नेहरू को छोड़कर मोदीजी द्वारा अनिच्छा से मनमोहन को अपनाना

मोदीजी ने प्रधानमंत्री बनने के बाद कई ऐसे निर्णय लिए और कई ऐसे कदम उठाए जो अपने आप मे ऐतिहासिक महत्व रखते है। इतने सारे ऐतिहासिक महत्व के विषयों को घटता देखकर ऐसा लगता है जैसे कि स्वतंत्रता के बाद का भारतीय इतिहास इस तरह जाना जाएगा- मोदी काल से पूर्व और मोदी काल के बाद। ऐसे में इतिहासकारो के लिए एक बात को तलाशने की जरूरत होगी और वो यह है कि क्या उनके प्रयासों के बाद निरन्तरता ही जारी रही अथवा परिवर्तन महसूस किया गया।

अगर मोदीजी के प्रशासनिक, आर्थिक, राजनीतिक और सामाजिक सुधारो में केंद्रीय थीम को पकड़ा जाए तो वह है- आर्थिक विकास। आर्थिक विकास के लिए इन्होंने नवउदारवादी मार्ग को अपनाया। जिस की शुरुआत भारत मे 1991 के निजीकरण, उदारीकरण और वैश्वीकरण के माध्यम से हो चुकी थी। जिसमे सरकार को अपनी भूमिका को सेवा प्रदाता से विनिमय प्रदाता के तौर पर बदलने के बारे में कहा गया था। मोदीजी ने इसके तहत सरकार के हस्तक्षेप को कम करने के लिए 'न्यूनतम सरकार अधिकतम शासन' की अवधारणा अपनाई। प्रक्रियात्मक और संरचनात्मक सुधारो के माध्यम से देश मे व्यापार और निवेश करने को आसान बनाने पर ध्यान दिया गया। इसके लिए जरूरी कानूनों में बदलाव किए गए, नए नियम बनाये गए, अवसंरचना का निर्माण किया गया और अन्य क्षेत्रों में भी ऐसे बदलाव किए जो निवेशकों के अनुकूल हो। सरकार द्वारा राजस्व घाटे को न्यूनतम रखने के लिए लोक कल्याणकारी कार्यो में होने वाले व्ययों में कटौती की बात कही गई, FRBM एक्ट पारित किया गया। कुल मिलाकर विदेशी निवेश को आकर्षित करने के हर सम्भव प्रयास किए गए।

इतिहास के साथ तुलना :
इतिहास के झरोखे से देखा जाए तो नेहरू ने जो समाजवादी रुझान की व्यवस्था स्थापित की थी, उसे 1991 के आर्थिक संकट में ही अप्रासंगिक समझ लिया गया और उसी का नतीजा था 1991 कि आर्थिक सुधार। इन आर्थिक सुधारों के मॉडल को नवउदारवाद कहा जाता है जिसमे शामिल है-खुला व्यापार, खुली पूंजी, निजी क्षेत्रों पर निर्भरता, वैश्विक आर्थिक तालमेल आदि। नव उदारवादी मॉडल में कदम तत्कालीन वित्त मंत्री मनमोहन सिंह के प्रयासों से रखे जा चुके थे और काफी सुधार हो चुके थे। हालांकि समावेशी विकास को भी बराबर महत्व देकर चल रही पंचवर्षीय योजनाओं के कारण आर्थिक एजेंडे पर समाजवादी हैंगओवर छाया रहा।

जब नरेंद्र मोदीजी प्रधानमंत्री बने तो इन्होंने समाजवादी दृष्टिकोण को तिलांजलि दे दी और जनमत के दबाव में गिने-चुने लोकलुभावन कार्य उसकी जगह पर किए। उपलब्ध संसाधनों का तार्किक वितरण करने वाले और सभी के विकास को तय करने वाले योजना आयोग को समाप्त कर दिया गया। विनिवेश पर जोर दिया।  एक तरीके से अब निजी क्षेत्र के लिए नीतियां अब लगभग पूरी तरीके से उदारीकृत कर दी गई।

एक तरह से नेहरू की विरासत को खत्म कर दिया गया। लेकिन इस प्रयास में वे मनमोहन की विरासत को आगे बढ़ाने लग गए। वे नवउदारवाद के नए ध्वजवाहक बनकर सामने आए, जैसे कि मनमोहन के समर्पित शिष्य हो। हालांकि मनमोहन ने नवउदारवादी नीतियों की शुरूआत अवश्य की थी लेकिन फिर भी वे समाजवादी प्रभाव से पूरी तरह मुक्त नही हो पाए, उनके द्वारा शुरू किए गए मनरेगा, खाद्य सुरक्षा जैसे कार्यक्रम इसके सबूत है। लेकिन मोदीजी नवउदारवाद पर बिना हिचकिचाहट के आगे बढ़ गए।

मोदीजी का आर्थिक कार्यक्रम:
नवउदारवाद के माध्यम से  समावेशी विकास की क्षमताओं पर प्रश्नचिन्ह कई लोगो द्वारा लगाया जा चुका है। क्योंकि भारत को तो संवृद्धि युक्त विकास की बजाय समावेशी विकास की आवश्यकता है। ऐसे में यह अध्ययन का विषय हो जाता है कि प्रधानमंत्री मोदीजी ने बाजारी शक्तियों के प्रति इतना समर्पण क्यों दिखाया?

जिस समय रोजगार विहीन संवृद्धि की सभी जगह आलोचना हो रही हो, उसी समय मे आर्थिक सलाहकार अरविंद सुब्रह्मण्यम उल्टा संवृद्धि पर ही जोर दे देते है। उनका मानना है कि ज्यादा संवृद्धि से ही रोजगार उत्पन्न होंगे। यह एकदम से गुमराह करने वाला दावा प्रतीत होता है। क्या कक्षा में एक-दो छात्रों के अंक बढ़ाने के प्रयासों से सारे छात्रों का परिणाम अच्छा आ सकता है। लेकिन वे इसका जवाब भी  बिज़नेस माइंडसेट से देते है कि एक-दो छात्रों के उच्च प्राप्तांक देखकर नए एडमिशन तो आ ही सकते है। जिस तरह वे छात्रों के बजाय स्कूल के फायदे की सोच रहे है उसी प्रकार सरकार भी लोगो की आर्थिक दशा के बजाय बजटीय आंकड़ो पर वाहवाही लूटने की सोच रही है। यही  नीति मोदी सरकार द्वारा भी अपनाई जा रही है। जो क्षेत्र आगे बढ़ रहा है उसे उतनी ही क्षमता से आगे बढ़ने दो, एक तरह से डार्विन का सिद्धांत यहां लागू कर दिया गया है। व्यवसायों को बढ़-चढ़कर प्रोत्साहित किया जा रहा है वही कृषि, असंगठित क्षेत्रो के लिए केवल औपचारिक निर्वातहीनता उत्पन्न की जा रही है। अगर लोगो की क्षमता निर्माण पर ध्यान भी दिया जा रहा है तो वो भी बाजार के उद्देश्यों को ध्यान में रखकर। जैसे कि- लोगो के पास क्रय शक्ति हो इसलिए सार्वभौमिक बुनियादी आय की परिकल्पना।

अब हमारे पास सभी प्रश्नों का उत्तर देने के लिए पर्याप्त सूचना उपलब्ध हो गई है।
  1. पहला प्रश्न तो शीर्षक से ही उत्पन्न होता है। नेहरू  को दरकिनार कर दिया वही मनमोहन सिंह को अपना लिया गया, जिसे की ऊपर दिखा चुके है। लेकिन भारतीय राजनीति में जनमत की परवाह के कारण लोककल्याण के कार्यो से पृथक होने में अक्षमता की वजह से नवउदारवादी नीतियां पूरी तरीके से कभी भी लागू नही की जा सकती। इस आधार पर इतिहास के विद्यार्थी यह कह सकते है कि मोदीजी न तो नेहरू को दरकिनार कर पाए और न ही मनमोहन को अपना पाए। लेकिन अब हम कह सकते है कि सच्चाई दोनो दावों के बीच मे ही है।
  2. शीर्षक से ही दूसरी बात है मनमोहन सिंह के विचारों को न चाहते हुए भी अपनाने की मजबूरी होना। हम समझ सकते है कि कांग्रेस मुक्त भारत की बात कहने वाले व्यक्ति के लिए कांग्रेस के ही नेता की नीतियों को अपनाना कितना मुश्किल रहा होगा, यही कारण है कि वे गैर-अनुमानित फैसले (नोटबन्दी) लेकर यह दर्शाने की कोशिश करते है कि उनका आर्थिक कार्यक्रम पहले से अलग है।
  3. मोदी काल की अवधारणा की बात हमे अतिश्योक्ति लग सकती है। लेकिन भाजपा कार्यकर्ताओं के लिए इसे मानना कोई बड़ी बात नही है, उनका बस चले तो वे 26 मई 2014 से मोदी संवत शुरू करवा दे। खुद मोदीजी की भी मनोवृत्ति इसी तरह काम करती है, वे पहले की सरकारों द्वारा किए गए कामो को मान्यता ही नही देते है, वे सभी कार्यक्रमों को फिर से नई शुरुआत देकर नए युग की शुरुआत दिखाना चाहते है।
  4. एक प्रश्न यह उठा था कि मोदीजी नवउदारवादी नीतियों के चक्कर मे समावेशी विकास की उपेक्षा तो नही कर रहे है?  तो इसमें कोई शक नही है कि उनकी नीतियों से ऑक्सफेम की चिंताओं की पुष्टि होती है, वे आर्थिक विषमता को निर्मित करती है। सीधे शब्दों में ही देख लेते है न कि चुनिंदा व्यवसायीयो को बढ़ावा देने से बाकी लोगो को फायदा कैसे होगा। ऑटोमेशन और नवउदारवाद से उत्पन्न रोजगार कटौती का समाधान करने में मोदीजी बुरी तरीके से विफल रहे है। देश के संसाधनों का आवंटन करने वाले योजना आयोग को समाप्त करके मोदीजी ने समावेशी विकास के पैर पर कुल्हाड़ी मारी है।
आर्थिक नीतियों में संकीर्णता के कारण :
हमने देखा कि मोदीजी के आर्थिक सुधारों का झुकाव बड़े व्यवसायीयो के प्रति ज्यादा है बजाय किसानों, ग्रामीणों या असंगठित क्षेत्रों के। इसके निम्न कारण हो सकते है -
  1. व्यवसायिक क्षेत्रो के प्रति झुकाव मौजूदा समय की वैश्विक सच्चाई है, यह कोई भारत मे किसी सरकार की कोई विशेष नीति नही है। फ़र्क़ इतना है कि मोदीजी व्यक्तिगत रूप से इस क्षेत्र को आगे बढ़ाने में रुचि ले रहे है।
  2. झुकाव का दूसरा कारण राजनीतिक है। कई कॉरपोरेट घरानों ने प्रधानमंत्री बनने में सहायता की थी। अब वे उनके अनुकूल नीतियां बनाकर उनका आभार व्यक्त करना चाहते है।
  3. निम्न तबके को वे विपक्षी दलों के वोट बैंक के रूप में देखते है। इसलिए हो सकता है कि उनकी आर्थिक उन्नति को बाधित कर राजनीतिक महत्वकांशाओ को निर्मूल करना चाह रहे हो।
हालांकि ये सब अटकलें है। आर्थिक कार्यक्रमो में संसदीय चर्चाओ का भी प्रभाव रहता है, जो निश्चित तौर पर किसी भी वर्ग के प्रति पक्षपात नही करती। फिर भी कार्यपालिका के हाथ मे एजेंडे को दिशा देने की पर्याप्त शक्तियां रह जाती है।

आगे क्या होगा :
मैंने पहले बताया था कि नवउदारवादी नीति से खुद को पृथक दिखाने के लिए मोदीजी गैर-अनुमानित फैसले (नोटबन्दी) लेते है। जबकि सरकारी नीतियों में इतनी पारदर्शिता होनी चाहिए कि लोग उनका अनुमान लगा सके। लेकिन यह उनका काम करने का बाबूभाई स्टाइल है। इसके बावजूद भी कम से कम आगामी नीतियों के ऊपरी फ्रेमवर्क को ट्रेस तो किया ही जा सकता है।
  1. निजी क्षेत्र काफी संगठित और महत्वकांक्षी हो चुका है। वह अब चुनावो के एजेंडो को निर्धारित करता है। कई राष्ट्रीय दल कॉरपोरेट सेक्टर से भारी चंदा प्राप्त करते है। ऐसे में निजी क्षेत्र किसी प्रकार की लगाम को बर्दाश्त नही करेगा। इसलिए अब भूल जाओ की जो प्राकृतिक संसाधन या राष्ट्रीय सम्पतिया निजी क्षेत्र के पास चली गई है वे वापस राष्ट्रीयकृत की जाएगी। अब तो इसी चीज की निगरानी की जाए कि निजी क्षेत्र को अंधाधुंध संसाधनों का आवंटन नही हो, वरना समावेशी विकास  और ज्यादा मुश्किल होगा क्योंकि लोगो के लिए तो संसाधन उनकी संख्या की मात्रा में उपलब्ध ही नही रह पाएंगे। बहुराष्ट्रीय कम्पनियों द्वारा घरेलू छोटी कम्पनियों को पचाने की संभावना काफी तीव्र है। आगामी समय मे नीति निर्माताओं के सामने यह बड़ी चुनौती होगी।
  2. आर्थिक समीक्षा 2016 में कहा गया कि लोककल्याण के कार्यो में अत्याधिक भागीदारी से सरकार ने बोझ बढ़ा लिया है, अब निजी क्षेत्र को सेवा प्रदाता के तौर पर स्वीकार करके एग्जिट नीति पर विचार किया जाना चाहिए। लेकिन लोगो की क्षमता निर्माण को बाजार के भरोसे छोड़ने पर सरकार को भी शंका हुई है और उसने समयबद्ध एग्जिट नीति को अब अपनाया है। मतलब सरकार कार्यक्रमो से हाथ एकदम नही बल्कि एक निर्धारित अवधि के बाद खींचेगी। इसी सिलसिले में FRBM एक्ट के लक्ष्यों के अनुसरण को बंद करने का विचार बनाया गया है।
  3. सरकारे यह मानने लगी है कि देश के जनसांख्यकी लाभांश को भुनाने के लिए आर्थिक इकोसिस्टम का निर्माण किया जाए। इसलिए आगामी दिनों में आर्थिक गतिविधियों के लिए गवर्नेन्स सम्बंधित सुधार गति पकड़ेंगे।
निष्कर्ष :
जैसा की हम देख चुके है कि मोदीजी की नीतियों में भी निरंतरता ही मौजूद है, अगर परिवर्तन कही आया है तो वह है नीतियों को लागू करने में। विकास प्रक्रम में नीतिगत अपंगता और क्रियान्वयन अपंगता को मोदीजी ने सीधे सम्बोधित किया है। इससे पहले मनमोहन सिंह के कार्यक्रमो शायद यह दुविधा थी कि नव उदारवाद का दामन स्थाई रूप से थामा जाए या फिर आर्थिक स्थिति नियंत्रण में आते ही इससे पल्ला छुड़ा लिया जाए। मोदीजी ने इस दुविधा को खत्म कर दिया, वे मानने लगे कि भारत को उभरती अर्थव्यवस्था  वैश्विक नेतृत्व तभी दिलवाएगी जब नव उदारवाद पर पूरी तरीके से आगे बढ़ेंगे। तभी तो वे पश्चिम और खाड़ी देशों के प्रति अपने व्यक्तिगत पूर्वाग्रहो का त्याग करके निवेश सम्बंधो को मजबूत करने में लगे है।

जैसा कि The Economist नामक पत्रिका ने भी मोदीजी को नव-प्रवर्तक के बजाय महान प्रशासक माना है। मुझे भी लगता है कि इतिहास भी मोदीजी को इसी रूप में जगह देगा। वे शेरशाह सूरी ज्यादा नजर आएंगे बजाय खिलजी या अकबर।

1 comments:

सही विषय का चयन किया है, दरअसल समकालीन इतिहास पर कम ही लोगो की नजर जा पाती है। फिर भी आपने पीछे की नीतियों के आधार पर भविष्य का सही खाका खिंचने की कोशिश की है।
Keep it up

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