ताजमहल के साथ वार्तालाप


"मैं ताज हूं ,
वक्त के गाल पर थमा हुआ आंसू हूं,

मैं शब्दहीन ध्वनि और ध्वनिहीन शब्द का अंजाम हूं,
मैं दिलो की धड़कन का आकार हूं,
मैं एक ध्वनि का रूपांतरित दृश्य हूं,
मैं इंसानी हौंसलो और इरादों का परचम हूं,

मैं ताज हूं,
संगमरमर पर लिखी हुई कविता हूं,
मैं मनुष्य के अंतहीन सफर का एक पड़ाव हूं

वियना यूनिवर्सिटी की प्रोफेसर और लेखिका इबा कोच से ताजमहल ने इस तरह बातचीत की। इस वार्तालाप के वाक्यो को दोबारा गौर से पढ़े तो कही पर भी ताजमहल बड़बोला नही लगता। वह इन सब बातों पर खरा उतरता है। यहां पर लेखिका ने एक पंक्ति रविन्द्र नाथ टेंगोरे से चुरा ली है जिन्होंने ताजमहल को 'काल के गाल पर थमा हुआ आंसू' बताया था।

इबा कोच ही नही यहां आने वाले सभी सैलानियों से ताजमहल कुछ न कुछ बाते जरूर करता है। किसी से वह प्रदूषण के कारण व्हाइट मार्बल के बदलते रंग पर बात करता है, तो किसी से यहां के पर्यटन व्यवसाय में लगे लोगो की गुस्ताखीयो को नजरअंदाज करने की कहता है, किसी को वह प्रेम और सद्भाव के पन्ने पढ़ाता है। वहीं जो चंचल मन वाले लोग है उन्हें कहता है कि तुम फोटोज लेकर ही अपनी मुलाक़ात को यादगार बना लो, क्योंकि इस परिसर की हर एक जगह सेल्फी/फोटोग्राफी पॉइंट है।

मेरी भी ताजमहल के साथ इतिहास और संस्कृति से जुड़े विषयो पर लंबी बातचीत हुई। जिसका सार नीचे दे रहा हूँ -
  1. ताजमहल के निर्माण से कई मिथक जुड़े हुए है। कहा जाता है कि इसके ऊपर किए जा रहे खर्चे और ऊर्जा के व्यव से मुगल परिवार के दूसरे सदस्य खुश नही थे। जहांआरा जिन्होंने शाहजहां की अंतिम समय मे देखभाल की थी उन्होंने तो प्रतिक्रिया स्वरूप कह भी दिया था कि मेरी कब्र पर तो केवल घासफूस लगा देना। लेकिन ताजमहल के निर्माण में लगे मजदूरों की संख्या, निर्माण राशि की विशालता, बर्षो की मेहनत आदि सभी चीजो को आखिरी कृति न्यायोचित ठहरा देती है।

    ताजमहल फुरसत और बिना जल्दबाजी का नतीजा है। कही पर भी इसमे सममिति को भंग नही किया गया है। वैसे तो फुरसत में बनाई गई चीज मुहावरे का प्रयोग आशिक़ लोग लड़कियों के नैन-नक्श की सुंदरता के लिए करते है। लेकिन एक आशिक़ की इस कृति पर भी यह बात सटीक बैठती है। प्यार करने वाले लोगो ने तो शाहजहां पर यह भी आरोप लगाया है कि उसने मोहब्बत को दौलत से जोड़ दिया, जिस पर प्रतिक्रिया देते हुए साहिर लुधियानवी ने लिखा है कि -"इक शहंशाह ने दौलत का सहारा ले करहम गरीबों की मुहब्बत का उड़ाया है मज़ाकमेरे महबूब, कहीं और मिला कर मुझसे ! "

  2. दुनिया मे कोई भी रिकॉर्ड या उपलब्धि ज्यादा दिन नही टिकती, कुछ ही दिनों में उससे ज्यादा प्रतिभाशाली लोग उसे पार कर जाते है। लेकिन आज तक कोई भी ताजमहल की उत्कृष्टता को सफलतापूर्वक चुनोती नही दे पाया। कई लोगो ने इसे मात देने की कोशिश की लेकिन सब नाकाम रहे। इस सिलसिले में औरंगजेब  ने बीबी का मकबरा बनाया, वही अंग्रेज़ो ने भी कोलकाता में विक्टोरिया मेमोरियल बनाया, दोनो ही भोंडी नकल साबित हुए। इस मामले में खुद मुगल भी इतने सतर्क थे कि बनाने वाले कारीगरों के हाथ कटवा दिए गए। ऐसे में स्वतंत्र रूप से चुनोती देने वाली आकृति तो दूर की चीज हो जाती है। अतः बिना शक के कह सकते है कि दुनिया ताजमहल की अवधारणा (Concept of Tajmahal) की सर्वोच्चता को ही पार नही कर पाई है।

  3. ताजमहल की अवधारणा एक ऐसे मकबरे के रूप में की गई थी जो विशाल और भव्य हो। आज तो इस परिसर को सैलानियों से ही फुर्सत नही मिल पाती। लेकिन पहले के दिनों में इतनी बड़ी इमारत और बगीचे का सन्नाटा बाकी के लोगो को बताता होगा कि यहां एक महान आत्मा आराम कर रही है जिसे डिस्टर्ब नही किया जाए। दरअसल बाग-बगीचों में मकबरे बनाने की प्रथा इस्लाम मे विकसित हुई, जिसमे मुगलो ने चार बाग शैली की शुरुआत की।

  4. हमारे इतिहासकारो की नजर में भी यह तत्कालीन मुगल साम्राज्य की अर्थव्यवस्था में आई दरार को ढकने का प्रयास था, ताकि लोगो को ध्यान जर्जर होते साम्राज्य पर नही जा पाए और वे बगावत नही करे। लेकिन यह राज्य की असुरक्षाओं को कम नही कर सका।

  5. लाल किले के लिए लाल पत्थर और ताजमहल के लिए सफेद मार्बल दोनो की आपूर्ति राजस्थान से की गई थी। ऐसे विशालकाय स्थापत्य किसी साम्रज्य की महिमा को फैलाते थे और तत्कालीन राजपूती शासक मुगल साम्राज्य के इस कार्य में उल्लेखनीय योगदान दे रहे थे। बदले में मुगलो ने भी राजपूती शासको को खुश करने के लिए हिन्दुओ के साथ समन्वित व्यवहार किया। बिना राजपूती शासको के सहयोग के इसका निर्माण असम्भव था। अतः यह गंगी जुमनी तहजीब का उत्पाद है।

  6. ताजमहल आगरा से हिंदुस्तान पर राज करने वाले बादशाह का निर्माण कार्य है। इसके बाद उनकी राजधानी दिल्ली हो गई, जैसे ही राजधानी दिल्ली गई, वहां जाते ही कठमुल्लों के द्वारा कट्टरपंथ को हावी कर दिया गया और समन्वित संस्कृति का दारा शिकोह की तरह कत्ल कर दिया गया। अतः दिल्ली की इमारतों में इस्लाम हावी हो गया। हो सकता है इतने दिन रहने के बाद उसके पर ज्यादा निकल आये हो। इसलिए दिल्ली में मुस्लिमों ने हमेशा खुद को राज करने वालो की तरह ही पेश किया, यहाँ तक कि आज भी बुखारी और शाही इमाम राजनीतिक दलों को धर्मनिरपेक्षता का सर्टिफिकेट बांटकर इसका दस्तूर पूरा करते हो। मतलब हिन्दू-मुस्लिम में बांटने की राजनीति तो दिल्ली के डीएनए में है । आगे अंग्रेजों के टाइम पर फुट डालो राज करो कि नीति भी कोलकाता से दिल्ली राजधानी स्थान्तरित करने पर ही गति पकड़ी थी। वर्तमान में लोकतंत्र के युग मे भी यह जारी है।
    देख लो, दोनो ही शहर यमुना के किनारे है लेकिन दोनों जगह के पानी में शासन के तरीकों को लेकर मूलभूत अंतर है। एक बात और यह है कि भले ही आगे यमुना गंगा में जाकर मिल जाती हो, लेकिन इतिहास में तो यमुना ही गंगा पर हावी रही है। महाभारत काल मे भी हस्तिनापुर का उदाहरण मिल जाएगा।

  7. मुगलो द्वारा राजधानी को आगरा से दिल्ली ले जाना उनके हित मे बिल्कुल भी नही रहा। आगरा भारतीय उपमहाद्वीप के लगभग केंद्र में था। दिल्ली जाते ही उनकी राज्य पर पकड़ कमजोर हो गई और अवध, बंगाल और हैदराबाद जैसे प्रान्त सम्भाल रहे उनके वजीर आज़ाद हो गए। एक तरीके से उनकी सोने की मुर्गी उड़कर चली गई। उनके दूर जाने से बगल में ही शक्तिशाली मराठा उभर आये, राजपूत राज्य आज़ाद हो गए, जाट और सिक्ख राज्यो का उदय हुआ। इतने सारे राज्यों के चले जाने के बाद मुगल केंद्रीय सत्ता को समय पर न तो राजस्व मिलता था और न ही सैनिक सहायता। इसकी बदौलत उसकी जीर्ण होती दशा को विरोधियों ने भी अवसर के तौर पर देखा। अफगानों ने आक्रमण कर दिया और मुगल बादशाह को मराठो को उनसे निपटने के लिए कहना पड़ा। अंग्रेज़ इन सबको नजदीक से देख रहे थे और उन्होंने भी मौका मिलते ही बक्सर में अपने हाथ सेंक लिए जहां से भारत की गुलामी का मार्ग प्रशस्त हुआ। कहने का मतलब है कि आगरा से बाहर गई राजधानी के प्रभावों को मुगल सल्तनत पचा नही पाई। शायद आगरा के  हवा पानी की बात ही अलग थी। अगर राजधानी यही रहती तो गुलामी का इतिहास अलग रहा होता।

  8. ताजमहल आगरा में स्थायित्व प्राप्त कर रहे साम्राज्य की परिपक्व होती स्थापत्य कला का उदाहरण है। जिसने यह उपलब्धि चरणबद्ध प्रयोगों के माध्यम से प्राप्त की थी। मैं यह कहना चाह रहा हु कि अगर मुगल बादशाह आगरा में ही टीके रहते तो अगले निर्माण कार्यो में ओर अधिक उत्कृष्टता उजागर हो सकती थी। उन्होंने दिल्ली में तो जाते ही आगरा शैली को लगभग छोड़ दिया।
इस तरह हमारे बीच बातचीत में हमने भूतकाल की बातों को आगे के इतिहास से जोड़कर देखा। ताजमहल सच मे ही काफी इतिहास छुपाए बैठे है, जिन पर अध्ययन किया जाता रहा है।

निष्कर्ष :

आगरा को प्रधानमंत्री मोदी जी के स्वच्छ भारत अभियान का मजाक उड़ाते रेलवे ट्रैक के आधार पर ही जज नही किया जाना चाहिए,  स्टेशन के पास की पुरानी बस्तियों की भीड़भाड़ से थोड़ा सा आगे चलकर देखे तो यह भी बाकी शहरों की तरह ही है। जहां पर खुली हुई कॉलोनी है, साफ सुथरे और चौड़े रोड है, मिलनसार और हँसमुख लोग है। अब आगरा को देश के 100 स्मार्ट सिटीज में जगह भी मिल पाई है। इससे  बनने वाले स्मार्ट सोलुशन लोगो को आकर्षित करेंगे ।आखिरकार यह शहर भारत के गौरवशाली इतिहास का साक्षी जो रहा है।

प्रतिबद्धताओं से परे बदलते अंतरराष्ट्रीय संबंध


MASTRAM MEENA

बात उन दिनों की है जब दुनिया विश्व युध्द की त्रासदी को झेल रही थी। लगभग छः साल चले इस युध्द में करोड़ो की संख्या में जान माल की क्षति हुई। जाते-जाते परमाणु बम का विध्वंस भी दुनिया ने देखा। आधी शताब्दी के इन दो युद्धों की भयानकता को देखकर अल्बर्ट आइंस्टीन  को कहना पड़ा था कि "मुझे यह नहीं मालूम कि तीसरा विश्व युद्ध कैसे लड़ा जाएगा, लेकिन चौथा विश्व युद्ध अवश्य ही डंडों और पत्थरों से लड़ा जाएगा"।

दरअसल तकनीकी प्रगति ने परम्परागत लड़ाइयों के स्वरूप को बदल कर रख दिया था। इसने सभी देशों को अपनी सुरक्षा के लिए चिंतित कर दिया। सभी देश अब ऐसे विध्वंशो से बचने के उपायों पर आगे बढ़ने लगे। कुछ देशों ने रक्षा बजट बढ़ा दिया, रक्षा क्षेत्र में अनुसन्धान होने लगा, हथियार निर्मित और आयात किए जाने लगे। रक्षा सन्धिया होने लगी।

युध्द के बाद पुनर्निर्माण की प्रक्रिया भी शुरू हो गई, उसमे भी बहुत ज्यादा संसाधन प्रयुक्त हुए। जिसके लिए अमेरिका जैसे देशों से विकास में सहयोग हेतु साझेदारी की जरूरत महसूस हुई। उसी समय पर आज़ाद हो रहे उपनिवेशों को भी रक्षा और विकास के लिए बाह्य सहायता की जरूरत थी। ऐसे में कई जगहो पर सामुहिक संगठन निर्मित हुए, राजनीतिक एकीकरण पर ध्यान दिया गया। फिर उसी समय शुरू हुए शीत युद्ध मे विश्व दो खेमो में बंट गया, प्रत्येक खेमा सामरिक स्थिति वाले अधिकतम देशो को अपने पक्ष में करने के लिए उपरोक्त सुविधा उपलब्ध कराने लगा, बदले में उन्हें भी कुछ बाते माननी पड़ी होगी। मतलब एक देश दूसरे देश के साथ विभिन्न प्रतिबद्धता से बंधने लगा था और शीत युध्द की शुरुआत ने इन प्रतिबध्दताओ को आवश्यकता बना दिया।

लेकिन हम जानते है कि द्वितीय विश्वयुद्ध हो या शीत युद्ध कोई भी अकेले ताकत का प्रदर्शन तो होता है नही। वह आर्थिक हितों में टकराहट का नतीजा ज्यादा होता है। आर्थिक पहलू कभी भी ज्यादा दबकर नही रह सकता। शीत युध्द में दो खेमो के टकराने की संभावना वैश्विक राजनीति को भले ही प्रभावित करती रही, लेकिन उसमे आर्थिक पक्षो की जो उपेक्षा चल रही थी,  उसका 1991 की घटनाओं से उभार हुआ।

फिर सभी देश अपने हितों के अनुसार आगे बढ़ने लगे। साम्यवादी और मिश्रित अर्थव्यवस्थाओ ने खुद को खोलना उचित समझा। सभी विकासशील देशों ने निवेश की आवश्यकता महसूस की, भले ही वह शत्रु देश से ही क्यों न मिले। विकसित देशों को भी पूंजी को श्रम व बाजार वाले देशों में निवेश करने से भारी मुनाफा मिलने वाला था। विश्व बैंक और आईएमएफ जैसे अंतराष्ट्रीय वित्तीय संस्थानों को इसके लिए माहौल बनाने की जिम्मेदारी दी गई। वैसे तो यह एक तरीके का उपनिवेशवाद ही है जहां पहले उपनिवेश का आर्थिक दोहन केवल एक देश द्वारा ही किया जाता था, लेकिन इस व्यवस्था में तो सभी देश वहां पहुंच सकते है।

हालांकि यहाँ दूसरा पक्ष भी है- भारत और चीन जैसे देशों की प्रगति ।  भारत और चीन ने पहले निवेश आमंत्रित किया और आर्थिक विकास में उच्च स्तर पर पहुच गए। यहाँ के मानव संसाधन भी पश्चिमी देशों के जनसांख्यकी अभाव को दूर करने पहुंच गए थे। लेकिन इसी बीच पश्चिमी देशों को लगने लगा कि वैश्वीकरण की व्यवस्था तो उनके खिलाफ चली गई। इसस स्थानीय लोगो के रोजगार खत्म हो गए, प्रवासी और शरणार्थियों का जमावड़ा हो गया, व्यापार में घाटा जाने लगा है। इसी समय आतंकवाद ने भी पश्चिम के देशो को निशाना बनाया। वही जलवायु समझौते भी उसके ऊपर दायित्व लादते हुए प्रतीत हुए।  सूचना प्रौद्योगिकी की वजह से ऐसी बाते नमक मिर्ची लगा कर स्थानीय लोगो को बताई गई, मतलब फेक न्यूज़ कल्चर की शुरुआत हुई। ऐसे में कई पश्चिमी देशों में दक्षिणपंथी दलों और नेताओं की लोकप्रियता बढ़ी, जिन्होंने पोस्ट ट्रुथ वादों की बदौलत सत्ता भी प्राप्त की। इस तरह के माहौल ने घरेलू राजनीति को अंतरराष्ट्रीय सम्बन्धो से जोड़ दिया। इसमे एकाधिकार वाले नेताओं के उदय के बीज निहित थे। जिन्होंने आते ही संरक्षणवादी कदम उठाने शुरू कर दिए और वैश्वीकरण की आत्मा को पाताल में पहुचा दिया। जलवायु प्रतिबध्दताओ को नकार दिया, वीजा प्रतिबंध शुरू किए गए। भूतकाल में इन दलों को सहयोग करने वाले या इनके लिए सुविधाजनक देशो के साथ सम्बन्धो की शुरुआत की गई, वही दूसरे दलों के द्वारा किए गए अंतराष्ट्रीय व्यवहारों की उपेक्षा की गई। पुरानी प्रतिबद्धताओ को तोड़ना ही इन नेताओं का शगल बन गया,  हार्डकोर मनोरंजन की आदि हो रही स्थानीय जनता को भी यह मनोरंजन के समान लगा।

मतलब अब यह स्थापित हो चुका है कि पुरानी प्रतिबध्दता उनके कामकाज को सीमित करती है । जिससे बचने के लिए वे 1991 से 2010 तक तो दोगलेपन के सहारे चलते रहे। लेकिन अब वैश्वीकरण के दौर में सभी देश अपने लोगो की खुशहाली के लिए स्वतंत्र रूप से आगे बढ़ना चाहते है। यही वजह है कि वैश्विक व्यवस्था को मार्ग प्रदान करने वाली प्रतिबध्दताए अब खत्म की जा रही है और ज्यादातर देशो द्वारा इसे बेवफाई से जोड़कर भी नही देखा जाता है।
Question for upsc aspirants : why old commitment in international relations consider as a troublemaker in today's diplomacy ? what factor led to broken these commitments ? 
अब पर्याप्त उदाहरणो द्वारा इस विषय को अधिक स्पष्ट किया जा रहा है।

डर,असुरक्षाये और हितों के संवर्धन के कारण उपजी विभिन्न प्रतिबध्दताए निम्न है :

  1.  द्वितीय विश्वयुद्ध के बाद उपजी अधिकतर प्रतिबध्दता ओ का कारण तो शीत युद्ध था। जिसकी पृष्टभूमि रूस में साम्यवादी व्यवस्था की स्थापना से ही निर्मित हो गई थी। द्वितीय विश्व युध्द खत्म होते ही यूरोप और सयुंक्त राज्य अमेरिका दोनो ही रूस के प्रति संशयग्रस्त थे। यूरोप के देशों को लग रहा था कि रूस ने जिस तरह पूर्वी यूरोप के देशों में साम्यवादी सरकार बनवाकर अपना प्रभाव जमाया है, उसी तरह यह बाकी यूरोप पर भी कब्जा कर लेगा। वही अमेरिका को लग रहा था कि अगर साम्यवादी सरकारो वाले देशों की संख्या बढ़ गई तो पूंजीवाद की प्रगति प्रभावित होगी। इसलिए यहाँ से यूरोपीय देश अमेरिका के साथ रक्षा प्रतिबद्धताओ में बंध गए, जो नाटो (NATO) के रूप में सामने आया।
  2. यूरोप के देशों को खुद को भी लग गया था कि अब औधोगिक क्रांति के कारण दूसरे देश भी उभर रहे है। ऐसे में आपस मे ऐसे ही लड़ते रहे तो वैश्विक राजनीति में यूरोप हाशिए पर चला जायेगा। ऐसे में अगर सब एक हो जाये तो अंतरराष्ट्रीय संगठनों में दूसरे देशों से बातचीत करने में हमारा पक्ष मजबूत रहेगा। इससे शांति भी रहेगी तो पुनर्निर्माण में भी मदद मिलेगी। वही वैश्विक मंच पर उभर रहे अमेरिका जैसे देशो को संतुलित करने में मदद मिलेगी। यूरोपीय यूनियन, इसी तरह की सोच का नतीजा था।
  3. शीत युद्ध के साए में रूस की साम्यवादी व्यवस्था का खोप दिखाकर अमेरिका ने तीसरी दुनिया के देशों को भी रक्षा सन्धियो और गुटों में शामिल कर दिया। उसने मध्य पूर्व के देशों के लिए सेंट्रो, दक्षिण पूर्व के लिए डोमिनो इफ़ेक्ट जैसे विचार करके अपना प्रभाव छोड़ा। कई देशो को आर्थिक और तकनीकी मदद देकर अहसान की प्रतिबद्धता के दायरे में लाया गया। यही काम रूस ने भी किया।
  4. औपनिवेशिक ताकतों ने उपनिवेशों के आर्थिक शोषण और जल्दबाजी के निकास से उत्पन्न विसंगतियों के प्रति स्थानीय लोगो के आक्रोश से बचने के लिए इन देशों को आर्थिक मदद देना शुरू किया। वैसे इन देशों को पकड़कर रखना इसलिए भी जरूरी था कि ये बड़े बाजार के रूप में देखे जा रहे थे।
  5.  तीसरी दुनिया के देशों ने भी अपने हितों की पैरवी के लिए आपस मे कई प्रतिबद्धता की, जैसे कि-गुट निरपेक्षता। फिर इन्होंने एक स्वर में अपनी बात रखकर विकसित देशो को अपने ऊपर हावी नही होने दिया।
  6. तीसरी दुनिया के देश भी कम नही थे। इन्होंने भी LDCs पर कई प्रतिबध्दता थोप दी। जैसे कि -भारत द्वारा नेपाल और भूटान के साथ सामरिक समझौते।
  7. जलवायु परिवर्तन के खतरों से निपटने के लिए प्रयास शुरू हुए। सभी देश उत्सर्जन कटौती की बात पर सहमत हुए। विकसित देशों ने विकासशील देशों में अनुकूलन और अल्पीकरण के लिए वित्त और तकनीकी मदद की प्रतिबद्धता व्यक्त की।
ये आपसी प्रतिबद्धताए वैश्विक सम्बन्धो को लगभग तीन-चार दशक तक मार्ग प्रदान करती रही। लेकिन आगे निम्न घटनाक्रमो ने आपसी सम्बंधो में परिवर्तनों को दिशा प्रदान की :
  1. जब 1991 में सोवियत संघ का विघटन हो गया। उस समय पूंजीवाद का परिष्कृत रूप नव-उदारवाद बाकी के सभी देशों को भी प्रभावित करने लगा , क्योकि लगभग चार दशक के शीत युद्ध मे पूंजीवाद विजेता बनकर निकला था और उसके जश्न को टीवी , अखबार द्वारा देखा जा सकता था। साम्यवाद के प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष प्रभाव से निकले देशो को लगने लगा कि वे विकास प्रक्रम में कही पीछे रह गए है। ऐसे में परम्परागत व्यवहारों को भुलाकर जहां से जो भी मिले उस पर ध्यान केंद्रित करना चाहिए। 
  2. भारत जैसी मिश्रित अर्थव्यवस्था भी पूंजीवाद को अब ज्यादा अछूत मानकर नही चल सकती थी। इन देशों को ऋण, अनुदान के लिए पश्चिमी प्रभुत्व वाले वित्तीय संस्थानों के पास जाना पड़ा। जिन्होंने बदले में अर्थव्यवस्था को खोलने की शर्त रखी। फिर विकासशील देशों को निवेश के लिए खोल दिया गया। इन देशों के बाजार, श्रम आदि को भुनाने के लिए विकसित देश आपस मे प्रतिस्पर्धा करने लगे।
  3. भारत, चीन समेत ब्रिक्स देशों के उदय ने पश्चिमी देशों के कान खड़े कर दिए,अब वे इन्हें गम्भीरता से ले रहे है। अब अधिकतर अध्ययन इन्हें बड़ी अर्थव्यवस्थाओ के तौर पर दर्शाने लगे। इससे पश्चिम देशो के समक्ष खुद को फिर से साबित करने की चुनोती आ खड़ी हुई। चीन ने तो सामरिक क्षेत्र में भी प्रगति करके बाकी देशों को चिंतित कर दिया।
  4. विकसित देशों ने जो बीज बोए थे वो अब उन्हें कड़वे लगने शुरू हो गए। अफगानिस्तान में रूस को निकालने के लिए बनाए गए मुजाहिदीन अब आतंक के दूत बन गए।
  5. घरेलू राजनीति में आये बदलावों ने भी दूसरे देशों के साथ सम्बन्धो को फिर से प्राथमिकता देना शुरू किया। 
बस यही से पुरानी प्रतिबध्दताओ से उत्पन्न रिश्तों में बदलाव आ गया। यह बदलाव चरणबध्द रूप से था। जिसे कई दूसरे कारक भी प्रभावित कर रहे थे।

प्रतिबद्धताओ में बदलाव के उदाहरण :
  1. अमेरिका को लगने लगा कि यूरोप के देश उसे एंकर के तौर पर उपयोग कर रहे है। यह सोचकर उनके साथ से मुक्त व्यापार के समझौते से बाहर हो गया। ट्रम्प ने नाटो के प्रति भी संशय व्यक्त किया है। साथ ही अब उसने विकासशील देशों को पार्टनर के तौर पर तवज्जो देनी शुरू की, जैसे कि -भारत, जापान, ऑस्ट्रेलिया आदि को।
  2. यूरोप के देशों को लगने लगा कि अमेरिका के चक्कर मे हमने रूस से दुश्मनी बढ़ा ली, जिसके कारण उसके विशाल प्राकृतिक संसाधनों के फायदे से वंचित हो गए। अब ये रूस की तरफ नरम हो रहे है। रही बात सुरक्षा की तो इन्हें लग रहा है कि अब पहले जैसे युध्द नही होंगे। वही रूस भी उनके दर्जे की ही शक्ति है।
  3. विकासशील देशों को उपलब्ध कराई जा रही अहसान लादने वाली आर्थिक मदद भी अब बंद की जा रही है। क्योंकि पाकिस्तान उसे पाकर आतंकवाद को पोषित कर रहा है। वही ब्रिटेन ने कहा था कि हम अब अनुदान बंद करेंगे क्योकि भारत कुछ ज्यादा ही विकसित हो गया है।
  4.  विभिन्न मंचो और संगठनों की एकता भी भंग हुई है, जैसे कि ब्रिटेन eu से निकल गया, गुट निरपेक्ष फीकी पड़ रही है, सार्क जैसे संगठन लगभग मृत अवस्था मे है। केवल आसियान ही सफल माना जा रहा है।
  5. अमेरिका जलवायु परिवर्तन के पेरिस समझौते से बाहर निकल गया है। उसका मानना है कि विकासशील देशों के द्वारा चलाया गया एक्सटॉर्शन रैकेट है।
  6. चीन को संतुलित करने के लिए अमेरिका अंधेरे में हाथ पैर मार रहा है। देखते है कोई लात निशाने पर पड़ती है या नही। वह इसके लिए एशिया के देशो को ही ढाल बना रहा है। जिनमे भारत को चीनी बिरोध का पोस्टर बॉय बनाने की फिराक में है।
  7. मुस्लिम देश का परम्परागत तेल ग्राहक- अमेरिका चला गया है, अब वो खुद आत्मनिर्भर हो गया है। साथ ही उसने इन्हें दहशत फैलाने का जिम्मेदार मानकर हड़काना भी शुरू कर दिया है। अब ये देश नए ग्राहक तलाश रहे है। इसके लिए रूस, भारत , चीन जैसे देशों से सम्बंध सुधारने में लगे हुए है।
  8. कभी वैश्वीकरण की पैरवी करने वाले पश्चिमी देश अब संरक्षणवाद पर फोकस कर रहे है। खुद के देशो में बढ़ी हुई बेरोजगारी को इसका कारण बता रहे है।  शरणार्थियों के संकट ने भी उन्हें चौकस बनाया है क्यों कई बार वे चरमपंथ से जोडकर देखे गए है। अब बाहरी लोगों से रक्षा के नाम पर एकाधिकारवादी सरकारे सत्ता में आ रही है।
  9. भारत और रूस की मित्रता कमजोर पड़ी है। रूस पाकिस्तान के साथ सामरिक सम्बन्धो पर आगे बढ़ रहा है। वही भारत की अमेरिका से सामरिक नज़दीकी बढ़ी है।
  10. इजरायल के साथ सम्बन्धो में खुलापन आया है। फिलिस्तीन को अकेला छोड़कर अरब देश आगे बढ़ रहे है। इनका मित्र अमेरिका अब चला गया, अब ये भी बाजार की तलाश में इस्लामिक पहचान से आगे बढ़ रहे है।
  11. कोरियाई प्रायद्वीप स्वीकृति के लिए प्रयासरत है। ईरान भी कोई ज्यादा खुश नही है।
  12. अफगानिस्तान में अमेरिका खुद को खलनायक बताने से बचने के उपाय तलाश रहा है।

महत्वपूर्ण रुझान
  • जो  भी हो अब सभी देश आर्थिक राष्ट्रवाद को तवज्जो देने में लगे हुए है। यह बड़ा ही मजेदार है न, कि एक तरफ तो विदेशी कम्पनियों को आमंत्रित कर रहे है दूसरी तरफ़ खुद के हितों की रक्षा के लिए  सभी नियमो से परे भी जा रहे है।
  • प्रतिबध्दताओ से पार जाने के क्रम में अप्रत्याशित चीजे घटित होती जा रही है। जो पहले घनिष्ठ मित्र हुआ करता था अब उसके साथ कोई गर्मजोशी नही है। वही जो पहले दुश्मन थे उनसे घनिष्टता तलाशी जा रही है। जैसे कि भारत और रूस के सम्बन्धो में पहले जैसी गर्मी नही है, वही रूस के पाकिस्तान के साथ सम्बन्ध सुधार रहे है।
  • दो धुर विरोधियों के साथ सम्बन्ध भी स्थापित है, पहले जैसी रोकटोक नही है। जैसे कि भारत के इजरायल और फिलिस्तीन के साथ सम्बन्ध , भारत का अमेरिका से lemoa करके रूस से परमाणु ऊर्जा समझौता करना आदि। एक तरीके से अब डिप्लोमेसी सन्तुलन की कठिन परीक्षा दे रही है। पहले यह काम आर्मी करती थी।
  • सीधी सी बात है प्रतिबध्दता नियम बनाती है। जो गतिविधियों को सीमित करते है वही किसी एक पक्ष को लाभान्वित करते है। इस रैंकिंग कल्चर के समय मे कौन देश चाहता है कि वह खुद को नुकसान करके दूसरे को फायदा पहुचाये। लोकतंत्र में ये रैंकिंग कल्चर देशो को आत्मकेंद्रित बना रही है। वही घरेलू राजनीति वैश्विक घटनाओ से जुड़ती जा रही है। इसलिए इस तरह के गतिशील रिश्ते जनता को भा भी रहे है।
आगे क्या होगा
पहले "शत्रु का मित्र भी शत्रु " ही समझा जाता था। लेकिन अब सभी देशों को विकास करना है इसलिए शत्रुता का दायरा संकीर्ण हो गया है। अब ये देश तक भी सीमित नही रही बल्कि यह केवल मुद्दों पर आधारित हो गई है। होना भी यही चाहिए।

लेकिन बिना प्रतिबद्धता के माहौल अस्थिरता की ओर बढ़ रहा है। कोई भी देश किसी के साथ कभी भी बेवफाई कर सकता है। सभी देशों को इस बारे में अपनी तैयारी करके रखनी चाहिए।