रोजगारो का प्रायोजित अभाव


हम सब मानते है कि वर्तमान में भारतीय अर्थव्यवस्था तेजी से प्रगति कर रही है लेकिन यह प्रगति रोजगार के प्रश्न का उचित समाधान नही कर पा रही है। जब भी कोई भर्ती की सूचना आती है तो उसके लिए पहुचने वाले लाखों आवेदन और फिर आसमान छूती कटऑफ को देखकर लगता है कि रोजगार कितने कम रह गए है और उन्हें पाने की अभिलाषा रखने वालो की संख्या कितनी ज्यादा हो गई है। ज्यादा चिंताजनक बात तो यह है कि भर्तियां एक तो नियमित रूप से नही आती दूसरी बात यह है कि उनकी संख्या मांग को देखते हुए बहुत ही कम होती है। इन सबको देखकर ऐसा लगता है कि रोजगारो का संकट उत्पन्न हो गया है।


ऐसे में कहा जा रहा है कि वर्तमान स्थिति में भी रोजगारो की कोई कमी नही है, मौजूदा अभाव एक तरीके से कृत्रिम तौर पर निर्मित किया गया है। सरकारी विभागों में कर्मचारियों के लाखों पद खाली पड़े हुए है, मानव संसाधन के अभाव से हर विभाग को जूझना पड़ रहा है। लेकिन समस्या यह है कि सत्ताधारी वर्ग उन्हें भरने के लिए अनिच्छुक है। मौजूदा अभाव एक तरीके से प्रयोजित है जिसे विभिन्न वर्गों द्वारा प्रायोजित किया जा रहा है।

रोजगारो के अभाव को प्रायोजित करने वाले कारक

1. अंतराष्ट्रीय संस्थान
अंतरराष्ट्रीय संस्थान विभिन्न देशों की नीतियों को प्रभावित कर रहे है। इन संस्थानों में विकसित देशों का बोलबाला है और ये विकासशील देशों में अपने निवेशों को सुरक्षित करने के लिए कई तरह के इंडैक्स जारी करते है और उनमें रैंकिंग सुधारने के नाम पर लोगो का भला करने वाली नीतियों को खत्म करने की वकालत करते है।
ये मानते है कि जो देश नोकरियो में वेतन-भत्तों में ज्यादा व्यव करेगा तो उसका राजस्व घाटा भी  ज्यादा होगा। ऐसे देश से अपने निवेशों की सुरक्षित वापसी मुश्किल होगी, इसीलिए ये सरकारो को प्रभावित करते रहते है।

2. सार्वजनिक क्षेत्र
हर एक सरकारी विभाग मानव संसाधनों के अभाव से ग्रसित है, इस कारण वहां के हर कार्य अटके पड़े हुए है। वे ऊपरी स्तर पर कर्मचारियों की आवश्यकता को भी जाहिर करते है, लेकिन होने वाली नियुक्तियां उनकी मांग से इतनी कम होती है कि नवनियुक्तो के आने से भी विभागीय कामकाज में कोई बदलाव नही आता है। उम्मीद के तौर पर तकनीकी उन्नयन का आश्वासन है कि कम लोग ही तकनीकी की बदौलत सभी कामकाजों को संभाल सकेंगे।

इतनी भयावह स्थिति होने के बाद भी सरकार भर्ती के प्रति अनिच्छुक बनी हुई है क्योंकि वो कर्मचारियों के वेतन-भत्तों का बोझ नही बढ़ाना चाहती है। सरकार को बस राजस्व घाटे का स्कोर कम दिखाकर वाहवाही लूटनी है। अपने कामकाज को निजी क्षेत्र में स्थानांतरित करना तो प्राथमिक बना ही हुआ है , साथ मे तकनीकी की बदौलत जीतने कर्मचारियों को कम किया जा सके, उतना करने की कोशिश जारी है। मौजूदा मानव संसाधन का ही कैसे अधिकतम उपयोग किया जाए, सरकार इस मिजाज में रहती है। अब बोलो इस तरह के रवैये से रोजगार सरकारी विभागों में कैसे निकलेंगे, उल्टा आने वाले समय मे कम और होंगे। अधिकतम कार्यो को संविदा और अस्थायी नियुक्तियो से किया जाएगा।

3. निजी क्षेत्र
निजी क्षेत्र का एकमात्र मकसद मुनाफे पर रहता है। मुनाफे के लिए जरूरी है कि लागत को कम से कम किया जाए। लागत में कटौती जब सम्भव है जब कम लोग ही अधिक कामो को संभाल सके। इसलिए निजी क्षेत्र क्रत्रिम बुध्दिमता पर आधारित स्वचालन का प्रयोग बढ़ाने का पक्षधर है, जिसके कारण नोकरियो में भारी मात्रा में कमी होगी। इसके साथ ही काम करने वालो के सामाजिक सुरक्षा सम्बन्धी दायित्वों को कम करने के लिए श्रम कानूनों को ढीला करवाने के लिए सरकार को भरोसे में लिया जा रहा है, इससे भी लोगो मे अपने रोजगार के प्रति असुरक्षा बढ़ेगी।

कॉरपोरेट सेक्टर ने तो अपने रोजगार के दायित्वों से बचने के लिए बीच मे यहां तक कहना शुरू कर दिया था कि हम तो रोजगार देने  को इच्छुक है लेकिन भारतीय युवाओं के पास ही रोजगार देने लायक क्षमता नही है। यहां मन मे एक सवाल उठता है कि अगर भारतीयों के पास क्षमता नही है तो फिर उन्ही भारतीयों को नियुक्त करने के लिए H1B वीजा की लड़ाई आप लड़ रहे है? सीधी सी बात है रोजगार की योग्यता का अभाव एक बहाना है। ऐसे कई बहाने इनके द्वारा बनाये जा रहे है। अगर ये कुछ प्रयास भी कर रहे है तो वो सिर्फ औपचारिकता भर है, जैसे कि अप्रेंटशिप के कोर्स करवा दिए, कौशल विकास के शिविर लगा दिए।

दोष देते समय निजी क्षेत्र के हालातों को भी समझ लेना चाहिए। दरअसल वर्तमान बड़ी कम्पनी ओर बड़ी होती जा रही है वे छोटी कम्पनियों को अधिग्रहण, कीमत युध्द, नीतिगत संरक्षण के माध्यम से बाहर कर दे रही है। इससे छोटी इकाइयों के अस्तित्व का संकट उत्पन्न हो गया है। इस वजह से कम्पनिया अपने भविष्य को कम कार्मिको की बदौलत दिशा देना चाहती है। जैसे कि आईटी सेक्टर में गूगल, माइक्रोसॉफ्ट जैसी कम्पनियों ने इंफोसिस, टीसीएस, विप्रो जैसी कम्पनियों के लाभांश को चुनोती दी है। वालमार्ट ने हाल ही में फ्लिपकार्ट को खरीद लिया है, अलीबाबा भी बड़ी भागीदारी निभा रही है। इसका मतलब है कि संसाधन सम्पन्न बहुराष्ट्रीय कम्पनियों देशी इकाईयो को प्रभावित कर रही है, इसका असर रोजगारो पर भी पड़ रहा है। बड़ी कम्पनियों के पास कामकाज के संचालन के लिए बेहतर तकनीकी और प्रबंधन होता है जिससे कम लोगो का नियोजन सम्भव हो पाता है।

4. नीति-निर्माताओं की भूमिका
रोजगारो के अभाव को प्रायोजित करने में नीति-निर्माताओं की भी बड़ी भूमिका होती है-

  • नीति-निर्माता रोजगार सृजन के लिए कोई मजबूत इच्छाशक्ति नही रखते है। अगर आर्थिक समीक्षा की माने तो वे रोजगार के नाम पर लोगो को केवल जूते-कपड़े बनाने का प्रशिक्षण देना चाहते है। सरकार अनोपचारिक क्षेत्र को ही कागजो के जाल में फंसाकर रोजगार का अहसास दिलाना चाहती है। पकोड़े बनाने को रोजगार कहना कोई जुमला नही था बल्कि वो सरकारी प्रयासों का एक उदाहरण था।
  • नीति-निर्माता राजनीतिक दलों से आते है जोकि अपने वित्तपोषण के लिए कॉरपोरेट सेक्टर पर निर्भर रहते है। अतः उन्हें नाखुश करने के चक्कर मे भी सरकार कोई ठोस व्यवस्था नही कर पा रही है।
  • आरक्षण विरोधी लोग भी सरकारी भर्तीयो के अभाव को प्रायोजित कर रहे है। इनका मकसद है कि भर्तियों को अटकाया जाए और बाद में अधिक नोकरियो को निजी क्षेत्र में बदला जाए। अधिकतम सरकारी काम को संविदा पर करवाया जाए। इसी सिलसिले में बेकलॉग चल रहे लाखो पदों को हाल ही में खत्म कर दिया गया।
इस प्रकार हम देख रहे है कि बाहरी तत्व, सरकार, निजी क्षेत्र और विभिन्न हितों से परिचालित नीति-निर्माता रोजगारो के इस प्रयोजित अभाव के लिए जिम्मेदार है।

समस्या की भयावहता
सबसे बड़ी बात यह है कि यह समस्या नजर आती है। जहाँ देखो काम मांगने वालों, परीक्षा देने वालो, साक्षात्कार देने वालो की भारी भीड़ नजर आती है। इतनी संख्या में छात्र कॉलेजो से बाहर आ रहे है कि नोकरियो की तैयारी कराने वाले कोचिंग संस्थान मशरूम की तरह फलफूल रहे है, उनकी फीस और कमरों के किराए गरीब छात्रों की जेब काट रहे है। पानी, खाना, अखबार, सामान जैसी कई दूसरी सहायक सुविधा देने वाले लोग छात्रों की मजबूरी का शोषण करने में लगे हुए है। इसके बाद भी आसमान छूती कटऑफ की तरफ सरकार की एक दृष्टि भी नही जाती। लेकिन विडम्बना है कि इनसे आम आदमी जूझ रहा है, नीति निर्माता नही। वे तो खुद और खुद की पीढ़ियों का भविष्य सुरक्षित करने में लगे हुए है। और लोगो को आरक्षण, जाति, भाषा और धर्म के नाम पर बांटकर खुश नजर आते है। इसके साथ ही अनियमितताओं से ग्रसित चयन आयोग है जो छात्रों के धैर्य की कठिन परीक्षा ले रहे है। इन सब को भगवान से डरना चाहिए कि एक तरफ तो मानव संसाधनों का अभाव झेल रहे कार्यालय है वही दूसरी तरफ कानून से बंधे और आंसू बहाते अभ्यर्थी है।

अब चलते है समाधान की तरफ
जैसा कि हम जानते है कि भारत अभी जनसांख्यकी लाभांश के दौर से गुजर रहा है, जिसमे 70% लोग 35 साल से कम उम्र के है। मतलब रोजगारो की तलाश करने वाले है या बेहतरीन विकल्पों की तलाश में लगे हुए लोग है।


  1. यह वह समय है जब भारत मे रोजगार के सार्वजनिक और निजी क्षेत्र दोनो में काफी अवसर है। लेकिन जनसांख्यकी लाभांश ही वह कारण है जिसकी वजह से गला काट प्रतिस्पर्धा देखने को मिल रही है। जब हम इस लाभांश को पार कर जाएंगे तब यह हालात नही रहेंगे। यह वह समय है जब लोग स्नातक पूरी करके निकल रहे है, और सरकारी नॉकरी सभी की प्राथमिकता होती है। सरकार को चाहिए कि रिक्तियों को बढ़ाये और आगे चलकर भले ही नियुक्तियों को जनसंख्या के आधार पर विनियमित कर दे।
  2. ऐसा समय है जब इन रिक्तियों को भरने की जरूरत है, लेकिन सरकार को लगता है कि इसके कारण राजस्व घाटा बढेगा। लेकिन वैतनिक लोग बिज़नेस वर्ग से ज्यादा कर अदा करंगे ओर खर्चा करेंगे तो 30% से 40% तक धन तो वापस सरकार या अर्थव्यवस्था में ही चला जायेगा। यह एक तरह से विन-विन सिचुएशन होगी।
  3. एक भर्ती आंदोलन शुरू किया जाए जिसमे सभी विभागों में सभी रिक्तियों की पहचान की जाए और उन्हें भरा जाए। एक पदोन्नति नीति के माध्यम से मेहनती और ईमानदार लोगो को कुछ निश्चित समय के बाद अनिवार्य पदोन्नति दी जाए। एक छंटनी अभियान चलाकर कामचोर कार्मिको को बाहर किया जाए।
  4. सरकार युवाओ को क्यों उद्वमी बनाने पे तुली हुई है। यहा दबावपूर्ण उड्डमशीलता कैसे करेगी, आप लोगो को कह रहे हो कि रोजगार पाने वाले नही देने वाले बनो। लेकिन एक गरीब आदमी का बच्चा स्नातक होते ही स्थायित्व की तलाश में नॉकरी पकड़ेगा या फिर अस्थायी केरियरयुक्त बिज़नेस करेगा। सीधी सी बात है बिज़नेस वाला कार्यक्रम उच्च वर्गो को सम्बोधित करता है, जिनको की दैनिक दिनचर्या के लिए रोजगार की तलाश नही करनी पड़ती, बल्कि अतिरिक्त धन को निवेश करने की तलाश होती है। अतः बिज़नेस वाले पक्ष को सरकार रोजगार समाधान के तौर पर पेश करने से बचे।
  5. कई विभागों में यह कहकर भी नियुक्ति नही निकाली जा रही कि उनका तकनीकी उन्नयन किया जाएगा जैसे कि रेलवे। अगर रोजगारो में कटौती की कीमत पर यह सब करना होता तो यह पिछली सरकारों के लिए भी आसान था। लेकिन सामाजिक सुरक्षा और न्याय की भावना को उद्धम से पृथक करके देखने का प्रयास उन लोगो ने नही किया।


निष्कर्ष
राजस्व घाटे के स्कोर को कम करके हम कुछ भी बड़ा नही कर रहे है। निजी क्षेत्र को सहूलियत देकर हम अमीर-गरीब की खाई को दिनोदिन ओर बड़ा रहे है। कक्षा में एक छात्र मेरिट में आ जाये और बाकी के छात्र असफल हो जाये तो क्या ऐसी कक्षा के परिणाम को बेहतर कहा जायेगा? नही। समावेशी विकास का सफर रोजगारो के माध्यम से ही तय होगा, इसलिए सरकार, नीति-निर्माताओं को लोकतांत्रिक दायित्वों का प्रति सोच लेना चाहिए और इस अभाव को जल्दी से जल्दी खत्म करना चाहिए। जब रोजगार नही दे सकते तो ग्रोथ रेट के स्कोर ओर व्यापार में आसानी की रैंकिंग कोई ऐसे मुकाम नही है, जिन पर सीना चौड़ा किया जाए।

1 comments:

Right analysis in today situation

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