रणथंभौर में बाघ-मानव संघर्ष : कारण एवं समाधान

एक तरफ हम इस बात के लिए गर्व कर रहे हैं कि रणथम्भौर बाघ आरक्षित क्षेत्र में सैलानियों की संख्या बढती जा रही हैं। पर्यटन क्षेत्र में दिनोदिन निवेश बढ़ता जा रहा हैं। नवीन सृजित आर्थिक गतिविधियों द्वारा कई स्थानीय लोगों का रोजगार प्राप्त हो रहा हैं। स्थानीय हस्तशिल्प के कलाकरों को आजीविका प्रपात हो रही हैं। लेकिन दूसरी तरफ हमे इस बात के लिए भी चिंतित होना चाहिए कि बाघ आरक्षित क्षेत्र के कारण क्षेत्र में पर्यावरणीय कानूनों के कारण औद्योगिक विकास की संभावनाओं में कमी आई हैं। आरक्षित क्षेत्र के आसपास के गांवों में बुनियादी सुविधाओं का विस्तार अनुमतियों के जाल में उलझ गया हैं। एक बड़ी सामाजिक लागत इसके साथ निहित हैं। लेकिन इन सबसे बढ़कर समस्या यह हैं कि वन क्षेत्र के भीतर विभिन्न  कारकों के कारण बाघों की बाह्य क्षेत्रों में आमद बढ़ी हैं, जिसने न केवल मवेशियों बल्कि पिछले दस सालों में लगभग 14 लोगों की जान ली हैं। इस आलेख में हम उन्ही पहलुओं तक पहुँचने की कोशिश करेंगे, जो मानव-बाघ संघर्ष एवं बाघों के अधिवास की कमी के लिए उत्तरदायी हैं। 

1. स्थिति क्या है?

रणथम्भौर में बाघों के आपसी संघर्ष की सुर्खियाँ अक्सर समाचारों में देखने को मिल जाती हैं। बाघों के लिए क्षेत्र कम पड़ने के कारण युवा बाघ टेरिटरी नही बना पा रहे हैं। कुछ बाघ सीमावर्ती क्षेत्रों में रहते हैं, जहाँ से वे निकलकर पालतू पशुओं व मनुष्यों का शिकार करते हैं। वही मानव भी नियम विरुद्ध जंगल में पहुँच रहा हैं, जिससे बाघ और मानव का आमना-सामना होने लगा हैं। नेशनल टाइगर कंजर्वेशन अथॉरिटी (NTCA) के अनुसार यहाँ पर अधिकतम 40 बाघ हो सकते हैं, लेकिन यहाँ पर इस समय 70 बाघ हैं। ऐसे में दबाव की मात्रा को हम समझ सकते हैं।

2. उत्तरदायी कारण

2.1. अति आबादी (Over-Population)

संरक्षण प्रयासों की बदौलत रणथम्भौर ही नहीं संपूर्ण भारत में बाघों की संख्या में भारी वृद्धि हुई हैं। भारत ने 2022 तक बाघों की संख्या को दोगुना करने के लक्ष्य को वर्ष 2018 में ही प्राप्त कर लिया था। हर चार साल में होने वाली टाइगर सेन्सस-2018 के अनुसार, वर्तमान में भारत में 2967 बाघ हैं। देश के सभी बाघ संरक्षित क्षेत्र अति आबादी के दबाव से गुजर रहे है। इस समय रणथम्भौर टाइगर रिज़र्व में भी 70 से 80 के मध्य बाघ हैं। समस्या की जड़ यह है कि प्रे-बेस के आधार पर यहाँ 40 से ज्यादा बाघ नहीं होने चाहिए। लेकिन मौजूदा स्थिति इस सीमा के पूर्ण विपरीत हैं।

बाघों के मध्य होने वाले क्षेत्रीय संघर्ष (Territorial Conflict) में युवा बाघ वृद्धों को खदेड़ देते हैं, जो मानव आबादी वाले क्षेत्रों की ओर चले जाते हैं। इससे मानव-बाघ संघर्ष से जुडी समस्या उत्पन्न होती हैं।

2.2. अपर्याप्त अधिवास

बाघों की आबादी की तुलना में अनुकूल अधिवासों की कमी ही समस्या का कारण हैं। रणथम्भौर टाइगर रिज़र्व में बाघों की सांद्रता कुछ ही क्षेत्रों में हैं, जो सवाई माधोपुर या खंडार तहसील के क्षेत्र हैं। टाइगर रिज़र्व में ही आने वाले कैलादेवी अभयारण में कम बाघ पाए जाते है।

अधिवासों की कमी के लिए एक और कारण उत्तरदायी माना जाता हैं और वो यह हैं कि बाघ आरक्षित क्षेत्र में कुछ गाँव स्थित हैं, जिनके विस्थापन की प्रक्रिया बहुत ही मंद गति से चल रही हैं तथा इस दिशा में कोई महत्वपूर्ण विकासक्रम नही हुआ है।

2.3. पर्यटन का दबाव

वन क्षेत्र में पर्यटन के अधिक दबाव के कारण भी बाघ वन क्षेत्र से बाहर चले जाते हैं। इको टूरिज्म के नाम पर जिप्सियां पर्यटकों को भर-भर के उनके अधिवास स्थलों पर ले जाती रहती हैं, इससे उनके आराम एवं स्वछंद जीवन में दखल पड़ता हैं। वन क्षेत्र से बाहर जाने के लिए उनको यह वजह भी प्रेरित करती हैं।

2.4. बाहरी आकर्षक कारक

वन क्षेत्र में शिकार के लिए तो वैसे कई प्रकार के वन्य जीव पाए जाते हैं, परन्तु बाघ आरक्षित क्षेत्र की सीमाओं के समीप रहने वाले लोगो के मवेशी बाघों को बाहर आने के लिए आकर्षित करते रहे हैं। बाहर  इनको शिकार आसानी से मिल जाता हैं, साथ ही कई बगीचों में छिपने का आश्रय भी। जब फसले बड़ी हो जाती हैं तो बाघों का मूवमेंट आरक्षित क्षेत्र से बाहर 10-20 किलोमीटर की परिधि में देखने को मिलता हैं। जिससे किसानों में इसका व्यापक भय देखने को मिलता हैं क्योंकि हमले के कई मामले सामने आ चुके हैं। 

3. किए गये प्रयास और उनकी सीमाएं

3.1. प्रोजेक्ट टाइगर

प्रोजेक्ट टाइगर की घोषणा के साथ ही इन क्षेत्रों के संरक्षण मानदंडों में उतरोतर वृद्धि हुई हैं। क्रिटिकल टाइगर हैबिटैट एरिया में अवांछित लोगो की गतिविधियों को पाबन्द किया गया हैं। इससे वनों में बाघ के आराम में दखलंदाजी और खतरे कम हुए हैं।

3.2. बाघ आरक्षित क्षेत्रों से गांवों का विस्थापन

टाइगर रिज़र्व की सीमा में आने वाले बीस गांवों को विस्थापन के लिए चिन्हित किया गया हैं। विस्थापन की प्रक्रिया लंबे समय से चल रही हैं। पांच गांवों को विस्थापित किया भी जा चूका हैं , बाकि लोगो से समझाइश की जा रही हैं।

3.3. टाइगर रिज़र्व के दुसरे क्षेत्रों में अनुकूलता में वृद्धि करना

टाइगर रिज़र्व में ही शामिल कैलादेवी में अनुकूलता में वृद्धि की जा रही हैं। इसके लिए संबंधित क्षेत्रों में संरक्षण के प्रयास किए जा रहे हैं।

3.4. पर्यटन के दबाव में कमी करना

वनों में पर्यटन का दबाव भी बाघों के वनों से पलायन के लिए मुख्य रूप से उत्तरदायी हैं। इसके लिए उन पर दबाव कम पड़े इसलिए फुल डे सफारी पर रोक लगाईं गई हैं। इसके अतिरिक्त मानसून सीजन में भी पर्यटन पर पाबंदी लगी होती हैं।

3.5. अन्य स्थानों पर शिफ्ट करने पर विचार 

बाघों को अन्य क्षेत्र में भेजना भी एक समाधान हो सकता हैं। इस पर गंभीरता से सोचा जाना चाहिए। यहाँ से बाघों को मुकन्दरा या रामगढ विषधारी में भेजने की बात हो रही हैं। जिस पर प्राथमिकता से आगे बढ़ने की जरुरत हैं।

आगे की राह

बाघों के संरक्षण के लिए विस्थापन कार्यों के लिए प्रमुखता से कार्य किए जाने की आवश्यकता हैं। इसके लिए विस्थापन के साथ-साथ पुनर्स्थापना एवं पुनर्वास को भी प्राथमिकता मिलने पर ही बाकी लोग भी तैयार हो पाएंगे। विस्थापित होने वाले लोगो की आजीविका को ध्यान में रखकर योजना बनानी होगी। फुल डे सफारी को सीमित करने की आवश्यकता हैं। साथ ही पर्यटन कारोबार में लगे हितधारकों को भी प्रशिक्षित करने की आवश्यकता है। दूसरी जगह पर शिफ्ट करने की योजनाओं को यथाशीघ्र अमल में लाने की आवश्यकता हैं।

साथ ही मानवीय क्षति को कम करने के लिए भी कई उपाय करने की आवश्यकता हैं, जैसे कि :

  1. बाघों के हमले में घायल और मरने वाले लोगो के लिए एक निश्चित मुआवजा नीति होनी चाहिए। इसे अधिकारियो के विवेक और सौदेबाजी क्षमता के भरोसे मामला-दर-मामला निर्धारित नही करना चाहिए। घायलों के उपचार के लिए व्यवस्था होनी चाहिए। किसी भी हमले की स्थिति में एक जिम्मेदार अधिकारी को पीड़ित के पास जाकर अग्रिम कार्यवाही का आश्वासन देना चाहिए।
  2. बाघ की वन क्षेत्र के बाहर और भीतर सघन निगरानी की जानी चाहिए। वन क्षेत्र से बाहर निकलते ही संबंधित क्षेत्र के निवासियों को वास्तविक समय सूचना प्रदान करनी चाहिए ताकि वे सुरक्षित स्थानों पर पहुँच सके। साथ ही वन विभाग के कर्मियों को वापस वन में भेजने पर कार्य करना चाहिए।
  3. राष्ट्रीय उद्यान के जिन क्षेत्रो से बाघ की निकासी होती हैं, उन क्षेत्रो में चारदीवारी की मरम्मत की जाए। साथ ही चारदीवारी के निर्माण में खराब गुणवत्ता के सामानों का प्रयोग करने वाले ठेकेदारों पर कार्यवाही की जाए।
  4. हिंसक हुए बाघ को एनक्लोजर में रखा जाना चाहिए या फिर उसके लिए अधिक क्षेत्र की व्यवस्था करनी चाहिए। ऐसी घटनाओ को पुनः अंजाम देने वाले बाघों पर ठोस उपाय किए जाने चाहिए।  
  5. फसलो के दिनों में बाघ को छुपने में आसानी रहती हैं, इसलिए इस दौरान निगरानी में सख्ती बरतनी चाहिए। साथ ही बड़े-बड़े बगीचों के पौधो में भी उसके छुपे होने की संभावना हो सकती हैं। इसलिए किसानो और वन विभाग के बीच उसके मूवमेंट को लेकर सूचनाओ के आदान-प्रदान की संस्थागत व्यवस्था होनी चाहिए। चेतावनी प्रणाली की तरह सुचनाए वितरित करनी चाहिए।
  6. बाघ के मूवमेंट को लेकर ग्रामीणों द्वारा दी गई सूचनाओ को वन विभाग द्वारा नकार दिया जाता हैं, ऐसे में वन कर्मियों की जवाबदेही तय करने की आवश्यकता हैं।
  7. वन क्षेत्र में से पर्यटन के दबाव को कम करने की आवश्यकता हैं ताकि बाघ अपने मूल क्षेत्र में हस्तक्षेप मुक्त महसूस कर सके। एक समय सीमा का पालन किया जाना चाहिए। बाघ को परेशान करने वाले जिप्सी चालको और पर्यटकों पर कार्यवाही करने की आवश्यकता हैं।
  8. पर्यटन क्षेत्र और विचरण क्षेत्र को लग करने की आवश्यकता हैं। इसके लिए टाइगर सफारी पार्क की स्थापना  की योजना को यथासीघ्र जमीनी आधार दिया जा सके।
  9. बाघ आधारित नीतियों के निर्माण में स्थानीय लोगो को भी शामिल किए जाने की जरुरत हैं। इसमें केवल व्यवसायिक समूहों से जुड़े बाघ-प्रेमियों का ही दबदबा नही होना चाहिए ।
  10. इत्यादि।

निष्कर्ष

अंत में हम यही कहेंगे कि जंगल में विचरण करता बाघ निश्चित तौर पर एक वरदान की तरह है। परन्तु जैसे ही यह जंगल से बाहर निकलता है तो लोगो की दिनचर्या का बाधित करने के साथ-साथ दहशत उत्पन्न करने की वजह से यह अभिशाप बन जाता है। ऐसे में हमारी कोशिश होनी चाहिए कि यह जंगल में ही बना रहे। इसके लिए सुझाए गये उपायों का क्रियान्वयन सुनिश्चित करना होगा।

सहकारी समितियों के माध्यम से अमरूद विपणन की समस्या का समाधान

सवाई माधोपुर का अमरुद अपनी मिठास के कारण बहुत अधिक लोकप्रिय हैं। यहां पर अमरूदों की बंपर पैदावार होती है। स्वादिष्ट व उत्तम क्वालिटी से भरपूर यहां का अमरूद देश की नामी-गिरामी मंडियों तक जाता है। यहाँ की मिट्टी और जलवायु के कारण अमरुद के बागान सवाई माधोपुर जिले में काफी सफल रहे हैं। करमोदा गाँव में अमरूदों की सफलता के बाद, एक दशक के भीतर ही इसके बगीचे लगभग पुरे सवाई माधोपुर जिले में विस्तृत हो गये।  सवाई माधोपुर में अब अमरूद की खेती व्यापक स्तर पर होने लगी है। लेकिन जैसे ही अमरुदों की बागवानी के अंतर्गत क्षेत्र में वृद्धि हुई, इनकी बिक्री की समस्या भी उत्पन्न हो गई। एक समय था जब अमरुद के लिए भाव और बाजार बहुत ज्यादा था, लेकिन धीरे-धीरे व्यापार खत्म होता चला गया। इस समय पर स्थिति उस निर्णायक मोड पर आ गई हैं, जहां किसान ये सोच रहा है कि इनके पेड़ों को लगे रहने दे या फिर खोद करके फेंक दे। सरकार भी इस दिशा में कई प्रयास कर रही हैं। ऐसी स्थिति में एक उपाय सहकारी समितियों के माध्यम से नजर आता है। जिस प्रकार क्रय-विक्रय सहकारी समितियां न्यूनतम समर्थन मूल्य पर कृषि खाद्यान्नों की खरीद करती हैं, उसी प्रकार से अमरुद के लिए भी खरीद की जा सकती हैं। इसके बारे में हम विस्तार से चर्चा करते है-

उपयुक्तता

अमरुद के लिए शुष्क जलवायु उपयुक्त होती हैं। ये सभी दशाएं सवाई माधोपुर में उपलब्ध हैं। इसलिए इसके बागान यहां पर तेजी से लोकप्रिय हुए। यहां की अनुकूल जलवायु, सिचाई हेतु यहां का बरसाती पानी एवं यहां की मिट्टी में बसे लौह तत्व की अधिकता व काली जलोढ़ मिट्टी की पर्याप्तता होने के कारण (अच्छी बारिश होने पर) लगभग सभी फसलों में प्रति हैक्टेयर उत्पादन बहुत अधिक है। मिट्टी काली जलोढ़ होने के कारण अधिक समय तक भूमि में नमी बनाए रखने में यह कारगर है। प्रायः देखा गया है कि पेड़ो की ग्रोथ के साथ फलों का आकार भी काफी बड़ा होता है। और सबसे अहम बात यहां मिट्टी में लवणीयता नही होने के कारण अमरूदों का स्वाद बिल्कुल मीठा है।

सवाई माधोपुर में अमरूद की खेती के प्रारंभिक चरण में उत्तर प्रदेश की नर्सरी से अमरूद के पौधे खरीदे गए।अब तो सवाई माधोपुर में ही बहुत सारी नर्सरी बन चुकी हैं। यहां बर्फ खान गोला, लखनऊ 49, इलाहाबादी, सफेदा किस्म के अमरूद के पौधे तैयार किए जाते हैं। वर्तमान में सवाई माधोपुर में 100 से अधिक नर्सरी हैं। इनमें विनियर ग्राफ्टिंग से अमरूद के पौधे तैयार किए जा रहे हैं।किसान अपनी आवश्यकता के अनुरूप पौधे यही से प्राप्त कर लेते हैं।

उत्पादन

  • देश का 60 प्रतिशत अमरूद केवल राजस्थान में हो रहा है। इस 60 प्रतिशत का 75 से 80 फीसदी हिस्सा सवाई माधोपुर जिले का है। अनुमानित रूप से देश का 50 प्रतिशत अमरूद अकेला सवाई माधोपुर जिला पैदा कर रहा है। विश्व में सबसे अधिक अमरूद भारत में होता है।
  • सवाई माधोपुर के अमरुद इतने अधिक पसंद किए जाते हैं कि वर्ष 2016-17 के सर्वे के अनुसार जहां सवाई माधोपुर में जहां पर्यटन से सालाना ₹800 करोड़  की आय हुई थी, वहीं अमरूदों के कारोबार ने  1200 करोड़ का आंकड़ा पार किया था।
  • उद्यान विभाग की माने तो गत वर्ष इस बार 90 हजार मीट्रिक टन के लगभग अमरुद का उत्पादन हुआ था और यह आंकड़ा दिनों दिन बढ़ता जा रहा है। इसके डेढ़ से दो लाख मीट्रिक टन के उत्पादन होने की आशा की जा रही है जो कि आने वाले समय में और बढ़ने की उम्मीद है।
  • बारह अरब तक व्यवसाय की उम्मीद: एक पक्के बीघा में 150 से 200 अमरूदों के पेड़ लगाए जा सकते हैं। जिले में फल दे रहे अमरूदों के पौधों की तादाद तकरीबन 40 लाख है। एक पौधा औसतन 100 से 125 किलोग्राम अमरूद की उपज देता है यानी जिले में 40 करोड़ किलोग्राम अमरूद का उत्पादन हो रहा है। यहां के अमरूद की औसतन फुटकर कीमत 25 रुपए किलोग्राम आंकी गई है। इस हिसाब से जिले में अमरूद का रिटेल कारोबार 12 अरब रुपए के आसपास पहुंच चुका है।

अमरुद की खेती से तुलनात्मक लाभ 

अमरूद की खेती सवाई माधोपुर जिले का वातावरण अनुकुल होने से फायदे का सौदा साबित हो रही है। अमरुद की खेती से उस खेत में बोई जाती रही अन्य फसलों की तुलना में लाभ रहता हैं। यह किसान की आय दोगुना करने में सहायक है।

उद्यान विभाग के अनुसार परंपरागत खेती की तुलना में अमरुद बागवानी से चार गुना तक लाभ होने से किसान इसे अपना रहे हैं। हाल के कुछ सालों में जिले के किसानों ने सरसों, गेहूं जैसी फसलों को को छोड़कर अमरूद की बागवानी की ओर रुख किया है।

शुरू में किसानों ने काफी मुनाफा कमाया

नवंबर व दिसंबर माह में यहां होने वाली अमरूदों की बंपर पैदावार किसानों को रोजगार ही नहीं आर्थिक सुदृढ़ीकरण में भी योगदान करती है। अमरूदों की खेती ने यहां के किसानों की जिंदगी ही बदल दी है। सवाईमाधोपर जिला मुख्यालय और आसपास के गांवों के किसानों की माली हालत सुधारने में अमरूद की खेती कारगर सिद्ध हुई है। इससे किसानों के सपने सच हुए हैं।

मांग अधिक होने के कारण अच्छे दाम प्राप्त होते हैं। किसानों का अमरूद की फसल पर कहना है कि फिलहाल अमरूद का उत्पादन काफी बेहतर चल रहा है जिसके चलते किसानों को अमरूदों के काफी अच्छे दाम मिल रहे है। अमरूदों के बगीचों की संख्या में तेजी से वृद्धि हो रही हैं जिससे व्यापार के लगातार बढ़ने की उम्मीद है।

इससे प्रेरित होकर इनके बागानों की संख्या में चरघातांकी वृद्धि हुई। अमरूद के प्रति किसानों की बढ़ती रुचि को देखते हुए इसके पौधे की नर्सरियों की संख्या काफी बढ़ गई है। ऐसे में अब जिले में ही अमरूदों की नर्सरियां तैयार होने लगी हैं।