कट्टरता का स्त्रोत - धार्मिक दर्शन या राजनीति ?

दुनिया ऐसी  बावरी कि         पत्थर पूजन जाये। 
घर की चकिया कोई न पूजे जेही का पीसा खाये। । 
कंकर-पत्थर जोड़   कर लई मस्जिद        बनाए। 
ता पर चढ़ी मुल्ला बांग दे क्या बहरा हुआ खुदाय । । 

भक्ति आंदोलन के निर्गुणपंथी संत कबीर की यह पंक्ति तो आपने सुनी ही होगी।जिसमे वे मूर्तिपूजा का विरोध कर रहे हैं , इसमें आगे वे मुस्लिमो के अजान को लेकर भी सवाल उठाते हैं । 


हम जानते हैं की कबीर धार्मिक आडंबरों के कट्टर विरोधी थे। उन्होंने हिन्दू और मुसलमानो दोनों पर जमकर कटाक्ष किये थे। उनसे तत्कालीन दिल्ली सुल्तान सिकंदर लोदी तो इतना चिढ गया था की उसकी हत्या करने  तक के आदेश दे दिए, और इसके लिए हर संभव प्रयास किये।
दरअसल भक्ति आंदोलन ऐसा काल था जिसमे संतो ने धर्म के वास्तविक अर्थ को पुन: परिभाषित किया। इन्होने मानव और ईश्वर के बीच प्रत्यक्ष सम्बन्धो की बात की , जो की भक्ति पर आधारित थे। उसमे एकाग्र निष्ठा पर बल दिया था जो बढ़ते-बढ़ते गहन प्रेम तक पहुचती थी। दूसरी तरफ परम्परागत , कठोर और निरर्थक कर्मकांडो का विरोध किया जो की समाज में घुल चुके थे। इनका मानना था की किताबी ज्ञान और साधु जीवन मोक्ष का आधार नही हो सकता।
भक्ति आंदोलन के समकालीन सूफी आंदोलन ने भी इस्लाम को हिंसा और कट्टरता से हटकर पहचान दी थी।नानक ने भी उसी दौरान जातियों और रूढ़ियों से रहित धर्म की शिक्षा दी थी और फलस्वरूप सिक्ख धर्म अस्तित्व में आया था। 

इस प्रकार हम यूँ कह सकते हैं की इन आंदोलनों ने धर्म को दर्शन के रूप में देखा था , ना की उपासना पद्धतियों में। जिससे धार्मिक सामंजस्य कायम होने का रास्ता तैयार हुआ क्यूंकि दूसरे धर्मो के प्रति एक समझ विकसित हुई थी। अकबर के पोते दारा शिकोह ने कुरान और उपनिषदों का अध्यन किया और अपनी पुस्तक "मज्म-अल-बहरैन" में लिखा की हिन्दू और मुसलमान दोनों जुड़वाँ भाई हैं और दोनों के दर्शनों में केवल शाब्दिक अंतर हैं। 

हमने भक्ति आंदोलन के माध्यम से जाना की जैसे ही हिन्दू , इस्लाम  के संपर्क में आया तो एकेश्वरवाद ,समानता ,भाईचारा जैसे गुणों से प्रभावित हुआ और इनके आधार पर  मूर्तिपूजा, जातिप्रथा, सामाजिक भेदभाव  के खिलाफ भक्ति संतो ने आवाज उठाई। इसी प्रकार अंग्रेजो के आगमन पर लोकतंत्र, मानव अधिकार , महिला अधिकार, अन्धविश्वास जैसे गुणों से प्रभावित हुआ। इस प्रकार हिन्दू धर्म ने हमेशा अपने में बदलावों के साथ खुद को ढालने की परवर्ती दिखाई और फिर नए रूप के साथ अवतरित होता गया। 
इसी प्रकार इस्लाम भारत में आया तो वह भी हिन्दू धर्म से प्रभावित हुआ। सूफी आंदोलन ने इस्लाम की अनोखी छवि प्रदान की जिसने इस्लाम का मानवतावादी और आध्यात्मिक पहलु उजागर किया। जिसके फलस्वरूप इन्होने धार्मिक सामंजस्य की बात को स्वीकार किया। और बादशाह अकबर ने माना था की 
"सभी धर्मो में कुछ ना कुछ सत्य हैं ,ना केवल इस्लाम में"। 
हम यूँ कह सकते हैं की एक दौर था जिसमे दोनों धर्मो ने एक दूसरे के धर्मो  का अध्यन किया और उसके बाद जो धारणा निकली उसे शाह अब्बास के पत्रो में निम्न शब्दों में व्यक्त किया गया हैं-  
"किसी भी व्यक्ति को लोगो की धार्मिक भावना में हस्तक्षेप नही करना चाहिए क्यूंकि जानबूझकर कोई भी गलत धर्म स्वीकार नही करता हैं "

यहाँ धर्म का आशय दर्शन से था जो भक्ति पर आधारित था। भक्ति का मतलब निष्ठा से होता हैं  सन्यासी बनने या फिर कर्मकांड से नही। 

कट्टरता की तरफ बढ़ना 

दोनों धर्मो के बीच भक्ति काल में  सामंजस्य कायम हुआ, जो अकबर के काल में चरम पर पहुंचा। अकबर द्वारा अपने गयी उदार धार्मिक प्रवृतियों से मुस्लिम रूढ़िवादी नाराज हो गए। उनका मानना था की अकबर द्वारा अपने गयी उदार नीतियों के कारण इस्लाम की पवित्रता प्रदूषित हुई हैं जिसके कारण मुस्लिमो का राजनैतिक,सामाजिक और सांस्कृतिक पतन हुआ हैं। 
दरअसल अकबर ने धार्मिक सामंजस्य के लिए किया जो शायद ही अब कोई करेगा। इस काल में हिन्दुओ को ना केवल काफ़िर के दर्जे से हटाकर समानता का दर्जा दिया ,अपितु व्यवहार में भी सामंजस्य लाने की कोशिस की। उसने हिन्दुओ पर से जजिया नामक कर हटा लिया , उन्हें उच्च पदो पर नियुक्ति दी, कई हिन्दू त्यौहार और प्रथाओ को अपनाया, यहां तक की दरबार में तिलक लगाकर बैठ जाता था। इसके विपरीत इमामो का प्रभाव ख़त्म कर खुद को इस्लामिक कानूनो का सर्वोच्च निर्णायक घोषित कर दिया। अकबर की धार्मिक सामंजस्य की नीति मौलवियो को भड़काने के लिए पर्याप्त थी। उन्होंने अकबर के धार्मिक प्रयोगो पर जरा भी ध्यान नही दिया। 
शाहजहाँ का असली उत्त्तराधिकारी युवराज दारा शिकोह, अकबर की धार्मिक नीति का अनुसरण कर रहा था।  अब यह बात रूढ़िवादियों को हरगिज हजम नही हो सकती थी उत्तराधिकार के युद्ध में  इन्होने  औरंगज़ेब का साथ दिया ,जिसमे वह विजयी रहा और इस्लाम की उदार वाख्या के लिए दारा शिकोह को मृत्युदंड दिया गया। 
औरंगज़ेब कट्टर सुन्नी रूढ़िवादी था ,उसने सिक्को पर कलमा लिखवाना बंद करवा दिया क्यूंकि वो काफिरो के हाथ में पड़कर अपवित्र हो जाता था।मथुरा और वाराणसी के  हिन्दू मंदिरो को गिराया गया और मस्जिदे बनवाई गयी , हिन्दुओ पर जजिया, तीर्थ यात्रा कर, चुंगी कर लगा दिए , सरकारी पदो से हटा दिया , संस्कृत पाठशाला बंद करवा दिए ,इस्लाम ग्रहण करने के लिए लालच दिया, युद्ध बंदियों का धर्मांतरण करवा दिया, दिवाली पर बाजारों में रौशनी नही कर सकते थे और सड़को पर होली नही खेल सकते थे। ये सब औरंगज़ेब की करतुते थी , इनको हिन्दू कैसे भूल सकते थे। बदला नही ले सकते तो वैर तो पाल ही सकते हैं। 
जब ज्यादतियां घाव बन चुकी हो तो वे कैसे आदमी को  सोने दे सकती हैं। इसी परिपेक्ष्य में हम बाबरी मस्जिद विध्वंश को समझ सकते हैं, जो मंदिर को तोड़कर बनाया गया था और उसके जगह पर बनी मस्जिद उनके जख्मो को हरा करती थी। इसी दौरान ऐसे नारे लगे थे की "अभी अयोध्या की बारी है , काशी मथुरा बाकी हैं "  
इस तरह औरंगज़ेब ने हिन्दू कट्टरपंथियों के उदय का आधार छोड़ा था । औरंगज़ेब के बाद मुग़ल साम्राज्य का पतन हो गया और एक लम्बा समय राजनितिक अस्थिरता में बिता जब तक की अंग्रेजो ने पुरे भारत को काबू में नही कर लिया  

आधुनिक कट्टरता की नीव
आधुनिक कट्टरता की नीव अंग्रेजो ने डाली। १८५७ के विद्रोह में उन्होंने देखा था की हिन्दू और मुसलमान साथ-साथ लड़े थे और विद्रोह को चिंगारी भी धार्मिक भावनाओ के कारण ही मिली थी। अंग्रेजो को भारत की कमजोरी की नब्ज मिल चुकी थी। इसके बाद उन्होंने भारतीयों की राजनितिक मांगो की उपेक्षा की ,परन्तु धार्मिक मांगो को हमेशा गंभीरता से लिया। 
१८५७ के विद्रोह को उन्होंने अपना राज पुन: पाने के लिए मुस्लिमो के षड्यंत्र के रूप में देखा था, और उनका निर्ममता से दमन किया। अकेले दिल्ली में ही अट्ठाइश हजार मुसलमानो को क्रांति के बाद फांसी पर लटका दिया , अंतिम मुग़ल शासक बहादुर शाह के दो बेटो को नंगा करके गोली मारी गयी। जबकि हिन्दुओ को शिक्षा, सरकारी पदो में प्रोत्साहन दिया। शिक्षा के कारण हिन्दुओ ने जागरूकता हासिल की और उपनिवेशिक सरकार के नुकसानों के खिलाप आवाज उठाई। अब अंग्रेजो को मुसलमानो की याद आई। और कांग्रेस को हिन्दुओ की संस्था करार देकर मुस्लिमो के लिए अलग से संगठन बनवाया ,मुस्लिम लीग,जिसे बाद में जिन्ना ने  नेतृत्व प्रदान करके विभाजन रूपी परिणाम तक पहुँचाया।
मुस्लिम लीग को अंग्रेजो ने स्वतंत्रता आंदोलन को कमजोर करने के लिए आगे बढ़ाया। उनके तुष्टिकरण के लिए साम्प्रदायिक निर्वाचन क्षेत्रो का प्रावधान किया।  आगे इनकी मांग बढ़ती गयी, इक़बाल ने इलाहबाद में  मुस्लिम राज्य की बात की जो लाहौर प्रस्ताव से अलग देश में बदल गयी। 

कांग्रेस को लीग ने हमेशा ब्लैकमेल किया , कांग्रेस ने स्वतंत्रता आंदोलन में सहयोग की उम्मीद से लखनऊ पैक्ट में साम्प्रदायिक निर्वाचन को स्वीकार किया , खिलाफत आंदोलन में भाग लिया  और हमेशा सहयोग की उम्मीद रखी। पर राष्ट्रभक्ति जिन्ना के डीएनए में ही नही थी वह मरते दम तक सौदेबाजी करता रहा। 
जब मुस्लिम लीग का रवैया स्वतंत्रता आंदोलन में सहयोग नही करने, उसमे बाधा डालने, उसे धार्मिक रंग देने का बन गया। तो आरएसएस का उदय हुआ , जिसने इनकी मांगो का सीधा विरोध किया। हालांकि इन हिन्दू रूढ़िवादियों को भी अंग्रेजो ने  स्वतंत्रता आंदोलन में बाधक तत्व के रूप में देखकर आगे बढ़ाया था, पर इनका रुख देश को तोड़ने की अंग्रेजी राज की साजिशो के विरोध के रूप में ही रहा। इन्होने साम्प्रदायिक निर्वाचन, दलितों के लिए अलग क्षेत्रो का विरोध किया। और बिभाजन से पहले के दशक में इन्होने मुस्लिम लीग का जबरदस्त विरोध किया ,परन्तु मुस्लिम लीग और कांग्रेस दोनों ने अपनी राजनीति के आगे देशहित को बलि चढ़ा दिया और देश का रक्तरंजित विभाजन हो हुआ ।  

विभाजन 
देश आजाद हुआ साथ में विभाजन, दो देश बने जो कुछ समय बाद तीन हो गए। परन्तु यह वाकया   सवाल छोड़ गया की - देश का विभाजन किस आधार पर हुआ ?
पाकिस्तान में यह सिद्धांत काफी प्रचलित हैं की देश का विभाजन  दो कौमी नजरिया (2 Nation Theory) के तहत हुआ हैं। मतलब विभाजन का आधार धर्म रहा। यह बात उसको कश्मीर पर अपना पक्ष रखने में मजबूत बनाती हैं। साथ ही पाकिस्तान में घटती हिन्दुओ की आबादी को भी इसी सिद्धांत से न्यायोचित ठहराता हैं। परन्तु बांग्लादेश का बनना और बलोचिस्तान में चल रहा संघर्ष उसके इस दावे को कठघरे में खड़ा करता हैं। दूसरी तरफ भारत का धर्मनिरपेक्ष होना भी पाकिस्तान के अस्तित्व पर प्रश्नचिन्ह लगाता हैं। 

परन्तु दो कौमी नजरिया भारत स्वीकार नही करता , भारत का मानना हैं की अंग्रेजो ने  फुट डालो राज करो की नीति के तहत जिन्ना की मांग को ऐसी परिस्थिति में पहुंचा दिया, जिसने आखिर में व्यापक तौर पर लोगो के व्यक्तिगत टकराव की जमीन तैयार  कर दी। जिन्ना को कांग्रेस ने साइड लाइन करने  की भरपूर कोशिस की लेकिन अंग्रेजो ने उसे बराबर लाकर खड़ा कर दिया, जहाँ से पीछे लोटना असंभव था ,अंत  में उसने जिहाद की घोषणा की और डायरेक्ट एक्शन डे के नाम पर १६ अगस्त को बंगाल जैसी जगहों पर हाजरो लोग मरे। उन दंगो के और बढ़ने की आशंका थी , इसी आशंका में कांग्रेस ने विभाजन की बात मान ली।  

बाद में पाकिस्तान और बांग्लादेश ने अपने आपको  इस्लामिक राष्ट्र घोषित कर दिया, जिससे हिन्दुओ की आकांक्षाओं को सीमित कर दिया गया जबकि भारत ने अपने आपको पंथ-निरपेक्ष राष्ट्र घोषित किया और मुसलमानो को भी समान अवसर प्रदान किये।  
विभाजन और अधिकारों की व्यवस्था ने यह अहसास करवाया की विभाजन हिन्दुओ के साथ एक धोखा था। मुसलमानो को तीन देश मिल गए जबकि हिन्दुओ  को किसी  भी देश में स्वायत्तता नही मिली , पाकिस्तान और बांग्लादेश तो हिन्दुओ के लिए नरक समान हैं  परन्तु भारत में भी उनकी स्वायत्तता की सीमित कर दिया गया। भारत में वे गर्व से हिन्दू नही कह सकते, क्यूंकि साम्प्रदायिक होने का सर्टिफिकेट जो मिल जाएगा। अपने आध्यात्मिक चीजो पर दावा नही कर सकते, क्यूंकि राम के जन्म और राम सेतु के सबूत अदालत में पेश करने पड़ते हैं , राम मंदिर नही बना सकते ,हिन्दू संस्कृति का पोषण नही कर सकते। इन सब बातो ने उनमे कट्टरपंथिता का उदय किया। 

इसके अलावा धर्मनिरपेक्षता ने भी हिन्दुओ को निराश  किया क्यूंकि यह तुष्टिकरण का रूप ले चूका हैं , जिसे हिन्दू , छदम-इस्लाम (Pseudo-Islam) मानने लगे हैं। 

निष्कर्ष 

अत: हम कह सकते  हैं की कट्टरता राजनीति के कारण आती हैं और पोषित होती हैं। यह कार्य प्रतिक्रियावादी तत्वों द्वारा संपन्न होता हैं। इसलिए इसका समाधान भी तभी हो सकता हैं जब धर्म को राजनीति से पृथक कर दिया जाए। 

कश्मीर पर किस समाधान को करें स्वीकार...



कहते हैं दर्द हो तो दवा लेनी चाहिए। हर मर्ज की दवा बाजार में उपलब्ध होती है। पर सवाल यह है कि कश्मीर के मर्ज की दवा आखिर क्या है? कश्मीर भी आज एक मर्ज है। 'मर्ज' शब्द छोटा साबित हो सकता है कश्मीर के लिए।

सही मायनों में कश्मीर आज एक नासूर की तरह है। ऐसे नासूर की तरह जो दक्षिण एशिया में सिर्फ अशांति का पर्याय बन चुका है। यही कारण है कि विश्व में शायद ही कोई देश ऐसा होगा, जो कश्मीर समस्या का जल्द से जल्द हल नहीं चाहता होगा। सभी इसका हल चाहते हैं। हल भी शांतिपूर्वक होना चाहिए।

नतीजतन कश्मीर के मर्ज की दवा भी आज मार्केट में है। यह कई रूप में है, लेकिन इतना अवश्य है कि प्रत्येक रूप कहीं न कहीं से अमेरिकी योजनाओं या फिर संयुक्त राष्ट्र संघ के उन प्रस्तावों से अवश्य प्रभावित है जिसे संयुक्त राष्ट्र संघ ने तब-तब पारित किया, जब-जब इस रोग की दवा मांगने भारत तथा पाकिस्तान संयुक्त राष्ट्र के पास गए थे।

वैसे यह चर्चा करना बेकार है कि आखिर कश्मीर समस्या कितनी पुरानी है। देश की युवा पीढ़ी को इससे कुछ लेना-देना नहीं है कि रोग कितना पुराना है बल्कि वह इसका हल चाहती है। हल भी ऐसा जो ठोस व टिकाऊ तो हो ही, भावनाओं को क्षति पहुंचाने वाला नहीं होना चाहिए।

इतना जरूर है कि भारत की जनता कश्मीर के हल के लिए 'भारतीय भावनाओं को ठेस नहीं पहुंचाने वाला होना चाहिए' के रूप में चाहती है तो कश्मीर को अपनी नसों में खून की बूंदों की तरह फिट करवाए बैठे पाकिस्तान के कठमुल्ला तथा कट्टरपंथी नेता इसे ‘पाकिस्तानी भावनाओं’ के अनुरूप सुलझाना चाहते हैं। 

जारी है पाकिस्तान का गेम...
पाकिस्तान की ऐसी कोशिशें पिछले 66 सालों से जारी हैं। कुछ कोशिशें प्रत्यक्ष थीं तो कुछ अप्रत्यक्ष। उसकी प्रत्येक प्रत्यक्ष कोशिश को भारत की ओर से मुहंतोड़ उत्तर मिला, क्योंकि यह कोशिश भारत पर हमला कर कश्मीर को हड़पने के रूप में थीं। वर्ष 1947, 1965 और 1971 के तीन युद्धों को भुलाया नहीं जा सकता जिसमें अब 1999 में हुआ कारगिल युद्ध अभी भी ताजा जख्मों की ही तरह है।

जब ऐसे पाकिस्तान कश्मीर को नहीं हथिया पाया तो उसने लंबा गेम खेला। प्रत्यक्ष युद्धों में मार खाने वाले ने धीमे जहर का अर्थात आतंकवाद का सहारा लिया और यह धीमा जहर अभी भी कश्मीर की जनता की नसों में भरा जा रहा है, जहां 80 हजार से अधिक लोग अकाल मृत्यु का शिकार हुए हैं। इनकी मौत के लिए कोई और नहीं बल्कि सीधे तौर पर पाकिस्तान ही जिम्मेदार है।

कश्मीर के कारण भारत चिंतित है। पाकिस्तान के प्रति कुछ कहा नहीं जा सकता, क्योंकि उसके लिए यह समस्या नहीं बल्कि पाकिस्तानी जनता को बरगलाने की चाबी है। इस चाबी को वे गंवाना नहीं चाहता। पाकिस्तान के हुक्मरान जानते हैं कि जिस दिन यह चाबी गुम गई, पाकिस्तान पर शासन करने का उनका ताला भी बिखर जाएगा।

लेकिन इतना अवश्य है कि दुनिया कश्मीर को लेकर अवश्य परेशानी तथा चिंता में है। उसकी चिंता का कारण कश्मीर इसलिए बना है, क्योंकि कश्मीर के कारण पाकिस्तान तथा भारत परमाणु संपन्न देश बन चुके हैं और दुनिया को चिंता इसी बात की है कि दोनों अभी शैशवास्था में होने से किसी भी समय कश्मीर को लेकर वे परमाणु शक्ति का इस्तेमाल कर विश्व शांति को खतरे में डाल सकते हैं।

क्या चाहती हैं दुनिया की ताकतें... 
यही कारण है कि विश्व की अन्य ताकतें चाहती हैं कि कश्मीर समस्या का हल जितनी जल्दी हो सके, हो जाए। वैसे यह जल्दी पिछले 53 सालों से चल रही है मगर समस्या फिलहाल अनसुलझी है।

भारत ने कई बार इस समस्या को सुलझाने की पहल की। आंतरिक तौर के अतिरिक्त बाहरी तौर पर उसने पाकिस्तानी नेताओं से संबंध सौहार्दपूर्ण बनाने की खातिर कश्मीर को कोर इशू बना कई समझौत भी किए। वर्ष 1949 का शांति समझौता, 1965 में ताशकंद समझौता तथा 1972 का शिमला समझौता इसके स्पष्ट प्रमाण हैं।

यह तो युद्ध के बाद की परिस्थितियां थीं, जब पाकिस्तान ने कश्मीर समस्या सुलझाने के लिए यह कदम उठाया था। लेकिन लाहौर का घोषणा पत्र ताजा उदाहरण है कश्मीर को सुलझाने की भारतीय इच्छा का, परंतु वह भी एक जख्म सौगात के रूप में भाररतीयों को दे गया। यह घाव मिला कारगिल पर हमले के रूप में।

ऐसा भी नहीं है कि भारत सरकार ने कश्मीर समस्या को सुलझाने की कभी कोशिश न की हो बल्कि आंतरिक तौर पर इसे सुलझाने की खातिर कश्मीरी नेताओं से जहां कई बार लिखित-मौलिक समझौते हुए वहीं कश्मीरी जनता को भारत के साथ रखने की खातिर मुंहमांगी खुशियां भी प्रदान की गईं।

परंतु कश्मीरी जनता की झोली नहीं भर पाई और न ही कश्मीरी नेताओं की। ऐसा इसलिए हुआ था, क्योंकि उन्होंने कश्मीर समस्या को दूध देने वाली गाय समझ उसके लिए भारत से चारा लेना अभी तक जारी रखा हुआ है।

भारत सरकार की कोशिशें... 
भारत सरकार ने कश्मीर को सुलझाने की खातिर कई ऐसी कोशिशें की जिस पर देश की जनता को नाराजगी भी थी। फिर भी भारत सरकार ने इन विरोधों के बावजूद ऐसे हल जारी रखे, जो चाहे किसी को मान्य नहीं थे लेकिन उसका मकसद कश्मीर तथा उसकी जनता को अपने साथ बनाए रखना था।

देश के विभाजन के तुरंत बाद कश्मीर के विलय की शर्तों को स्वीकार करना, 1952 तथा 1975 में हुए समझौतों के आधार पर कश्मीर को जो आजादी दी गई वह चाहे आज खतरनाक साबित हो रही है, मगर इतना जरूर है कि इस आजादी के कारण कश्मीर एक देश के भीतर ही दूसरा देश बन गया जिसका अपना संविधान था, अपना निशान था और सभी वे शक्तियां उसके पास थीं, जो भारतीय गणराज्य के पास थीं। और यह आज भी जारी हैं।

कश्मीर को लेकर कई हल सुझाए जा रहे हैं। सबसे पुराना ‘डिक्सन प्लान’ है। यह वर्ष 1950 में तब बना था, जब कश्मीर में जनमत संग्रह करवाने की बात चल रही थी। यही कारण है कि यह प्लान जिसे सर ओवेन डिक्सन ने तैयार किया था, पूरी तरह से संयुक्त राष्ट्र संघ के जनमत संग्रह के प्रस्तावों से प्रेरित था।

लेकिन अंतर इतना अवश्य था कि जहां संयुक्त राष्ट्र संघ का प्रस्ताव कहता है कि सारे राज्य की जनता जनमत संग्रह में हिस्सा लेकर पूरे जम्मू-कश्मीर के भाग्य का फैसला करे तो डिक्सन योजना कहती है कि सिर्फ कश्मीर घाटी में जनमत संग्रह होना चाहिए, क्योंकि उसके प्रति ही संशय है कि वह पाकिस्तान के साथ रहना चाहती है या फिर भारत के साथ।

क्या चाहते हैं लद्दाख के बौद्ध और जम्मू के हिन्दू...
उनकी रिपोर्ट के शब्दों में : ‘जबकि देखने में यह आया है कि एक क्षेत्र (लद्दाख) बौद्ध बहुल है, दूसरा (जम्मू मंडल) हिन्दू बहुल है और तीसरे में (कश्मीर घाटी) हिन्दू व मुस्लिम भी हैं, जो अनिर्णय की स्थिति में है। हिन्दू तथा बौद्ध भारत के पक्ष में हैं अतः हिन्दू व बौद्ध बहुल क्षेत्रों को भारत के साथ मिलने के प्रति कोई शंका नहीं है। परिणामस्वरूप सिर्फ कश्मीर घाटी में ही जनमत संग्रह करवाया जाए ताकि उसके भविष्य का फैसला वहां के लोग आप कर लें।’ दूसरे शब्दों में उनकी योजना यह कहती है कि जम्मू व लद्दाख भारत के साथ रहें और कश्मीर पाकिस्तान के साथ।

अब सवाल उठता है आखिर नासूर बन चुके कश्मीर के मर्ज की किस दवा को स्वीकार किया जाए, क्योंकि विभिन्न प्रकार के नुस्खे मार्केट में आ चुके हैं। अधिकृत फिलहाल कोई भी नहीं हो पाया है, मगर इतना जरूर है कि किसी एक नुस्खे को चुन कर जख्म को भरना होगा।

हालांकि यह सोच आज के जमाने में गलत साबित हो सकती है कि कुछ ले-देकर समस्या का हल नहीं किया जाना चाहिए, क्योंकि जब जख्म को दवा से भरने की कोशिश की जाती है तो पुराना मांस अपनी जगह छोड़ देता है और उसका स्थान नई त्वचा ले लेती है। अतः सूरत की परवाह किए बिना मर्ज की दवा लेनी होगी, क्योंकि इससे पहले की नासूर पूरे शरीर को चट कर जाए मार्केट में उपलब्ध किसी भी नुस्खे को स्वीकार करना होगा।

साथ में उन समाधानों का ब्योरा भी संलग्न है, जो आज कश्मीर के प्रति सार्वजनिक तौर पर उपलब्ध हैं। वे निम्न प्रकार से हैं:-

क्या है डिक्सन प्लान....
डिक्सन प्लान : ‘डिक्सन प्लान’ संयुक्त राष्ट्र संघ द्वारा 5 जनवरी 1949 को पारित किए गए प्रस्ताव पर ही कुछ-कुछ आधारित था। हालांकि संयुक्त राष्ट्र के प्रस्ताव में जहां सारे राज्य में जनमत संग्रह करवाने की बात कही गई है वहीं ‘डिक्सन प्लान’ कहता है कि जनमत संग्रह राज्य के उन्हीं हिस्सों में करवाया जाए, जहां दोनों देशों में से किसी एक के साथ मिलने के प्रति शंका हो। अर्थात यह बात उन्होंने कश्मीर घाटी के प्रति कही थी, क्योंकि अपनी रिपोर्ट में वे कहते हैं कि जम्मू तथा लद्दाख के भारतीय गणराज्य के साथ मिलने के प्रति कोई शंका नहीं है।

असल में 14 मार्च 1950 को संयुक्त राष्ट्र संघ ने जम्मू-कश्मीर में जनमत संग्रह को पूरा करवाने के लिए वहां से दोनों देशों की सेनाओं को हटवाने के कार्य की देखरेख करने के लिए संयुक्त राष्ट्र संघ के प्रतिनिधि के रूप में ऑस्ट्रेलियन हाई कोर्ट के सेवानिवृत्त जज सर ओवेन डिक्सन को भिजवाया था।

सर डिक्सन, जो 27 मई 1950 को भारत आए थे और फिर 15 सितंबर 1950 को उन्होंने अपनी रिपोर्ट पेश की थी। इसी रिपोर्ट को आज ‘डिक्सन प्लान’ के नाम से जाना जाता है। जबकि चौंकाने वाली बात यह है कि अब तक कश्मीर के प्रति जितने भी हल सामने आ रहे हैं वे सभी ‘डिक्सन प्लान’ से पूरी तरह से प्रभावित हैं।

क्या कहती है डिक्सन की रिपोर्ट...
सर डिक्सन की रिपोर्ट कहती है:-

1-मान लें कि अगर जनमत संग्रह का परिणाम भारत के पक्ष में जाता है तो बड़ी संख्या में मुस्लिमों का पलायन होगा और यह पाकिस्तान के लिए एक मुसीबत के रूप में होगा, क्योंकि मुस्लिम पाकिस्तान में ही जाएंगे।

2-मान लें अगर जनमत संग्रह का परिणाम पाकिस्तान के पक्ष में जाता है तो बड़ी संख्या में हिन्दुओं का पलायन होगा और यह भारत के लिए एक मुसीबत के रूप में होगा, क्योंकि हिन्दू भारत में ही जाएंगे।

3-जबकि देखने में यह आया है कि एक क्षेत्र (लद्दाख) बौद्ध बहुल है, दूसरा (जम्मू मंडल) हिन्दू बहुल है और तीसरे में (कश्मीर घाटी) हिन्दू व मुस्लिम भी हैं, जो अनिर्णय की स्थिति में हैं। हिन्दू तथा बौद्ध भारत के पक्ष में हैं।

4-अतः हिन्दू व बौद्ध बहुल क्षेत्रों में भारत के साथ मिलने के प्रति कोई शंका नहीं है। परिणामस्वरूप सिर्फ कश्मीर घाटी में ही जनमत संग्रह करवाया जाए ताकि उसके भविष्य का फैसला वहां के लोग आप कर लें।

दूसरे शब्दों में उनकी योजना यह कहती है कि जम्मू व लद्दाख भारत के साथ रहें और कश्मीर पाकिस्तान के साथ।

कश्मीर मसले के लिए एक और प्लान... 
चिनाब प्लान : कश्मीर समस्या को सुलझाने की खातिर एक और हल सामने है। इसे ‘चिनाब प्लान’ के नाम से जाना जाता है जिसका जन्मदाता भी अमेरिका ही है। इसके अंतर्गत कश्मीर समस्या का जो हल सुझाया गया है उसके अंतर्गत चिनाब दरिया को सीमा मानते हुए कश्मीर घाटी को एक अलग अर्द्ध स्वतंत्र देश मान लिए जाने के रूप में दिया गया है। इस हल के अंतर्गत कश्मीर होगा तो अर्द्ध स्वतंत्र लेकिन उसकी सुरक्षा तथा वित्तीय समस्याओं का हल भारत तथा पाकिस्तान मिलकर किया करेंगे।

यह प्लान जिसके अंतर्गत कश्मीर समस्या का हल अमेरिका समर्थक कश्मीर शोध दल द्वारा सुझाया गया है, को ‘चिनाब योजना’ का नाम भी दिया गया है। चिनाब योजना के तहत कश्मीर अर्द्ध स्वतंत्र मुस्लिम राज्य होगा जिसके लोगों को भारत और पाकिस्तान कहीं भी आने-जाने की अनुमति होगी, क्योंकि उनके पास दोनों ही देशों के पासपोर्ट होंगे।

चिनाब योजना आगे कहती है कि अगर कश्मीर के लोगों, पाकिस्तान तथा भारत को मंजूर हो तो इस प्रस्ताव को आगे बढ़ाया जा सकता है। इसके लिए सभी पक्षों के बीच एक ऐतिहासिक समझौते की आवश्यकता है तथा यह भी सुनिश्चित बनाने के लिए कहा गया है कि भारत, पाकिस्तान तथा अंतरराष्ट्रीय संगठनों को इसके प्रति गारंटी लेनी होगी कि नए राज्य की स्वतंत्रता बरकार रहे।

चिनाब योजना का एक अन्य रोचक तथ्य यह भी कहता है कि पाकिस्तान तथा कश्मीर को उसकी अंतरराष्ट्रीय सीमाओं की रक्षा करनी होगी तथा कश्मीर आप अपनी आंतरिक सुरक्षा के लिए पुलिस व कानूनों का निर्माण करेगा। जबकि कश्मीर की पहचान बनाए रखने के लिए वहां की अलग मुद्रा को भी चलन में स्वीकार किया जाएगा।

इतना ही नहीं, कश्मीर के नागरिकों को कश्मीरी नागरिकता के अतिरिक्त भारत तथा पाकिस्तान की नागरिकता पाने का अधिकार भी दिया जाएगा जबकि दोनों ही देशों के पासपोर्टों को कश्मीरी नागरिक हासिल कर पाएंगे। चिनाब योजना आगे कहती है कि कश्मीर के लोग भारत तथा पाकिस्तान दोनों ही देशों में आने जाने के लिए स्वतंत्र होंगे।

क्या कहती है चिनाब योजना...
चिनाब योजना यह भी कहती है कि जम्मू तथा लद्दाख को नए राज्यों के रूप में भारत के साथ रहना होगा जिनके लिए चिनाब दरिया को सीमा मानते हुए नए मुस्लिम राज्य को शेष भारत से अलग करना होगा। जबकि वह पाकिस्तान अधिकृत कश्मीर के प्रति कुछ भी नहीं कहती है।

स्वायत्तता :

1) राज्य की स्वायत्तता 

मुख्यमंत्री डॉ. फारुक अब्दुल्ला घड़ी की सूइयों को पीछे मोड़ना चाहते हैं। उन्होंने कश्मीर की वर्तमान समस्या का जो हल पेश किया वह भी पूरी तरह से ‘डिक्सन प्लान’ तथा ‘चिनाब प्लान’ पर आधारित है। अंतर सिर्फ इतना है कि उनके हल के अनुसार, जम्मू-कश्मीर भारत में ही रहेगा और उसे आजादी 1953 से पूर्व की स्थिति देगी, जब कश्मीर में न ही भारत का संविधान था, न ही भारत का झंडा।

और तो और, राज्य के अंदर बाहर आने-जाने के लिए परमिट सिस्टम भी लागू था अर्थात भारत के भीतर ही एक अर्द्ध स्वतंत्र प्रभुसत्ता संपन्न देश। इस हल के मुताबिक केंद्र सरकार के पास सिर्फ रक्षा, विदेश और वित्त विभाग के अधिकार रहेंगे। दूसरे शब्दों में कमाए भारत और खाए जम्मू-कश्मीर।

इस स्वायत्तता रिपोर्ट की मुख्य सिफारिशें इस प्रकार है-
1-भारतीय संविधान की धारा 370 को स्थाई किया जाए। 2-केंद्र सरकार के पास सिर्फ रक्षा, विदेश तथा वित्त पर अधिकार रहेगा। 3-भारतीय संविधान की धारा 356 जम्मू-कश्मीर पर लागू न हो। 4-राष्ट्रीय चुनाव आयोग व अखिल भारतीय प्रशासनिक, पुलिस तथा विदेश सेवाएं जम्मू-कश्मीर में लागू न हों। 5-मुख्यमंत्री, प्रधानमंत्री तथा राज्यपाल को सदरे रियासत कहा जाए। 6-कश्मीर का अलग झंडा, संविधान व राज्य सेवाएं हों। 7-कश्मीर पर नागरिकों के मौलिक अधिकार कश्मीरियों द्वारा स्वीकृत रूप में ही लागू होंगे। भारतीय संविधान में मिलने वाले मौलिक अधिकार तथा अनुसूचित जाति व जनजातियों को मिले अधिकारों की समाप्ति। 8-सुप्रीम कोर्ट का जम्मू-कश्मीर में क्षेत्राधिकार नहीं होगा। 9-अपराधियों को क्षमादान राष्ट्रपति का अधिकार कश्मीरियों के संदर्भ में वहां की विधानसभा और सरकार की अनुमति से ही होगा। 10-वित्तीय मसलों पर राज्य सरकार से विचार-विमर्श होगा और बाहरी संकट के समय ही राज्य पर अनुच्छेद 352 लागू किया जा सकेगा। 11-जम्मू-कश्मीर के संविधान को बदलने का अधिकार संसद के पास नहीं रहेगा। 12-1950 के उपरांत जम्मू-कश्मीर में जितने भी केंद्रीय कानून लागू हुए हैं उन सभी की वापसी।

2) क्षेत्रीय स्वायत्तता : राज्य को स्वायत्तता प्रदान करने के साथ ही उसके भीतर भी क्षेत्रों को स्वायत्तता प्रदान करने की बात भी जम्मू-कश्मीर सरकार कहती है। ऐसा वह कश्मीर समस्या के हल के लिए इसलिए कहती है ताकि राज्य के तीनों भाग यह महसूस न करें कि उनके अधिकार दबा दिए गए हैं।

क्षेत्रीय स्वायत्तता की रिपोर्ट जम्मू-कश्मीर को 6 भागों में बांटने की बात कहती है। सभी जिलों तथा तहसीलों का दर्जा समाप्त करने की बात भी। जबकि इस बंटवारे का आधार कहीं भोगौलिक परिस्थितियां रखी गई हैं तो कहीं पर धर्म।

इस प्रस्ताव में कश्मीर घाटी के बारामुल्ला तथा कुपवाड़ा जिलों को मिला कर कामराज प्रांत बनाने की बात कही गई है जिसमें बडगाम जिले की दो तहसीलें भी इसलिए शामिल किया है, क्योंकि वे प्रैक्टिकल तौर पर उसमें ही शामिल होनी चाहिए।

ठीक इसी प्रकार नुनदाबाद क्षेत्र के लिए श्रीनगर तथा बडगाम जिलों को एक करने की बात कही गई है तो मराज क्षेत्र के लिए अनंतनाग व पुलवामा जिलों को जोड़ने की बात कही गई है।

हालांकि चिनाब घाटी क्षेत्र के लिए डोडा जिले में उधमपुर जिले की माहौर तहसील को साथ मिलने की बात कही गई है। कहा यह गया है कि माहौर तहसील भोगौलिक तौर पर डोडा जिले का ही हिस्सा है।

इसके उपरांत जम्मू क्षेत्र के लिए जम्मू, कठुआ व उधमपुर जिलों का मिलन करवाया गया है जिसमें से उधमपुर जिले की माहौर तहसील को निकाला गया है, तो पीर पंजाल क्षेत्र के लिए राजौरी और पुंछ के जिलों को एकसाथ मिलाने की बात कही गई है अर्थात सब कुछ ‘चिनाब प्लान’ योजना के मुताबिक।

क्या है संयुक्त राष्ट्र का प्रस्ताव...
संयुक्त राष्ट्र संघ का प्रस्ताव : संयुक्त राष्ट्र संघ में 5 जनवरी 1949 को पारित प्रस्ताव-

1-भारत अथवा पाकिस्तान में जम्मू-कश्मीर राज्य के विलय का प्रश्न एक स्वतंत्र तथा निष्पक्ष जनमत संग्रह की प्रजातांत्रिक पद्धति से हल किया जाएगा।

2-जनमत संग्रह तब होगा जब यह पाया जाएगा कि युद्धविराम और शांति समझौतों का परिपालन हो गया गया है और जनमत संग्रह के लिए पूरे प्रबंध कर लिए गए हैं।

3-संयुक्त राष्ट्र के महासचिव आयोग की सहमति से एक जनमत संग्रह प्रशासक नामांकित करेंगे, जो सम्मानीय व्यक्तित्व और आम विश्वास पैदा करने में समर्थ होगा। ऐसे व्यक्ति की विधिवत नियुक्ति जम्मू-कश्मीर की सरकार करेगी और उसे सारी शक्तियां राज्य सरकार से प्राप्त होंगी और वह आवश्यक कर्मचारी अपने दायित्व की पूर्ति में सहायता हेतु नियुक्त कर सकेगा।

4-13 अगस्त 1948 के संकल्प के पहले और दूसरे भाग के परिपालन के बाद और आयोग की संतुष्टि के बाद की राज्य में शांतिपूर्ण परिस्थितियां पुनर्स्थापित हो गई हैं तब आयोग और जनमत संग्रह प्रशासक भारत सरकार से परामर्श कर भारतीय और राज्य की सेनाओं को अंतिम रूप से हटाने का निर्णय किया जाएगा। सेना के हटाते समय राज्य की सुरक्षा और जनमत संग्रह की स्वतंत्रता को ध्यान में रखा जाएगा।

लेकिन 13 अगस्त 1948 के संकल्प के भाग-दो के अ-2 से संबंधित क्षेत्र में सेना को अंतिम रूप से हटाने का निर्णय आयोग और जनमत संग्रह प्रशासक स्थानीय अधिकारियों की सलाह पर लेंगें।

5-राज्य के समस्त असैनिक व सैनिक अधिकारी और राजनीतिक तत्वों को जनमत संग्रह के लिए तैयारी करने तथा जनमत संग्रह के लिए ‘जनमत संग्रह प्रशासक’ के साथ सहयोग करना पड़ेगा।

6-क: राज्य के वे सभी नागरिक जो अशांत स्थिति के कारण राज्य छोड़कर चले गए थे, वे वापस आमंत्रित किए जाएंगे और वे वहां जाने के लिए स्वतंत्र होंगे और ऐसे नागरिकों के रूप में अपने सभी अधिकारों का प्रयोग करेंगे। उनके राज्य में प्रवेश के लिए, सुविधाजनक स्थिति पैदा करने के लिए आयोग, भारत और पाकिस्तान सरकार, राज्य व स्थानीय अधिकारी और प्रशासक की मिली-जुली समिति गठित की जाएगी।

ख: वह लोग जो 15 अगस्त 1947 को या उसके बाद राज्य में गैरकानूनी उद्देश्य से घुसपैठ कर गए, उन्हें राज्य छोड़कर जाना पड़ेगा।

7-जम्मू-कश्मीर राज्य के समस्त अधिकारी प्रशासक के साथ सहमति कर यह सुनिश्चित करेंगे कि...

अ: जनमत संग्रह के लिए वोटरों को डराने-धमकाने, घूस या अनुचित दबाव का कोई खतरा न हो।

ब: राज्य में निर्बाध रूप से वैध राजनीतिक गतिविधियों पर कोई नियंत्रण न हो। राज्य के सभी निवासी चाहे किसी जाति, वर्ग या दल के हों, वोटिंग के समय जम्मू-कश्मीर राज्य के भारत या पाकिस्तान में विलय के प्रश्न पर सुरक्षित और निर्भीक होकर मत व्यक्त कर सकें। प्रेस की आजादी, भाषण और सभाओं की आजादी, राज्य में यात्रा तथा वैध रूप से आवागमन की स्वतंत्रता रहेगी।

स: सभी राजनीतिक कैदी छोड़ दिए जाएंगे।
द: राज्य में अल्पसंख्यकों को समुचित सुरक्षा प्रदान की जाएगी।
इ: किसी को तंग नहीं किया जाएगा विशेषकर जनमत संग्रह के बाद।

8-जनमत संग्रह हो जाने पर जनमत संग्रह प्रशासक आयोग को और जम्मू-कश्मीर सरकार को परिणामों से अवगत करवाएगा और भारत व पाकिस्तान के लिए संयुक्त राष्ट्र आयोग महासचिव को प्रमाणित करेगा कि जनमत संग्रह स्वतंत्र: या स्वतंत्र नहीं और पक्षपातपूर्ण था।

... और क्या कहता है दिल्ली समझौता...
दिल्ली के समझौते : (1952 का दिल्ली समझौता) : जब राज्य की संविधान सभा कई महत्वपूर्ण निर्णय ले चुकी, जिनका उल्लेख इससे पहले किया गया है, जो उसके बाद यह आवश्यक समझा गया कि उन पर भारत सरकार की सहमति भी प्राप्त कर ली जाए। अतः इस उद्देश्य के लिए कश्मीर सरकार के प्रतिनिधियों ने भारत सरकार के साथ बातचीत की ओर इस प्रकार एक समझौता अस्तित्व में आया। वह समझौता ही बाद में दिल्ली समझौता 1952 के नाम से प्रसिद्ध हुआ। उस समझौते की प्रमुख विशेषताएं ये हैं-

1. जम्मू-कश्मीर संविधान सभी के इस पक्ष के मद्देनजर कि सभी मामलों में संप्रभुता राज्य बरकरार रहेगी केवल उन मामलों को छोड़कर जिनका उल्लेख विलय पत्र में किया गया है, भारत सरकार इस पर सहमत हुई कि शेष वैधानिक अधिकार जो जम्मू व कश्मीर के अतिरिक्त, सभी राज्यों के संबंध में केंद्र के पास हैं। जम्मू व कश्मीर के मामले में वे सब वैधानिक अधिकार स्वयं राज्य में ही निहित हैं।

2. दोनों सरकारों के बीच इस पर भी सहमति हुई कि भारतीय संविधान के अनुच्छेद 5 के अनुसार वे व्यक्ति जो जम्मू व कश्मीर में अपना निवास स्थान रखते हैं, भारत के नागरिक माने जाएंगे, परंतु राज्य की विधायिका को यह अधिकार दिया गया है कि वह स्टेट सब्जेक्ट नोटीफिकेशन 1927 एवं 1932 के मद्देनजर, राज्य की जनता से संबंधित विशेष अधिकारों और उन्मुक्तियों के सिलसिले में कानून बना सकती है। राज्य की विधायिका को यह अधिकार भी दिया गया है कि वह राज्य की उस प्रजा के लिए भी कानून बना सकती है, जो 1947 में सांप्रदायिक झगड़ों के कारण पाकिस्तान चली गई थी और यदि वह कश्मीर वापस लौट आएं।

3. और यह कि भारत के राष्ट्रपति को राज्य में वे सब सम्मान प्राप्त रहेंगे, जो उसे भारत के अन्य राज्यों में प्राप्त हैं और उससे संबंधित भारतीय संविधान में 52 से 62 तक जो अनुच्छेद हैं वे राज्य में भी लागू रहेंगे। साथ ही, इस पर सहमति हुई कि क्षमादान और सजाओं में रियायत आदि से संबंधित जो भी शक्तियां भारत के राष्ट्रपति को प्राप्त हैं वे भी शक्तियां उसमें यथावत निहित रहेंगी।

4. भारतीय गणराज्य की सरकार इस पर सहमत हुई है कि गणराज्य के झंडे के साथ-साथ राज्य अपना झंडा भी रख सकता है लेकिन राज्य सरकार ने इस पर अपनी सहमति दी है कि राज्य का झंडा तथा गणराज्य का झंडा कभी भी एक-दूसरे का प्रतिद्वंद्वी बनकर नहीं रहेगा। यह भी मान लिया गया है कि गणराज्य के झंडे की वही हैसियत और स्थिति जम्मू व कश्मीर राज्य में भी रहेगी जैसी भारत के अन्य राज्यों में हैं लेकिन कुछ ऐतिहासिक कारणों से जिनका संबंध राज्य के स्वतंत्रता संघर्ष से है, राज्य की इस जरूरत को मान लिया गया है कि वह चाहे तो अपने झंडे को बरकरार रख सकता है।

और क्या है दिल्ली समझौते में...
5. सदर-ए-रियासत की स्थिति के संबंध में भी पूर्णतया सहमति हो गई है, यद्यपि उसका चुनाव राज्य की विधायिका द्वारा किया जाएगा तथापि अपने पद पर आसीन होने से पूर्व वह भारत के राष्ट्रपति की मान्यता भी प्राप्त करेगा बिलकुल उसी प्रकार जैसा कि भारत के अन्य राज्यों में है कि राज्य के प्रमुख की नियुक्ति भारत के राष्ट्रपति द्वारा की जाती है और वह उसी के द्वारा नामांकित किया जाता है, परंतु वह व्यक्ति जो राज्य के प्रमुख के पद पर नियुक्त किया जाना है वह राज्य सरकार को भी स्वीकार्य होना चाहिए।

6. जहां तक मौलिक अधिकारों का संबंध है, दोनों पक्षों के बीच कुछ मौलिक सिद्धांतों पर सहमति हुई है। यह स्वीकार किया गया है कि राज्य की जनता को मौलिक अधिकार प्राप्त होंगे। परंतु राज्य की विशेष स्थिति के मद्देनजर भारतीय संविधान में ‘मौलिक अधिकारों’ से संबधित पूरे अध्याय को राज्य में लागू नहीं किया जा सकता। जो बात अभी तय की जानी बाकी है वह यह है कि क्या ‘मौलिक अधिकारों’ में संबोधित अध्याय, राज्य के संविधान का भाग हो।

7. जहां तक भारत के उच्चतम न्यायालय के क्षेत्राधिकार का संबंध है, यह स्वीकार किया गया है कि कुछ समय तक जब तक राज्य में न्यायायिक परामर्शदाताओं के बोर्ड का अस्तित्व है, जो कि राज्य की सर्वोच्च न्यायिक अथॉरिटी है, सर्वोच्च न्यायालय के पास केवल अपीलीय क्षेत्राधिकार ही रहेगा।

8. ‘आपातकालीन शक्तियों’ के संबंध में भी काफी बहस हुई है। भारत सरकार अनुच्छेद 352 को लागू करने का आग्रह करती रही है, जो राष्ट्रपति को यह अधिकार प्रदान करता है कि वह राज्य में एक जनरल आपात की घोषणा कर सकता है। राज्य सरकार का तर्क यह रहा है कि युद्ध अथवा आंतरिक गड़बड़ के समय सुरक्षा संबंधी भारत सरकार की शक्तियों के इस्तेमाल के मामले में भारत सरकार के पास उचित कदम उठाने की पूरी शक्ति रहेगी और वह आपात की घोषणा कर सकेगी।

1975 का समझौता : निम्नांकित बिंदुओं पर सहमति के बाद तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी के साथ शेख मोहम्मद अब्दुल्ला का एक समझौता हुआ जिसके परिणामस्वरूप फरवरी, 1975 में उन्होंने राज्य के मुख्यमंत्री का पद संभाला। जो समझौता हुआ वह इस प्रकार है-

क्या है शेख अब्दुल्ला और इंदिरा गांधी के समझौते में...
1. जम्मू और कश्मीर भारतीय संघ का अविभाज्य अंग हैं और संघ के साथ उनके संबंधों का निर्धारण, भविष्य में भारतीय संविधान की धारा 370 के अंतर्गत ही होगा।

2. यद्यपि कानून बनाने की अवशिष्ट शक्तियां राज्य के पास रहेंगी तथापि संघीय संसद का ऐसे तमाम विषयों पर कानून बनाने का अधिकार बरकरार रहेगा जिनका संबंध भारत की क्षेत्रीय अखंडता और प्रभुसत्ता को भंग करने, चुनौती देने या नकारने के किसी प्रत्यक्ष अथवा अप्रत्यक्ष प्रभाव और भारतीय क्षेत्र के किसी भाग को उससे अलग करने या भारत के किसी क्षेत्र को संघ से अलग करने या भारतीय राष्ट्रीय ध्वज, भारतीय राष्ट्रीय गान व भारतीय संविधान का अपमान करने की किसी भी गतिविधि को रोकने से हो।

3. यदि जम्मू-कश्मीर राज्य में भारतीय संविधान के किसी प्रावधान को अनुकूलनों और संशोधित अवस्था में लागू किया गया हो तो ऐसे अनुकूलों और संशोधनों को धारा 370 के अंतर्गत राष्ट्रपति के आदेश के जरिए बदला जा सकता है तथा इस बारे में निजी प्रस्ताव को उसके गुणावगुणों के आधार पर देखा जाएगा, लेकिन जम्मू-कश्मीर राज्य में जो पहले से ही लागू संविधान के उन प्रावधानों को, जो संशोधित या अनुकूलित व्यवस्था में लागू किए गए थे, बदला नहीं जाएगा।

4. कल्याण कार्यों, सांस्कृतिक मामलों सामाजिक सुरक्षा, वैयक्तिक कानून तथा व्यावहारिक कानून आदि के मामलों में अपने खुद के कानून बनाने की जम्मू-कश्मीर की स्वतंत्रता को राज्य की विशेष परिस्थितियों के अनुरूप सुनिश्चित करने की गरज से इस बात पर सहमति व्यक्त की जाती है कि राज्य सरकार 1953 के बाद संसद द्वारा राज्य के लिए बनाए गए या राज्य में लागू किए गए सीमावर्ती सूची के विषयों से जुडे़ किसी भी कानून की समीक्षा कर सकती है, उसमें संशोधन कर सकती है या चाहे तो उसे रद्द कर सकती है।।

5. जैसा कि संविधान कि धारा 368 के अंतर्गत पारस्परिक प्रावधान है, राज्य में लागू इस धारा को राष्ट्रपति के आदेश के जरिए संशोधित करके ऐसी व्यवस्था की जाए कि निम्नलिखित विषयों को प्रत्यक्षतः प्रभावित करने की मंशा से जम्मू-कश्मीर के संविधान में संशोधन हेतु राज्य विधायिका द्वारा बनाए जाने वाला कोई भी कानून तब तक लागू न हो, जब तक कि उस कानून के विधेयक पर राष्ट्रपति की स्वीकृति नहीं ले ली जाती। ये विषय हैं-

(अ) राज्य की नियुक्ति उसकी शक्तियां, उसके कार्य, कर्तव्य, विशेषाधिकार व उन्मुक्तियां।

(ब) चुनावों से जुड़े मामलों पर भारत के चुनाव आयोग का पर्यवेक्षण, दिशा-निर्देशन, नियंत्रण व बिना किसी भेदभाव के मतदाता सूचियों में प्रविष्टियां बालिग मताधिकार का सुनिश्चितीकरण और विधान परिषद का गठन, जिसका जम्मू-कश्मीर के संविधान की धाराओं-139, 140 व 150 में प्रावधान है।

6. राज्यपाल और मुख्यमंत्री के पदनाम के सवाल पर कोई समझौता संभव नहीं था लिहाजा इस मामले को छोड़ दिया जाता है।