।  मीना समाज ने इसे अतिक्रमण के तौर पर देखा। जिससे दोनों समाज एक दूसरे के आमने सामने आ गए थे और दोनो के बीच मे जमीनी सँघर्ष हुआ। जिन गांवों से लोग आंदोलन के लिए बाहर गए थे, उन गांवो में दूसरे समाज के लोगो ने पहुचकर महिलाओ के सम्मान को क्षति पहुचाई। इस मामले में दोनो ही समाज दूध के धुले नही है। इन व्यथा कथाओं को पीड़ित लोग ही जानते है। दोनो समाजो के बीच नफरत हिन्दू मुस्लिम जैसी होती गई। उसके तुरंत बाद हुए चुनावो में राजनीतिक दलों ने कई जगहों पर मीना बनाम गृर्जर के बीच मुकाबले करवाये। जिससे यह नफरत आगे तक बढ़ती। लेकिन चुनावो में बैंसला की नमोनारायण मीना से हार हो गई। और उन्होंने भांप लिया कि भाजपा दो समाजो के धुर्वीकरण में गृर्जर समाज के अंदर अपना वोट बैंक बनाना चाहती है। तो उनका रुझान कांग्रेस की तरफ बढ़ता चला गया।

मीना प्रतिरोध की वजह से उन्होंने ST की मांग छोड़कर अलग से 5 प्रतिशत आरक्षण की मांग शुरू कर दी। अब अगली राजनीति इस बिंदु के इर्दगिर्द घूमने लगी। जैसी ही सरकारो ने आरक्षण दिया , वह 50 प्रतिशत की सीमा को तोड़ने की वजह से हाइकोर्ट में जाकर अटक गया। तब उन्हें 1 प्रतिशत आरक्षण ही दिया। जब गुर्जरों की मांग पूरी करना अव्यवहारिक लगने लगा तो भाजपा ने गुर्जरों के बजाय मीनाओ से नजदीकी बनाना शुरू किया। यहां तक कि उनके कांग्रेस परस्त लोगो को भी टिकट दे दिए।

वही दूसरी तरफ 2014 के चुनावों के बाद सचिन पायलट ने कांग्रेस का नेतृत्व सम्भाला। तो भाजपा से आरक्षण की बात पर खपा चल रहे नेता अपने समाज के नेता पर ही भरोसा करने लगे। गुर्जर समाज ने पायलट को मुख्यमंत्री बनाने के तो पायलट ने गुर्जरो को आरक्षण दिलाने के सपने दिखाए। कांग्रेस ने इस वाडे को अपने घोषणा पत्र का हिस्सा बना लिया तो गुर्जरो ने उस पर भरोसा किया और कांग्रेस के पक्ष में  अंधाधुंध वोट दिए। नतीजतन 2018 में कांग्रेस की सरकार भी बन गई।

एक बात और उसी समय केंद्र सरकार ने आर्थिक पिछडो को दस प्रतिशत आरक्षण के लिए संविधान संसोधन करके गुर्जरो को पांच प्रतिशत आरक्षण देने का रास्ता साफ़ कर दिया था। इस बार कोई कारण नही बनता था कि गुर्जरों की मांग को खारिज कर दिया जाता। क्योंकि बिना आंदोलन किए ही जनरल को दस प्रतिशत आरक्षण दे दिया गया था। जबकि गुर्जरों ने एक लंबा सँघर्ष किया था। उनके 73 लोग शहीद भी हुए थे।

अब बात आती है कांग्रेस के वादे को पूरा करने की। जब गुर्जरो को पता है कि खुद उनके समाज का नेता सरकार में शीर्ष पर बैठा है तो फिर उस पर भरोसा करते, अभी सरकार बने 2 महिने ही तो हुए हैं। इतनी क्या जल्दी थी कि ज्यादा इंतजार ही नहीं किया। वही कांग्रेस ने इसे घोषणापत्र में शामिल कर रखा था और मंशा भी साफ़ थी , फिर एक समयबध्द आश्वाशन क्या नहीं दिया।

आंदोलन को जानबूझकर होने दिया गया। ऐसा लग रहा था जानो यह कांग्रेस की साजिश हो। जो यह सोचती है कि इतनी बड़ी चीज अगर शांति से ही दे दी तो किसी को क्या पता चलेगा, लोकसभा चुनाव आ रहे है इसलिए थोड़ा बहुत हो हल्ला तो होना चाहिए। वही बैंसला भी यही मान रहे थे कि अगर शांति से ही मिल गया तो जो पिछला लम्बा संघर्ष किया है, वह अर्थहीन हो जाएगा। इसलिए ऐसा लगना चाहिए कि हमे दिया गया नहीं है बल्कि हमने लिया है। इसी जिद में 7 फरवरी को गुर्जरो ने मलारना डूंगर में रेलवे ट्रैक को जाम कर दिया।


प्रशासन की भूमिका :
आंदोलन कारियो के साथ जरूरत से ज्यादा उदारता बरती गई। अगर प्रशासन चाहता तो देश को 9 दिनों के ट्रैन बंदी से मुक्ति दिला सकता था। एक तो पहले दिन ही ट्रेन रोकने जाने वाले लोगो की संख्या एक बारात में जाने वाले लोगो से ज्यादा नही थी। उल्टा प्रशासन ने एक दिन पहले शांतिपूर्ण सभा करने की बात तक अपनी हिदायत सीमित रखी थी। उसके बाद जयपुर ट्रैक भी जाम होने दिया। राज्य सरकार को तो जैसे कोई परवाह ही नही थी। वही केंद्र भी लोकसभा चुनावों को देखते हुए चुप रहा।

प्रशासन बेहद ढिलाई से पेश आ रहा था। उसने रोकने के लिए, हटाने के लिए कोई गम्भीरता नही दिखाई। यह जांच का विषय होना चाहिए कि क्या ऐसा ऊपर के निर्देशों के कारण था। लोगो की परेशानी पर मानवाधिकार आयोग की कठोर चिट्ठी का सम्प्रेषण भी प्रशासन ने बहुत ही उदारतापूर्ण किया।

इस जाम के दौरान लोग यकायक फंस गए, जिन्हें अपने गंतव्यों तक पहुचने के लिए परेशानी उठानी पड़ी। कई छात्रों की परीक्षाए छूट गई। कई लोगो को जरूरी काम के लिए परिवहन वालो की मनमर्जी का शिकार होना पड़ा। रेलवे को लगभग 2 करोड़ रुपए तो आरक्षित टिकटो के ही वापस करने पड़े। राजस्व हानि हुई वो अलग है।

आंदोलन की प्रकृति :
इसके बाद भी गुर्जर कहते है कि यह आंदोलन अहिंसक था। क्या अहिंसा का पैमाना केवल खून का बहना ही है, लोगो की योजनाओं और गतिविधियों को खत्म कर देना अहिंसा नही है। अहिंसा का आवरण ओढ़ने के लिए बैंसला आंदोलन स्थल पर गांधीजी की किताब पढ़ रहे थे। लेकिन इस तरह के पाखंड वाले आंदोलन को गांधी जी की ढाल नही मिल सकती।
इसके बावजूद भी गुर्जरों ने अपने किए पर औपचारिकता भर के लिए गम्भीर खेद नही व्यक्त किया। गृर्जरो का रवैया राजस्थानियत से बिल्कुल उलट था। सरकार की तरफ से वार्ता के लिए आने वाले अफसरों से बहुत ही अभिमान पूर्ण तरीके से बात की। जिसे नीरज के पवन जैसे अफसर ने अनदेखा कर अपने कर्तव्य पर ध्यान दिया।
वार्ता प्रक्रियाओ को जान बूझकर गुर्जरों ने लंबा खींचा। वार्ता के दौरान आवागमन के बाधित होने से लोगो को होने वाली परेशानियों से बेफिक्र होकर बात कर रहे थे।

वही आंदोलन स्थल का माहौल किसी मेले से कम नही था। रात में रुकने के लिए टैंट, रजाई गद्दों की व्यवस्था थी। गुर्जर भी भाई चारे के नाम पर आसपास के गांवो से लोग दूध और आटे-सब्जियों की व्यवस्था कर दे रहे थे। इन सब के लिए पैसा किधर से आ रहा था, ये सब सन्देह के विषय है। रोजना की शाम सुबह बढ़िया मिठाई या अन्य लजीज व्यंजनों की रसोई रहती थी। दिन में महिला पुरुषो के रसिया और डांस के कार्यक्रम होते थे। पुरानी कथाओं के चटकारे भी उड़ते थे। दुसरो को परेशान कर मनोरंजन में लिप्त आंदोलन का यह तरीका निराला था। शायद ही कोई लेखक इसका बचाव करे।

पीलूपुरा के सबक :
2008 में इनके द्वारा की गई परेशानियों को देखते हुए हाइकोर्ट ने दिशानिर्देश दिए थे। जिनकी अवमानना पर सुनवाई चल रही है। इसके अलावा नए मुकदमो का क्या होगा, यह भी देखना है क्या सरकार उन्हें वापस ले लेगी।


इससे सबक लेते हुए बैंसला ने आंदोलनकारियों को शपथ दिलाई कि वे हिंसा का सहारा नही लेंगे। और तो और बच्चों को परेशान नही करेंगे।

गुर्जर नेतृत्व की भूमिका :
आंदोलन में गुर्जरों की आंतरिक राजनीति की भी झलक मिलती है। बैंसला ने पहले आंदोलन को ढाल बनाकर राजनीति में असफल पारी खेली थी। कई गुर्जर नेता इसमे उसी का प्रसार देख रहे थे। बैंसला खुद को मसीहा के तौर पर दिखाना चाहता था, जिसमे वो कामयाब रहा है। इसमे मदद मिली सचिन पायलट से। अब इन दो के अलावा बाकी किसी का योगदान होगा तो वो नेपथ्य में चला जायेगा।

इसके असर कुछ इस तरह होंगे-
राजस्थान की राजनीती में गुर्जरो का कद बढ़ेगा। जो समाज अब तक हाशिए पर चल रहा था वो अब मुख्यधारा में आ जाएगा। दिल्ली और अन्य क्षेत्रो के गुर्जर भी अपने राजनितिक कॅरिअर  के लिए राजस्थान की और रुख करेंगे।  हो सकता है गुर्जरो के उत्पात से तंग आकर दूसरे समाज भी प्रत्युत्तर में संगठित होने लगे। 

निष्कर्ष :
शायद अब आरक्षण की वजह से शिक्षा और रोजगारो का स्तर बढ़ेगा और वे अपनी सामाजिक जिम्मेदारियों को भली भांति समझेंगे। और एक जिम्मेदार नागरिक बनेंगे।
जिस आरक्षण के लिए इन्होंने इतना सँघर्ष किया है। अब इन्हें उसके अवसरों की तरफ टूट पड़ना चाहिए ताकि गांवो के गरीब गुर्जरों के सामाजिक आर्थिक जीवन मे बदलाव आए।
आगे पता नही क्या होगा। लेकिन सरकार ने सकारात्मक संकेत दिए है। परंतु गुर्जरों ने पटरी चालू करके सही काम किया क्योंकि इसे अभी वही से दिल्ली भी पहुँचाना है। इन सबके बीच कई तरह की राजनीतियो की गुंजाइश है, हो सकता है गुर्जरों का सँघर्ष अभी बकाया हो। मतलब twist and turns के मौके अभी भी है।

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