Survival Against The Fittest

survival against the fittest
डार्विन ने प्रकृति को ध्यान में रखते हुए सक्षमों की उत्तरजीवता का सिद्धांत दिया था। औधोगिक क्रांति के दौर में हर्बर्ट स्पेंसर ने इसे मानव समाजो पर भी लागू कर दिया। तो समाजवादी लोगो ने इसकी आलोचना की और अक्षमों को भी अस्तित्त्व के योग्य माना है। समय का पहिया घूमता रहा और केन्सवाद ने पूंजीवाद को मानवीय चेहरा दिलाकर फिर से मान्यता दिलाई। अब नव-उदारवाद का जमाना है जिसमे राज्य निजी क्षेत्रो को आज़ादी दे रहा है और अक्षमों को पाल भी रहा है। लेकिन इस जमाने में क्या ये दोनों साथ-साथ सफर तय कर पाएंगे। या फिर अक्षमों को अस्तित्व के लिए विशेष प्रयास करने होंगे। इस विषय को विभिन्न उदाहरणों की सहायता से समझने की कोशिश करते है। 

क्या अब भी कोई समाजवाद की तरह प्रासंगिक विचारधारा होगी जो यह कहेगी कि अक्षमों को भी अस्तित्त्व का गरिमापूर्ण हक़ है। क्या इस दौर में भी मार्क्स, लेनिन, माओ, कास्त्रो जैसे लोग होंगे। 

Issue of  Survival Against Fittest

पहला प्रश्न तो यह है कि क्या सक्षमों के विरुध्द उत्तरजीविता वास्तविक मुद्दा है या फिर अपवादों को सामान्यकरण किए जाने की कोशिश है। इसके अलावा सक्ष्मो के साथ उत्तरजीविता भी तो सिद्धांत हो सकता है जो की समाज में पाया जाता हो और उसकी संख्या भी ज्यादा हो। 

कुछ उदाहरण लेते है -
  1. आजकल बड़ी बहुराष्ट्रीय कम्पनिया देशो में खड़े होने वाले छोटे छोटे स्टार्टअप्स और छोटे प्लेयर्स का अधिग्रहण करती जा रही है। छोटी कम्पनिया बड़ी कम्पनियो के द्वारा दिए जाने वाले ऑफर्स के सामने उपभोक्ता के लिए वहनीय नहीं है। अत वे खुद का विलय करने को ही उचित समझती है। इन बड़ी कम्पनियो से टक्कर के लिए दूसरी कम्पनिया भी विलय करके बड़ी कम्पनिया बना रही है। इसके बाद कुछ ही प्लेयर मार्किट में रह जाएंगे या फिर एकाधिकार स्थापित हो जाएगा। उसके बाद उपभोक्ता के पास विकल्प कम हो जाएंगे और उसे महंगी दर पर भी सामान खरीदना पड़ेगा। यहां से लाभों का एकतरफा हस्तांतरण बड़ी कंपनियों की तरफ होगा। तब ये साम्राज्यों का रूप ग्रहण कर चुकी होगी और राजनितिक व्यवस्था को भी प्रभावित कर रही होगी। 
  2. सिविल सेवाओं की तैयारी कराने के लिए जो बड़े संस्थान है उनके पास बहुत सारा पैसा इकठ्ठा हो गया है। जिसकी बदौलत ये सभी क्षेत्रो में निवेश कर रहे है। जिसके कारण विकेद्रीकृत प्लेयर्स को टक्कर  मिल रही है। ये अपने लाभों को अधिकतम करने के लिए सभी क्षेत्रो में कूदना चाह रहे है। इससे नए प्लेयर्स का इस क्षेत्र में प्रवेश करने के बारे में सोचना भी असंभव है। 
  3. क्या हिंदी दूसरी बोलियों को खत्म कर रही है।
यहां से हम देख सकते है कि निजी क्षेत्र आपस की गलाकाट स्पर्द्धा में ही लगा हुआ है। वे कैसे अपने लाभों को अधिकतम करे। इसके लिए कैसे प्राकृतिक संसाधनों तक किफायती पहुंच हो,कैसे सेवा मानको में रियायत हो। इन सबके लिए मूक समर्थन देने वाली सरकारों की स्थापना हो। इन सब चीजों में निजी क्षेत्र लगा हुआ है। ऐसे में उनको सामाजिक न्याय के मुद्दे याद दिलाना बहुत ही गलत चीज है।

मतलब जो सक्षम है वो और अधिक सक्षम होता जा रहा है। वही औसत लोगो को इनसे कड़ी प्रतिस्पर्द्धा  मिल रही है। बाकी अक्षम लोगो की बात यहां पर अप्रासंगिक हो जाती है। 

Public Affairs in Corpoarte 

ऐसा भी नहीं है कि कॉर्पोरेट को लोगो की बिल्कुल भी परवाह नहीं है। हम जानते है कि अगर लोगो के पास खरीदने की क्षमता ही नई होगी तो कॉर्पोरेट का अस्तित्व कैसे रहेगा। इसलिए लोगो के पास आय की उच्च मात्रा हो यह तो वे चाहते है। लेकिन इसके लिए किसकी क्या जिम्मेदारी होगी इसको लेकर ही तो संशय की स्थिति है।
  1. कॉर्पोरेट का यह भी मानना है कि यह जिम्मेदारी वे क्यों ले। यह तो राज्य का काम है। इसलिए राज्य को ही इसका पालन करना चाहिए।  
  2. कॉर्पोरेट सोशल रिस्पांसिबिलिटी को अब वैधानिक अनिवार्यता बना दिया गया है। इसके लिए सभी निकायों को कुछ योगदान करना होता है। कई कॉर्पोरेट इसका उल्लंधन भी कर रहे है, जिससे दुसरो को भी यही लगता है की वे भी क्यों करे।  
  3. इसके अलावा एक और आयाम भी मौजूद है। जो जनसंख्या वृद्धि के आधार पर अपनी जिम्मेदारी से मुक्त हो जाता है। दरअसल भारत में आर्थिक विषमता के असंख्य स्तर मौजूद है। कोर्पोर्टे को लगता है कि जितनी उसकी उत्पादन क्षमता है उतने स्तर के पास क्रय शक्ति है। इसलिए बाकी लोग उपभोक्ता भी नहीं है। इसलिए उन पर खर्च क्यों किया जाए या फिर उनके हितो के लिए क्यों सोचा जाए। 
इस प्रकार कॉर्पोरेट की मनोवृत्ति  में हम असंवेदनशीलता की झलक देख सकते है। हालांकि यह उम्मीद ही बेमानी है। 

Survival With fittest

हम देख चुके है कि कॉर्पोरेट का लालच निम्नतरो की उत्तरजीविता में बाधक है। अगर कॉर्पोरेट पर अंकुश नहीं लगाया गया तो यह व्यवस्था अनवरत चलती रहेगी। अब इसके लिए निम्न प्रयास किए जा सकते है जिसके आधार पर हम श्रेष्ठो के साथ उत्तरजीविता के सिद्धांत की परिकल्पना कर सकते है। 
  1. हमे टैक्स हैवन की अवधारणा का विरोध करना होगा। कर अपवंचना से सख्ती से निपटना होगा। कर अनुपालन की संस्कृति विकसित करनी होगी। 
  2. कॉर्पोरेट रेस को रोकने के लिए हमे अधिक कर लगाना पड़ेगा। ताकि हम बिलेनियर की अवधारणा को हतोत्साहित करना होगा। 
  3. कॉर्पोरेट घराने की व्यवस्था भी न केवल अर्थव्यवस्था के लिए खरतनाक है बल्कि राजनितिक और सामाजिक तौर पर भी इसके कई नकारात्मक प्रभाव होंगे।
  4. प्राकृतिक संसाधनों के आवंटन में भी उचित नीति के निर्माण की जरुरत है। ताकि उसका दोहन किसी एक इकाई के हित में नहीं हो। 
  5. कॉर्पोरेट जगत के मूल्यों में बदलाव भी जरुरी है। मुनाफा रेस का कोई गंतव्य होना चाहिए। बिना गंतव्य के यह सफर सामाजिक और आर्थिक अन्याय का कारण बनेगा। 
शेर और बकरी के एक घाट पर पानी पीने की कहानी के समान यह अवधारणा है। जिसमे एक के दांतो की तीक्ष्णता को थोड़ा कम करना पड़ेगा वही दूसरे की खाल को मजबूत बनाना होगा। इस प्रकार एक तरफ कॉर्पोरेट पर अंकुश लगाना होगा , वही दूसरी तरफ निम्नतरो के लिए सुरक्षोपाय बढ़ाने होंगे।

खंड II

Force Survival - Life With fittest

हम यह मानकर चलते है कि सभी की उत्तरजीविता के लिए बाह्य समर्थन की जरूरत होती है। अगर हम जैसे-तैसे करके लोगो को बचा भी लेते है तो क्या होगा। क्या वे उस स्तर पर बने रहेंगे ? क्या उस स्तर पर भी प्रतिस्पर्द्धा उत्पन्न नहीं होगी। क्या फिर हम आगे के अस्तित्व के लिए फिर से हस्तक्षेप करेंगे। ये चक्र फिर तो चलता ही रहेगा, जब तक कि हम Theory of Internal Development  के अनुसार आगे नहीं बढ़ जाते।

अगर ऐसा है तो क्यों न हम, रेस की बजाय खुद के हस्तक्षेप को रोके। हमारे भूमिका को हम निष्पक्ष अंपायर की बनाये। हम जानते है कि सभी लोग समान रूप से कर्मठ, मेहनती तो नहीं होते। ऐसे में उन्हें कमजोर व्यक्तित्व के लोगो के लिए रोकना कहां तक सही हो सकता है। जो आलसी है वो तो फिर से नीचे आ जाएगा और जो मेहनती है वो फिर से ऊपर जाएगा। ऐसे में विभाजन तो प्राकृतिक पहलु है, इसलिए इसे स्वीकार करना ही पड़ेगा।

हाँ, हमे इतना जरूर ध्यान रखना है कि ये विभाजन अनैतिक या अनुचित साधनो के माध्यम से अर्जित नहीं किया जाए। आगे यह विभाजन दुसरो के अवसरों को ही खत्म नहीं कर दे। साथ ही समाज का आर्थिक विभाजन सांस्कृतिक विभाजन में नजर नहीं आये। लेकिन यह तो साथ में जुड़े होते है, इससे इंकार कैसे किया जा सकता है। जब ऊपरी वर्ग का आदमी नीचे के वर्ग को हिकारत, घृणा से देखता है। जब यह बात निम्न वर्ग के बुद्धिजीवी लोगो को खटकती है तो उनमे चेतना जाग्रत होती है। यहां से फिर उच्च वर्ग को चुनौती की जमीं तैयार होती है।

अब जो कॉर्पोरेट आपसी लाभ के लिए लड़ रहे थे, निम्नस्थ वर्ग के खिलाफ एकजुट हो जाते है। वे सरकार को प्रभावित करने में अधिक मजबूत स्थिति में होते है। वे निम्न तबके के आंदोलनों को कॉर्पोरेट मीडिया, बुद्दिजीवियो और नेताओ के गठबंधन के माध्यम से कुचल देते है। सबसे बड़ी बात तो यह है की इस चेतना का दमन करने के लिए लोगो को जाति, धर्म, भाषा के आधार पर बाँट देते है।

निम्नस्थ की प्रतिक्रिया को फिर प्रशासनिक आश्वासनों के नीचे दबा दिया जाता है। क्योकि समाधान तो इसी व्यवस्था के तहत होने होते है। कई बार निम्नस्थो की चेतना का दोहन करके कोई चुनावी नेता और निर्मित हो जाता है। उच्चस्थ और निम्नस्थो के बीच आपसी प्रतिक्रिया की अब लगभग यह संस्कृति बन गई है। अब एक ही उपाय बचता है कि आप भी पढाई,प्रतिभा,नौकरी के बल पर अपनी हैसियत को ऊंची करो। और इस विभेदकारी व्यवहार वाली व्यवस्था के पीड़ित होने से बच जाओ।

इसलिए अब समाधान के तोर पर लॉन्चिंग ही विकल्प उभरकर आता है। Launching of Individuals को हम पहले ही शक की दृष्टि  से देख चुके है। ऐसे में लॉन्चिंग के लिए दूसरे उपायों पर विचार किया जाना चाहिए। मतलब लांच होने की इच्छा की तीव्रता भी हर किसी में समान नहीं होती। इसलिए जिनकी इच्छा तीव्र है वे कही न कही से अपना प्लेटफार्म तलाश लेंगे। अगर हम थोड़ा सा उनका यहां पर सहयोग करे और उन्हें प्लेटफार्म की तलाश में मदद करे। तो फिर संघर्षो को किसी दूसरे लाभदायक जगह पर प्रयुक्त किया जा सकता है। 

1. Launching Will

लॉन्चिंग की चाहत की तीव्रता लोगो में भिन्न- भिन्न होती है। कोई हर कीमत पर लांच होना चाहता है, तो कोई थोड़े बहुत त्याग के साथ। कुछ लोग बिलकुल भी त्याग नहीं करना चाहते, वे अपनी निम्नस्थ हालत में भी सुकून तलाश लेते है। इलसिए निम्नस्थ स्तर वाले लोगो को ये विभाजनकारी समाज वाली व्यवस्था ज्यादा नहीं कचोटती है। वे बुरा बर्ताव भी अपनी किस्मत मानकर झेल लेते है। कई बार ये निम्नतरो के उच्च्तरो पर चुटकले सुनकर खुश रहते है। 

यह इच्छा उन लोगो में ज्यादा होती है जिनमे स्वाभिमान, आत्म सम्मान जैसे गुणों का समावेश किसी माध्यम से प्रवेश करता है। अब वे अपने इन मूल्यों की प्राप्ति के लिए संघर्ष करके आगे बढ़ना चाहते है। लोगो को गरिमामय जीवन का महत्व समझा कर आगे बढ़ने की चेतना जाग्रत करना यहां पर जरूरी हो जाता है। 

2. Bridging the Will Gap

एक तरफ कॉर्पोरेट की इच्छा आगे बढ़ने की है वही निम्नतरो की केवल अस्तित्व बनाये रखने की है। ऐसे में यह सवाल उठता है कि इच्छाओ के इस अंतराल को हम कैसे देखे - सकारात्मक या नकारत्मक। सीधी सी बात है सकारात्मक रूप में ही देखेंगे। 

3. Options of Minimum Launching 

हम सभी जानते है कि निर्धनता जाल किसी परिवार की लॉन्चिंग में बाधा है। इसलिए हमे उन चीजों की उपलब्धता सभी के लिए बढ़ा देनी चाहिए जो निर्धनता जाल को तोड़ने के लिए जरूरी होती है। अब सरकार इनकी उपलब्धता, गुणवत्ता बढ़ा रही है।

4. People Without Launching

कई बार आदमी लॉन्चिंग के प्रयास करने के बाद भी कक्षा में परिवर्तन करने में विफल रहता है। ऐसे में हताशा, निराशा जैसे विकार उसे घर कर जाते है। वह अपनी बाकी जीवन भी आवश्यकताओ की पूर्ति के लिए अभावो से जूझता रहता है। इस वजह से उसकी सक्रिय नागरिकता में भी कमी आती है। जिसकी वजह से रुग्ण राजनीती का भी चक्र कायम रहता है।

5. Lessions for Launching At All

बिल गेट्स का मानना है कि आप गरीबी में जन्म लेते है ये आपकी गलती नहीं है, लेकिन अगर आप गरीबी में मर जाते है तो आप निश्चित तौर पर अपराधी है। इसलिए हमे अपनी परिस्थिति को बदलने का प्रयास हर हाल में करना चाहिए। साधन की पवित्रता से समझौता अगर निचली कक्षा से आगे बढ़ने के लिए किया जाए तो उसमे ज्यादा बुराई नहीं है। चूँकि निचले स्तर पर अनैतिक कदम के दुष्परिणाम नगण्य होंगे। जिन्हे सकारात्मक परिणाम के कारण आसानी से स्वीकार कर लिया जाएगा।    

इस प्रकार हमने निम्नतरो की दयनीय हालत को सुधारने के मार्ग का अवलोकन किया और इस मार्ग में मौजूद रुकावटों को हटाने के लिए उठाये जाने वाले कदमो पर भी विचार किया।

खंड III

Absent of Mission Against Distortions

जब उन्नीसवीं सदी में औधोगिक क्रांति के बाद समाज में असमानता फैली और उसकी वजह से जो विसंगतिया उत्पन्न हुई, उनका विभिन्न विचारको ने पुरजोर विरोध किया। जिनमे मार्क्स के विचारो से आगे बढ़ा समजवादी आंदोलन प्रमुख था। वर्तमान में औधोगिक क्रांति का चतुर्थ चरण चल रहा है लेकिन अब कोई भी इसके द्वारा निर्मित विसंगतियों का विरोध कर रहा है। इतना तो स्पष्ट हो गया है कि आज की विसंगतियों को पुराना समाजवादी आंदोलन सम्बोधित नहीं करता है। अब सवाल उठता है कि  क्या इस दौर में मार्क्स, लेनिन, माओ, कास्त्रो जैसे लोग नहीं रहे।

बहुत हद तक कहा जा सकता है कि बाजारवाद ने जिस हद तक व्यक्तिवाद को आगे बढ़ाया है कि अब कोई भी आदमी समाज के बारे में सोचने और करने के लिए खुद के हितो को दांव पर नहीं लगा सकता। अब आदमी में पहले के समान धैर्य भी नहीं रहा, जो दीर्घकालीन संघर्ष की सोचे। इसके अलावा कॉर्पोरेट यह स्थापित करता है कि समाज के लिए सोचना और करना भी एक बिज़नेस है। इस  वजह से भी लोग सामाजिक सरोकारों से कट रहे है। कुछ लोग सामाजिक सरोकारों को केवल चुनावी राजनीती की विषयवस्तु मानता है। ऐसे में अब निम्नतरो के हितो के संरक्षण के लिए दबाव समूहों का अभाव महत्वपूर्ण मुद्दा बनता जा रहा है।

अत: ऐसे लोगो को आगे बढ़ाना चाहिए जो समाजिक विसंगतियों के विरोध को मिशन के तौर पर लेकर उन्हें न्यून करने के लिए सरकार के साथ संवाद कर सके।
खंड IV

Trends of Survival Efforts

शुरुआती पूंजीवाद ने अक्षमों के खिलाफ नकारात्मक रुख अपनाया, जिसकी बदौलत लोगो में वर्गीय चेतना का संचार जल्दी से हो गया। आगे जब केन्सवाद आ गया तो राज्यों ने पब्लिक आक्रोश के सामने खुद को बचा लिया। लेकिन अब नवउदारवाद के चरण में राज्य पर जनकल्याणकारी कार्यक्रमों से हटने का भारी दबाव है। लेकिन निजी क्षेत्र की भूमिका भी प्रोत्साहन योग्य नहीं है। इसलिए अब नागरिको को सरकार के अटेंशन से वंचित रहना पड़ेगा। लेकिन प्रशासन के पास लोगो तक पहुंचने की क्षमता में इजाफा हुआ है। इसलिए निम्नतरो के हितो को आगे बढ़ाने वाले संस्थानों को आगे करने की जरूरत है।

कई जगह पर कॉर्पोरेट भी कल्याण के कार्यक्रम चला रहा है इसलिए अब उसे सीधे आरोपी नहीं ठहरा  सकते। इस वजह से मामले में जटिलता बढ़ गई है।

Conclusion :

सक्षमों के खिलाफ उत्तरजीविता के लिए हमने यहां पर प्रयासों की आवश्यकता महसूस की। जिस प्रकार शेर और बकरी के विभाजन प्राकृतिक है, जिसमे एक का सृजन ही दूसरे के किसी न किसी निर्भरता को ध्यान में रखकर किया गया है। उसी प्रकार सक्षम और अक्षमों की उपस्थिति भी दुनिया के संचालन के लिए निर्मित की गई व्यवस्था के हिस्से है। इसलिए हम इस विभाजन को समाप्त नहीं कर सकते। हमारी आपत्ति सिर्फ इस विभाजन के असंतुलन को लेकर हो सकती है।  

Tracing MODI-fied India

जब मोदी प्रधानमंत्री बने थे तब यह प्रोपेगेंडा चलाया गया था कि उनके पास गुजरात में प्रशासन चलाने का लम्बा  अनुभव केंद्र में भी काम आएगा। लेकिन अब स्पष्ट हो गया है कि ज्यादा अनुभव वाला आदमी भी सही नहीं रहता क्योकि उसके अंदर सिस्टम को नजरअंदाज करने की क्षमता आ जाती है। सरकार ने इस समय देश के सभी उच्च शीर्ष संस्थानों की हालत खराब कर रखी है। सभी संस्थाओ पर केंद्र सरकार का भारी दबाव है। मोदी सरकार उन्हें अपने निर्देशो के अनुसार चलाना चाह रही है।

इस आलेख में हम दो भागो में आगे बढ़ते है। पहले भाग में हम उच्च अफसरों के साथ सरकार कैसा व्यवहार कर रही है, के बारे में होगा। वही दूसरे भाग में संस्थानों की हालत कैसे ख़राब कर रखी है, के बारे में विचार करेंगे। 

दादागिरी करने वाले लोगो की एक लोकप्रिय कहावत है कि या तो आप हमारे साथ है या फिर हमारे खिलाफ, बीच में रहकर सत्यनिष्टा दिखाने की कोई गुंजाईश नहीं है। यहां पर भी इसी रणनीति का अनुसरण किया जा रहा है। जो अफसर सरकार के एजेंडे को बिना प्रश्न किए जैसे-तैसे आगे बढ़ा रहे है, वे सर्वाइव कर रहे है। बाकी लोगो को प्रताड़ित या उपेक्षित किया जा रहा है।   
  1. इस सरकार को शुरू में देश के बेहतरीन लोगो का साथ मिला था, जो अपने अपने फील्ड में ख्यातिप्राप्त थे। लेकिन इस सरकार के एजेंडे को भांपकर सभी लोग भाग खड़े हुए। आर्थिक क्षेत्र में सबसे ज्यादा ब्रेन ड्रेन मोदी के काल मे हुआ। रघुराम राजन चले गए, अरविंद सुब्रह्मण्यम, अरविंद पनगड़िया चले गए। अर्थशास्त्रियों में केवल विवेक देवराय इनके साथ है।
  2. अच्छे अच्छे अफसरों को इन्होंने लांछन लगाकर बर्खास्त कर दिया। जब भी किसी अफसर को हटाया गया। भाजपा के आईटी सेल ने उन्हें बदनाम करके रख दिया। विदेश सचिव निरुपमा और रघुराम राजन के उदाहरण सामने है।
  3. कई अफसरों को मोदी जी ने व्यक्तिगत प्रतिशोध का निशाना बनाया , जिसमे संजीव भट्ट शामिल है जिसने गुजरात दंगो पर मोदी को आरोपी ठहराने वाले अवधारणाएँ सामने रखी थी।
  4. जिन लोगो ने आने पर निकालने की कोशिश की, उनको कोपभाजन सहना पड़ा। इनमे पुराने रेलमंत्री गोडा और हरड़ मंत्री स्मृति ईरानी का नाम शामिल है। 
  5. अफसरों की बलि भी अपने संकीर्ण हितों को पूरा करने के लिए दी गई। देवयानी खोबरागड़े को अमेरिका से रिश्ते सुधारने के लिए उपेक्षित किया गया। अब बैंकिंग लॉबी के दबाव में उर्जित पटेल भी बलि का बकरा बन सकते है।
  6. उनकी जगह पर जो लोग लाये गए। उनके कद छोटे रखे गए ताकि उन्हें अपने व्यक्तित्व का मातहत बनाया जा सके। राष्ट्रपति के पद पर निर्वाचन भी इसी रणनीति का हिस्सा है। उर्जित पटेल ने नोटबन्दी के समय समर्पण कर दिया था। ओपी रावत ने राजस्थान के चुनावों की घोषणा में देरी की ताकि मोदी की सभा पूरी हो सके।
  7. कई पदाधिकारी यो ने मोदी को फायदे वाले काम किए। उन्हें दूसरे उच्च पद देकर सम्मानित किया। जिनमे 2G scam की अवधारणा बुनने वाले विनोद रॉय को बैंक बोर्ड ब्यूरो का चेयरमैन बनाया गया। सुप्रीम कोर्ट के पूर्व मुख्य न्यायाधीश पी सदाशिवम को केरल का राज्यपाल बनाकर भेजना भी इसी तरह की दुर्गंध के संकेत देता है।
  8. केंद्र में गुजरात कैडर और आरएसएस की विचारधारा के व्यक्तियों का जमावड़ा कर दिया गया। उन्हें श्रेष्ठ पद दिए गए। हसमुख अधिया उनमे प्रमुख नाम है।
  9. कुछ अफसरों के प्रति मोदी का विशेष स्नेह रहा। इनमे पहला नाम तो अजित डोवाल का है। जिसका कद एक मंत्री से भी ऊपर है। राजीव महर्षि भी वित्त सचिव, गृह सचिव रहे। उन्हें सेवा विस्तार मिला और उसके बाद कैग जैसे महत्वपूर्ण पद पर बिठा दिया गया।
मतलब मोदी सरकार में पद पाने के लिए मोदी भक्त होना प्राथमिक और अनिवार्य योग्यता है। इस योग्यता को धारण करने के बाद आप साहेब की असीम कृपा का लाभ प्राप्त करोगे।


संस्थाओ की विकलांग स्थिति
इस समय सारी संस्थाए विकलांग व्यक्ति के समान कर दी गई है। किसी संस्था के पास बजट नही है, तो किसी के पास स्टाफ नही है।

नियुक्तियों को अटकाना :
जब किसी संस्था में स्टाफ ही नही होगा तो वे कैसे काम करेगी। ये सब ऐसे संस्थान है जो सरकार को जवाबदेह बनाते है। 
  1. भ्रष्टाचार की जांच के लिए लोकपाल नियुक्त करने का कानून बने लगभग चार साल हो गए है। लेकिन अभी भी उसकी नियुक्ति नही हुई है। दरअसल लोकपाल के दायरे में प्रधानमंत्री को भी रखा गया है, अब PM के खिलाफ वह टिप्पणी करेगा तो मोदी की छवि का विश्लेषण करने का जनता को मौका मिलेगा। मोदी ने इसका अवसर ही जनता को नही दिया। बात को कानून में संशोधन पर फंसा दिया (explain in comment)
  2. जिन संस्थाओ में अध्यक्ष के अलावा कुछ सदस्य होते है। उनमें आधे सदस्यों की नियुक्ति ही नही की जाती। कुछ सदस्य उसमे विपरीत विचारधारा के नियुक्त कर दे रहे है ताकि वे आपस मे ही उलझे रहे। RBI में अभी ऐसे सदस्य घुसा दिए गए है।
  3. न्यायालयो में नियुक्तियो के आग्रह को ठुकराना भी इनका काम रहा है। CJI टीएस ठाकुर ने इनके सामने जजो की नियुक्ति को नही अटकाने का आग्रह करते हुए आंसू छलकाए थे, जिसका इन पर कोई असर नही हुआ। अल्फोंस की नियुक्ति को दोबारा भेजने पर स्वीकृति दी थी क्योंकि उसने उत्तराखंड में इनके विपरीत निर्णय दिया था।
  4. अयोग्य व्यक्तियों को नियुक्त किया जा रहा है। FTII पुणे में गजेंद्र चौहान को नियुक्त कर दिया। लम्बे विरोध के बाद अनुपम खेर को नियुक्त किया गया, जिसने भी इस्तीफा दे दिया।

कार्यप्रणाली में हस्तक्षेप :
कई संस्थानों की कार्यप्रणाली में हस्तक्षेप किया। फ़िल्म सर्टिफिकेशन बोर्ड को सेंसर बोर्ड बना दिया। पहलाज निहलानी ने इस मामले में बड़ी कुख्याती पाई। रिज़र्व बैंक में हस्तक्षेप किया जा रहा है। रघुराम राजन के स्वतंत्र व्यक्तित्व और विचारों के कारण ये उससे डरते रहे। लेकिन उर्जित पटेल को अंधेरे में रखकर नोटबन्दी कर दी। अब तो उसने भी ज्यादा हस्तक्षेप करने पर इस्तीफे की धमकी दी है।

संस्थाओ में टकराव :
सीबीआई और आईबी जैसी संस्थाओ में टकराव की स्थिति पैदा करने में मोदी जी को पुरानी महारत हासिल है। अभी सीबीआई डायरेक्टरो के बीच मामले में इसे देखा जा सकता है। कामकाज में भी दबाव बनाकर असंवेधानिक कार्य किए जा रहे है या फिर कानूनी लूपहोल का फायदा उठाया जा रहा है।

कानूनी दुर्बलता के प्रयास :
कई संस्थानों की शक्ति तो बाकायदा कानून लाकर कम कर दी गई। इस मामले में रिज़र्व बैंक सरकार को सर्वाधिक खटका जिससे बहुत सारी शक्तिया वापस ली गई। सुचना आयोग का भी यही हाल है। 

आगे क्या :
कुल मिलाकर बात यह है कि अफसरों और संस्थाओ को दबाव में रखकर काम करवाया जा रहा है। ये सब काम सिर्फ पूंजीपतियों के फायदे के लिए किया जा रहा है। जबकि संस्थान वंचित वर्ग के हितों की रक्षा के लिए खड़े होते है। ऐसे में गरीबो के हितों की कीमत पर बिजनेसमैन को खड़ा करने में मोदी सरकार तन मन धन से लगी हुई है।
जनमत को भी इसकी निंदा करनी चाहिए। अफसरों को अपनी सत्यनिष्ठा पर अडिग रहना चाहिए। तब जाकर हो सकता है हम संस्थानों को उन उद्देश्यो पर कार्यरत देख सके, जिनके लिए उन्हें स्थापित किया गया था।

Conclusion :
जब इंदिरा गांधी प्रधानमंत्री थी तो india is indira, indira is india का नारा दिया गया। मतलब जो इंदिरा ने कर दिया वही सही है, कही से विरोधी स्वर निकलने की गुंजाईश ही नहीं थी। अब मोदी जी भी उसी रवैये पर चल रहे है जो मानते है कि अब india MODIfied हो चुका है, जिसमे मोदी जी ने जो कह दिया वो ही सही होगा। हालांकि हम सब जानते है कि अहंकार किसी को भी नही पचता। हमारे अंदर दूसरे संस्थानों और व्यक्तियों की उपस्थिति को लेकर सम्मान होना चाहिए।