जलवायु परिवर्तन के वैश्विक एजेंडे में कोरोना संकट जनित व्यवधान

द्वितीय विश्व युद्ध की समाप्ति के साथ शुरू हुई उपनिवेशों की आजादी ने वैश्विक राजनीति के मंच को नव-स्वतंत्र, विकासशील देशों के लिए भी खोल दिया। द्विध्रुवी विश्व की राजनीति खत्म होने के बाद पश्चिमी देश मुद्दाविहीन होते चले गये तो इन्ह्ने जोर-शोर से जलवायु परिवर्तन का अजेंडा चलाया। जिसके संकट को इन्होने अतिशयोक्तिपूर्ण तरीके से व्यक्त करना शुरू कर दिया था।

वर्ष 1991 में एक तो नव-उदारवाद की शुरुआत हुई, वही अगले साल वर्ष 1992 में पृथ्वी सम्मेलन ने पर्यावरणीय राजनीति की शुरुआत की। तब से वैश्विक राजनीति इन्ही के इर्दगिर्द घूम रही हैं। क्योटो और पेरिस जैसे समझौतों ने लगभग सभी देशों को इस राजनीति का हितधारक बना दिया। लेकिन वर्ष 2020 में आकर कोरोना संकट ने पुरे वैश्विक परिदृश्य को बदल करके रख दिया। इसने बिलकुल ही अलग प्रकार की वैश्विक व्यवस्था को जन्म दिया, जिसमे सभी पीड़ित देश किसी एक जिम्मेदार की खोज करने में विफल हैं। सभी देश दीर्घकालीन अनिश्चित संकट का सामना करने के बजाय वर्तमान में मौजूद निश्चित संकट का समाधान खोजने के लिए प्रयासरत हैं। लेकिन दोनों ही मामलों में भय और उपाय जैसी सामान्य विशेषताएँ दृष्टिगोचर की जा सकती हैं। 

इस समय पर देखा जाए तो हम कह सकते हैं कि कोरोना संकट ने जलवायु परिवर्तन को पछाड़ दिया हैं। इस कथन को कहने के लिए हमारे पास कई तर्क मौजूद हैं -

  • दीर्घकालीन संकट के ऊपर वर्तमान संकट को प्राथमिकता : इस समय पर जलवायु परिवर्तन से ज्यादा शोर कोरोना संकट का हैं। यदि, जलवायु परिवर्तन की कीमत पर भी कोई उपाय इस समस्या से छुटकारा दिला सकता हैं तो दुनिया उसे अपनाना पसंद करेगी। इससे पता चलता हैं कि कम से कम इस समय पर तो जलवायु परिवर्तन का मुद्दा द्वितीयक हैं।
  • कोरोना संकट में जलवायु परिवर्तन का संकट कम हुआ हैं : जलवायु परिवर्तन का एजेंडा इस समय इसलिए भी प्राथमिकता में नही हैं क्योंकि इस महामारी की रोकथाम के लिए लगाए गये लॉकडाउन के कारण प्रदूषण के स्तर में अभूतपूर्व कमी देखने को मिली। ध्रुवों पर ओजोन छिद्र के भी भरने की बात सामने आ रही हैं।  कुछ लोग दूर पहाड़ों को देखने का दावा कर रहे हैं तो कुछ नदियों के जल को  स्वच्छ होने का। यह बात सही भी हैं कि इस दौरान जीवाश्म ईंधन के प्रयोग में कमी से उत्सर्जन में गिरावट आई। यहाँ एक तरह से कोरोना संकट जलवायु परिवर्तन के विरुद्ध उपाय का कार्य कर रहा हैं।
  • प्रायोजित डर में बढ़त : जिस प्रकार वैश्विक एजेंडा जलवायु परिवर्तन की विकटता के प्रति आगाह करने के लिए कई प्रकार की रिपोर्ट और सूचकांक जारी कर रहा था। कोरोना में भी समय के साथ विभिन्न रिपोर्ट इसकी भयावहता के बारे में उत्तरोत्तर वृद्धि की बात कह रही हैं। शुरू में कहा गया कि यह संक्रमित व्यक्ति से स्त्रावित द्रव के संपर्क में आने से होता हैं, अब कहा जा रहा हैं कि यह हवा में भी प्रसारित हो सकता हैं। ऐसा कह सकते हैं कि डर का कोई प्रायोजक उपस्थित हैं, जो मार्केट की डिमांड के अनुसार इसके संस्करण को अपडेट करता रहता हैं। साथ ही कोरोना का यह प्रायोजित डर जलवायु परिवर्तन से आगे निकल गया हैं। लॉकडाउन के दौरान दिल्ली में कम से कम आठ बार भूकम्प आया था, लेकिन खौप कोरोना का ही ज्यादा था।   
  • समाधानों के लिए प्रयास में कोरोना आगे हैं : जिस प्रकार विभिन्न व्यवसाय समूह वैश्विक राजनीति की सहायता से जलवायु परिवर्तन को रोकने के लिए हरित उपकरणों का बाजार खड़ा करने में लगे हुए हैं। उसी प्रकार कोरोना संकट में भी विभिन्न प्रतिभागी निवारक एवं उपचार समाधानों का बाजार खड़ा करने में लगे हुए हैं। रिओ समिट के बाद पुरे विश्व को परिचर्चा की सभा में एकजुट करने के लिए जलवायु परिवर्तन ही सर्वोच्च मुद्दा था, इसने पिछले दशकों के व्यापार वार्ता, परमाणु निशस्त्रीकरण जैसे मुद्दों को पीछे छोड़ दिया था। परन्तु इस समय कोरोना संकट ने इस मुद्दे को नेपथ्य में डाल दिया हैं। इस समय पर सभी देश या तो वैक्सीन को लेकर वार्तारत है या फिर बदहाल स्थिति की बहाली के लिए चर्चाओं में संलग्न हैं।
  • अन्य मुद्दें : जिस तरह जलवायु परिवर्तन ने वैश्विक राजनीति में विकसित बनाम विकासशील देश, समान परंतु विभेदित उत्तरदायित्व, न्यूनीकरण एवं अनुकूलन जैसे मुद्दें मुख्यधारा में रहते हैं, उसी प्रकार यहाँ भी ब्लेम गेम, विकासशील देशों की सहायता जैसे मुद्दें मुख्यधारा में हैं।  

कोविड-19 का डर : पूर्व में और अब 

जैसे-जैसे कोरोना की जीवन यात्रा आगे बढ़ी हैं, डर उत्पन्न करने की एक व्यवस्था भी इसके साथ आगे बढ़ी हैं। 

  1. शुरू में इटली और चीन की ख़बरों, मूवीज के दृश्यों को सोशल मीडिया पर साझा करके लोगो को इतना डराया कि उन्हें एक सख्त लॉक डाउन में रहने के लिए मजबूर और प्रताड़ित किया गया। जिसके साथ लोगो की आजीविका चौपट हो गई और उन्हें सैंकड़ों किलोमीटर दूर अपने घरों की और पैदल सफ़र करना पड़ा। जिसकी विभिषका अपने आप में ही एक अध्याय (कोविड-19 लॉकडाउन और मजदूरों का पलायन)हैं।      
  2. आरंभिक दौर में कोरोना के बारे में अपुष्ट, एकतरफा दावे करके मौजूदा स्वास्थ्य अवसंरचना को भी सीमित और संशयित रखा गया। शुरू में लोगो का ईलाज नही करके उन्हें आइसोलेशन वार्ड में बंद कर दिया, जिन्हें समय पर खाना तक नही दिया। इनमे से परेशान होकर कई लोगों ने आत्महत्या कर ली। शायद इस स्तर पर सोच यह थी कि भले ही ये तो मर जाए, लेकिन बाकि लोग इनके संपर्क में नही आये।
  3. आरंभिक दौर ऐसा था, जिसमे लोगों में इस हद तक डर था कि अगर कोई गाँव का आदमी बाहर से आया है तो उससे संपर्क नही रखा गया। अगर किसी आदमी को बुखार है तो मेडिकल वाला दवाई देने से मना कर देता था। एक तरीके से एक आधुनिक अस्पृश्यता की स्थिति देखने को मिल रही थी। मतलब लोग संक्रमण के डर की वजह से अतिरिक्त सतर्क (Extra -Alert) थे।
  4. जब संक्रमित व्यक्ति के संपर्क से भी कई लोगो को नही हुआ तो लोगो को डराने के लिए इसके हवा में प्रसारित होने की बात कही गई। लोग फिर भी नही डरे तो कहा गया कि अभी एक दक्षिण पूर्वी देश में कोरोना के ऐसे उपभेद (strain) मिले हैं, जो अभी तक ज्ञात संक्रमण के मामलों से बहुत अधिक खतरनाक हैं।
  5. अब तो पडौस में हो जाता हैं तो भी कोई तवज्जों नही देता। क्योंकि ठीक होने वाले के अनुसार यह एक प्रकार का बुखार ही हैं। जिसमे आपकी इम्युनिटी ठीक है तो डरने की कोई जरुरत भी नही हैं। इसका आलम यह हुआ कि लोग खुद सामने आकर अपने पॉजिटिव होने का स्टेटस अपडेट कर रहे हैं कि उनको कोरोना था तो उनसे मिलने वाले अपना टेस्ट कराये, जबकि पहले इसके साथ बहुत बड़ा स्टिग्मा जुदा हुआ था। अब लोग कोरोना पॉजिटिव आने के बाद भी धरने और प्रदर्शनों का हिस्सा बन रहे हैं। कोरोना पॉजिटिव आकर किसी परिजन के मरने के बाद भी लोग खुद से उनका अंतिम संस्कार कर रहे हैं। जबकि पहले मृतक को पैक करके देने के कारण कई शवों की आपस में अदला-बदली हो गई। कई शव कॉविड प्रोटोकॉल का पालन करने के कारण लंबे समय तक अस्पतालों में पड़े रहे। कईयों के साथ अस्पतालों में छल-कपट हुआ, जब अच्छे-खासे लोगो को कॉविड से मृतक बता दिया गया।

इन सब उदाहरणों से स्पष्ट हो जाता हैं कि आरंभिक दिनों में कोरोना को लेकर कितना अन्याय हुआ हैं। देश ने वाकई पिछले चार-पांच महीने बहुत कष्ट झेला हैं।

क्या कोरोना की तुलना जलवायु संकट से की जा सकती हैं?

जलवायु संकट की चिंताएं भी वास्तविक हैं, लेकिन जो समाधान किए जा रहे हैं, वे व्यावसायिक हैं। सभी व्यवसायी वैकल्पिक हरित समाधानों को विकसित करने का दावा करके हाशिए पर पड़े लोगो के परम्परागत आजीविका निर्वाह को समाप्त करना चाहते हैं। इनके द्वारा किए गये उपाय लक्ष्यहीन हैं, जो असली चुनौतियों को संबोधित नही करते हैं। इन उपायों के लिए जनता को भरी कीमत चुकानी पड़ रही हैं, जिसे हम ओजोन संरक्षण से जुड़े वियना समझौते से समझ सकते हैं। जिसके लक्ष्यों को तथाकथित तौर पर प्राप्त कर लिया गया हैं। लेकिन आम लोगो की जिन्दगी में इससे कोई फर्क नही पड़ा, जबकि उन्हें चीजे प्राप्त करने से रौकने के लिए कीमतों में वृद्धि की गई। साथ ही यह राजनीति में विकासशील देशों के प्रति ऐतिहासिक न्याय किए बिना उन पर दायित्व थोपना चाहते हैं। कोरोना संकट में भी यही स्थिति हैं, जिम्मेदार पक्ष की न तो पहचान की गई हैं और न ही उसके दायित्व निर्धारित किए गये हैं। अगर ऐसा नही किया गया तो यह इस प्रकार के अग्रिम दुस्साहसों को प्रोत्साहित करेगा।

दूसरी बात डर की बात भी दोनों में प्रायोजित हैं, जो वैश्विक संगठनों द्वारा इर्धारित किया जाता हैं। इसका नुकसान यह रहा हैं कि यह मूल और अति आवश्यक मुद्दों से ध्यान को विमुख कर दे रहा हैं। यही कारण हैं कि निर्धनता उन्मूलन, पोषण एवं भूख जैसे मुद्दें वैश्विक राजनीति से गायब हो गये हैं या फिर गिलोटिन की भेट चढ़ने वाले उप-खंडों में बदल गये हैं।

राष्ट्रीय-राज्य की अक्षमता

कोरोना संकट में राष्ट्रीय-राज्य की अक्षमता उजागर हुई कि वह आगामी अप्रत्याशित संकटों के प्रति अनुक्रिया करने के लिए तैयार नही हैं। चाहे वह कोरोना हो या फिर कोई प्राकृतिक आपदा हो।

लॉक डाउन के बारे में सरकार को आरंभ में पता ही नही था कि इसके लिए किस कानून का सहारा लिया जाए। इसलिए देश भर में इसका अनुपालन सुनिश्चित करने के लिए CrPC की धारा 144 का प्रयोग किया गया। लॉक डाउन 2.0 में जाकर NDMA ने आपदा प्रबंधन अधिनियम से शक्तियों को ग्रहण किया। 

लेकिन धारा 144 के अखिल भारतीय प्रयोग ने पुरे देश का एक साथ आपराधिक-करण कर दिया गया। लोगो को घरों से निकालकर भी पीटा गया, धार्मिक स्थलों और कही जरुरी जगह से आते अकेलें आदमियों को भी पीटा गया। इसका क्षेत्राधिकार विस्तृत था। यह आपातकाल से भी बदतर था, जिसमे अनुच्छेद 359 के तहत प्राप्त अनुच्छेद 20 और 21 का समर्थन भी प्राप्त नही था। प्रधानमंत्री ने कहा कि जनता इसे अपने आप पर लगाया हुआ आपातकाल माने। यह एक राष्ट्रीय-राज्य की विफलता थी कि वो अपनी आवाम को अपनी क्षमताओं पर भरोसा दिलाने में नाकामयाब रहा। अधिकतर राष्ट्रीय-राज्यों ने अपनी अक्षमताओं के लिए लोगो को दंडित किया। इस दौरान कईयों के खिलाफ मुकदमे दर्ज हुए और कईयों के वाहन जब्त हुए, जिनके लिए वे आज भी (22 सितंबर 2020) पुलिस थानों और अदालतों के चक्कर लगा रहे हैं। 

इस सख्त लॉक डाउन के बाजवूद भी लोगों ने पलायन किया। उनके लंबे सफ़र, साथ में बच्चे और बूढ़े, रास्ते में दुर्घटना, बसों को अनुमति देने में राजनीति आदि मुद्दों की कारण उत्पन्न मानवीय संकट की चर्चा सोशल मीडिया में जमकर हुई। जिसके कारण सरकार पर दबाव पड़ा और वह लॉकडाउन को सरल बनाने के लिए मजबूर हुई। साथ ही अर्थव्यवस्था की बहाली के लिए घोषित आत्मनिर्भर भारत पैकेज के नाम के पीछे काफी हद तक प्रवासी मजदूरों को गृह राज्य में ही रोजगार देने की अवधारणा थी, हालाँकि आत्म निर्भर पैकेज का विश्लेषण एक अलग अध्याय में समझाया जाएगा।

कोविड-19 केन्द्रित आगामी राजनीति

ये बात तो सही हैं कि आगामी समय में कोविड-19 केन्द्रित राजनीति ही मुख्यधारा में रहेगी क्योंकि इस समय पर सभी देश वैक्सीन का बड़ी बेसब्री से इंतजार कर रहे हैं। सभी देश वैक्सीन को प्राप्त करने, वितरण करने और सुरक्षित रखने जैसे कार्यों में संलग्न हैं। जो व्यवसायी जलवायु परिवर्तन के लिए समाधान विकसित करने हेतु कार्यरत थे, वे अब वैक्सीन से जुड़े कार्यों में संलग्न हो गये हैं। वैक्सीन आने पर कंपनियों द्वारा मोटी कमाई किए जाने की आशंका बताई जा रही हैं, हो सकता हैं तब सामान्य बुखारों को कोरोना बताने के चलन में वृद्धि हो।

निष्कर्ष

जलवायु परिवर्तन और कोरोना दोनों संकट वास्तविक हैं और दोनों के ही प्रति समान रूप से सतर्कता बरतने की आवश्यकता हैं। लेकिन केवल व्यावसयिक हितों के कारण ही डर को प्रायोजित नही करना चाहिए क्योंकि इससे लोगो के मध्य भारी अराजकता उत्पन्न होती हैं, जो उनकी जान और आजीविका के लिए विध्वन्श्कारी होती हैं। दोनों के लिए ही समाधानों और नवाचारों का समर्थन करने की आवश्यकता हैं।